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: श्रमण, वर्ष ५७, अंक १ / जनवरी-मार्च २००६
केवल श्रवण- सुखद है, अपितु कल्मषापह भी है। सच पूछिए, तो मानव का जीवन ही एक कथा है। कथा अपने जीवन की हो, या किसी दूसरे के जीवन की, मानव-मन की समान भावानुभूति की दृष्टि से प्रत्येक कथा तदात्मता या समभावदशा से आविष्ट कर लेती है और फिर उससे जो जीवन की सही दिशा का निर्देश मिलता है, वह सहज ग्राह्य भी होता है। इसीलिए, भगवान् के द्वारा कही गई वेद या पुराण की संस्कृति - कथाएँ या जैनागम की प्राकृत-कथाएँ या फिर बौद्ध त्रिपिटक की पालि-कथाएँ अतिशय लोकप्रिय हैं। इस प्रकार, प्रत्येक परम्परा का आगम-साहित्य ही कथा की आदिभूमि है ।
भगवान महावीर द्वारा उपदिष्ट जैनागमों का संकलन अर्द्धमागधी प्राकृत में हुआ है। अतएव, प्राकृत-कथाओं की बीजभूमि या उद्गम-भूमि आगम ग्रन्थ ही हैं। निर्युक्ति, भाष्य, चूर्ण आदि आगमिक टीका- ग्रन्थों में भी लघु और बृहत् सहस्त्रों कथाएँ हैं। आगमिक साहित्य में धार्मिक आचार, आध्यात्मिक तत्त्वचिन्तन, नीति और कर्त्तव्य का निर्धारण आदि जीवनाभ्युदयमूलक आयामों का प्रतिपादन कथाओं के माध्यम से किया गया है। इतना ही नहीं, सैद्धान्तिक तथ्यों का निरूपण, तात्त्विक निर्णय, दार्शनिक गूढ़ समस्याओं के समाधान, सांस्कृतिक चेतना का उन्नयन तथा अनेक ग्रन्थिल- गम्भीर विषयों के स्पष्टीकरण के लिए कथाओं को माध्यम बनाया गया है। तीर्थकरों, गणधरों और अन्यान्य आचार्यों ने कथा की शक्ति को पहचाना था, इसलिए उन्होंने अपने विचारों के लिए कथा को सर्वाधिक महत्त्व दिया।
प्राकृत - निबद्ध अंग और उपांग- साहित्य में प्राप्त, आर्हत् सिद्धान्तों को अभिव्यक्ति देनेवाले आख्यान प्रेरक और प्रांजल तो हैं ही, अन्तर्निगूढ संवेदनशील भावनाओं और सांस्कृतिक अन्तर्भावों के समुद्भावक और सम्पोषक भी हैं। आगमकालीन इन आख्यानों का उद्देश्य है- मिथ्यात्व से उपहत अधोगामिनी मानवता को नैतिक और आध्यात्मिक उदात्तता की ऊर्ध्वभूमि पर प्रतिष्ठापित करना। आगमकाल प्राकृत कथा-साहित्य का आदिकाल या संक्रमण काल था । इस अवधि में नीति और सिद्धान्तपरक प्राकृत-कथाएँ क्रमशः साहित्यिक एवं सांस्कृतिक कथाओं के रूप में संक्रमित हो रही थीं, अर्थात् उनमें सपाटबयानी के अतिरिक्त साहित्य-बोध और सांस्कृतिक परिज्ञान की अन्तरंग सजगता और रसात्मक अभिव्यक्ति की आकुलता का संक्रमण हो रहा था। अर्हतों की उपदेशवाणी की तीक्ष्णता और रूक्षता को या उसकी कड़वाहट को प्रपानक रस के रूप में परिणत कर अभिव्यक्त करने की चिन्ता प्रथमानुयोग के युग में रूपायित हुई
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