Book Title: Sramana 2004 07
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा एक तुलनात्मक अध्ययन श्लोकवार्तिक में, वादीदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर में तथा हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा में प्रमाणलक्षण निरूपण में उसे अपूर्व अर्थ का ग्राहक होना आवश्यक नहीं माना। मात्र यही नहीं, इन आचार्यों ने अपनी कृतियों में इसकी विस्तृत समीक्षा भी की है। प्रमाणमीमांसा में स्पष्ट रूप से यह कहा है कि ग्रहीष्यमानज्ञान की भाँति ग्रहीताग्राही ज्ञान भी प्रमाण है (१/१/४)। जहाँ तक धर्मकीर्ति के द्वारा अविसंवादी ज्ञान को ही प्रमाण लक्षण स्वीकार करने का प्रश्न है जैन दार्शनिकों का इससे सांव्यवहारिक स्तर पर कोई विशेष विरोध नहीं रहा है, क्योंकि अकलंक आदि ने तो इसे प्रमाणलक्षण के रूप में स्वीकार किया भी है। बौद्ध प्रमाणशास्त्र में धर्मकीर्ति का यह प्रमाणलक्षण ही सर्वाधिक मान्य रहा है। यहाँ ज्ञातव्य है कि धर्मकीर्ति ने अविसंवादिता का तात्पर्य, अर्थ और ज्ञान में सारूप्य या अभ्रान्तता न मानकर अर्थक्रियास्थिति को स्वीकार किया। प्रमाणवार्तिक (१/३) में वे स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि “अर्थक्रिया की स्थिति ही अविसंवादिता" है । पुनः अर्थक्रिया की स्थिति का भी अर्थप्रापण की योग्यता के रूप में प्रतिपादन किया गया है। बौद्ध परम्परा में धर्मकीर्ति के टीकाकार धर्मोत्तर ने इसकी विस्तृत विवेचना भी की है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि दिङ्नाग और धर्मकीर्ति ने अपने प्रमाण लक्षण की विवेचना में जैन दृष्टिकोण को न तो पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत किया है और न ही उसकी समीक्षा की है। जबकि जैन दार्शनिकों ने दिङ्नाग और धर्मकीर्ति दोनों की ही प्रमाण संबंधी अवधारणा को अपनी समीक्षा का विषय बनाया है। यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि धर्मकीर्ति के पूर्ववर्ती जैन दार्शनिकों में सिद्धसेन दिवाकर और मल्लवादी ने प्रमाणलक्षण की चर्चा में दिङ्नाग की मान्यताओं की समीक्षा की है । यद्यपि सिद्धसेन दिवाकर स्पष्ट नामोल्लेखपूर्वक दिङ्नाग के प्रमाणलक्षण की समीक्षा नहीं करते हैं। अपने प्रमाणलक्षण की चर्चा में उन्होंने उसे स्व और पर का आभासक तथा बाधविवर्जित ज्ञान कहा है (प्रमाणंस्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्, न्यायावतार १ )। : सिद्धसेन द्वारा प्रतिपादित इस प्रमाणलक्षण में नैयायिकों के समान ज्ञान के कारण (हेतुओं) को प्रमाण न कहकर ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है। ज्ञान को ही प्रमाण मानने के संबंध में जैन और बौद्ध दार्शनिकों में किसी प्रकार का वैमत्य नहीं है । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत किया है कि सिद्धसेन दिवाकर स्पष्ट रूप से तो अपने ग्रंथ में बौद्धों का नाम लेकर उनका खण्डन नहीं करते हैं, किन्तु प्रमाणलक्षण की उनकी यह परिभाषा एक ओर ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धविज्ञानवाद (योगाचार) का, दूसरी ओर बाह्यार्थवादी मीमांसकों और नैयायिकों की ऐकांतिक मान्यताओं का खण्डन कर उनमें समन्वय करती है। ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धविज्ञानवाद अर्थात् योगाचारदर्शन बाह्यार्थ की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, इसलिए उनके अनुसार प्रमाण (ज्ञान) स्वप्रकाशक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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