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३६ : श्रमण, वर्ष ५८, अंक २-३/अप्रैल-सितम्बर २००७
निहित स्वार्थों की पूर्ति करने वाले धार्मिक नेताओं द्वारा किए जाने वाले घृणित कार्यों के लिए धर्म कभी भी उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। धर्म के नाम पर अतीत में जो बर्बरताएं हुई हैं और वर्तमान में जो पापकर्म हो रहे हैं, उसके मूल में तथाकथित धार्मिक नेताओं और उनके अन्ध-अनुयायियों की असहिष्णुता एवं धर्मान्धता ही प्रमुख कारण हैं।
इस घृणित स्थिति से यदि कोई अपने को मुक्त करना चाहता है, तो इसका केवल एक ही उपाय है - धर्म के सारतत्त्व को पकड़कर धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझना और साथ ही दूसरों की विचारधारा एवं धर्म के प्रति सहिष्णुता एवं सम्मान की भावना को अपने में विकसित करना।
जैनाचार्यों के लिए सच्चा धर्म समत्वभाव की साधना में सन्निहित है और अहिंसा का पालन करना उसकी आधारशिला है। सबसे प्राचीन जैन आगम 'आचारांगसूत्र' (ईसा पूर्व की चौथी शताब्दी) में हम धर्म की निम्न दो परिभाषाओं को पाते हैं - समभाव की साधना धर्म का सारतत्त्व है और अहिंसक-व्यवहार उसकी बाह्य अभिव्यक्ति है या धर्म का सामाजिक पहल है। 'आचारांगसूत्र' में उल्लेखित है कि अहिंसक-आचरण ही सच्चा और शाश्वत धर्म है।
जैनधर्म अपने उद्भव-काल से ही मानव-समाज को शांति, सामन्जस्य और सहिष्णूता का पाठ पढ़ाता आया है और इन्हीं सार्वभौमिक मल्यों में विश्वास करता है। जैनधर्म के विकास का इतिहास बताता है कि वह अपने अभ्युदय काल से ही अन्य धर्मों और धार्मिक विचारधाराओं के प्रति सहिष्णु एवं समादरभाव से युक्त रहा है। जैनधर्म के इतिहास में धार्मिक युद्ध का मुश्किल से ही ऐसा कोई उदाहरण मिलेगा, जिसमें हिंसा या खून-खराबे को धर्म का जामा पहनाया गया हो। वह वैचारिक-मतभेदों की चर्चा कर अनेकांतदृष्टि से उन्हें सुलझाने का ही प्रयत्न करता रहा है। जैनाचार्यों की शिक्षा यह है कि दूसरों की विचारधारा एवं धार्मिक-सिद्धान्तों का विरोध करते समय उन्हें पूर्ण आदर देना चाहिए तथा यह भी स्वीकार करना चाहिए कि उनकी धारणाएं भी किसी निश्चित दृष्टिकोण से न्यायसंगत हो सकती हैं। मानवता : धर्म का सच्चा स्वरूप
नि:संदेह सबसे पहले तो हम मनुष्य हैं, तत्पश्चात् कुछ और हैं, जैसे - हिन्दू, मुस्लिम, जैन या बौद्ध। सच्चा हिन्दू, मुसलमान आदि होने की पहली शर्त है - सच्चा इन्सान होना। हमारा प्राथमिक धर्म यह है कि हम सही अर्थों में मानव बनें। यही बात प्राचीन जैन ग्रन्थ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में भी प्रतिध्वनित हुई है, जिसमें भगवान् महावीर ने एक सच्चा धार्मिक होने के लिए निम्न चार शर्ते निर्धारित की हैं - १. मानवता