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फलस्वरूप संस्कृत भाषा में ग्रन्थ रचना भी करने लगे। आपकी वक्तृत्व शक्ति भी अपूर्व थी। उत्तरप्रान्त से बिहार करते हुए आपने गुजरान्त प्रान्त को अपना वासस्थान बाया। और उस प्रान्त के गाँवों में विहार कर लोगों को धर्म में स्थिर किया। जैन अजैन सभी आपके उपदेश से प्रभावित होते थे। अनेक राजाओं ने भी आपका सम्मान किया और उपदेश सुनकर प्रभावित हुए तथा अपने राज्य में अहिंसा का पालन करने का नियम लिया। खेद है कि २ जुलाई सन् १९४५ को आपका असमय में स्वर्गवास हो गया। इस युग में ऐसा साधु होना दुर्लभ है। टीका और टीकाकार
श्रावकधर्मप्रदीप नामक ग्रन्थ की संस्कृत और हिन्दी टीका जैन समाज के प्रसिद्ध धर्मात्मा विद्वान् पं०जगन्मोहनलालजी ने की है। पं०जगन्मोहनलालजी मध्यप्रान्त के निवासी और स्व०ब्रगोकुलप्रसादजी के सुपुत्र हैं। ब्रगोकुलप्रसादजी सच्चे त्यागी थे। उनके गुण उनके सुपुत्र में भी अवतरित हुए। विद्वान् होने के साथ ही आप द्वितीय प्रतिमा केधारी है और ३२ वर्ष से जैन शिक्षा संस्था, कटनी में प्रधानाध्यापकी का कार्य अत्यन्त सन्तोष और निरीहवृत्ति से कर रहे हैं।
जैसे ग्रन्थकार आचार्य श्रीकुन्थुसागरजी इस युग के आदर्श साधु थे वैसे ही टीकाकार पं०जगन्मोहनलालजी अपने समय के आदर्श विद्वान् हैं। उनकी दोनों टीकाओं ने ग्रन्थ के महत्त्व को चौगुना कर दिया है। इस युग के विद्वानों में ग्रन्थ रचना की पद्धति क्वचित् ही पाई जाती है, किन्तु संस्कृत में टीका रचना तो अपूर्व सी ही बात है। टीका बहुत ही सुबोध है और छात्रों के लिए उपयोगी है, इस तरह हिन्दी टीका भी बहुत ही उपयोगी है। उसमें स्वाध्याय करने वालों के लिये श्रावकाचार का विषय भरा हआ है। मूल ग्रन्थ में तो केवल मूल-मूल बातें हैं, किन्तु हिन्दी टीका में प्रत्येक विषय पर विस्तृत चर्चा है और इस तरह यह ग्रन्थ स्वाध्याय करनेवालों के लिये बहुत ही उपयोगी बन गया है। हम अपने मित्र को ऐसी सुन्दर टीकाएँ रचने के लिये बधाई देते हैं। वर्णी ग्रन्थमाला ने इसे प्रकाशित करके उचित ही किया है और इसके लिये वह धन्यवादाह है।
कैलाशचन्द्र शास्त्री
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