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दिगम्बर तथा श्वेताम्बर परम्परा में वस्त्र के लिये 'चेल' शब्द ही प्राचीन काल से प्रचलित है। रत्नकरण्ड में भी 'चेलोपसृष्टमुनिरिव' तथा 'चेलखण्डधरः' शब्दों के द्वारा उसी प्राचीन शब्द का प्रयोग किया गया है। बाद के श्रावकाचारों में इस शब्द के स्थान में 'कौपीन' 'संव्यान' आदि वस्त्र विशेषों का प्रयोग पाया जाता है, चेल या चेलखण्ड का नहीं। इसी तरह सामायिकशिक्षाव्रत और सामायिक प्रतिमा का स्वरूप भी प्राचीन परिपाटी को बतलाता है। पांच अणुव्रतों में चौथे अणुव्रत का नाम परदारनिवृत्ति और स्वदारसंतोष दिये हैं। ये दो नाम प्रकारान्तर से एक ही धर्म के सूचक हैं, किन्तु उत्तरकाल में परदारनिवृत्ति का अर्थ केवल परस्त्रीनिवृत्ति करके एक ही व्रत के दो टुकड़े कर दिये गये और उसमें से वेश्या सेवन की गुजाइश निकाल ली गई।
भगवत्कुन्दकुन्दाचार्य ने पाँच अणुव्रतों के सिवाय तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत बतलाये तथा दिक्परिमाण अनर्थदण्डत्याग और भोगोपभोगपरिमाण ये तीन गुणव्रत
और सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा तथा सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत गिनाये। तत्त्वार्थसूत्र में गुणव्रत और शिक्षाव्रत भेद न करके सात शील बतलाये, दिग्विरति देशविरति, अनर्थदण्डविरति, सामायिक, प्रोघधोपवास, भोगोपभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग। सल्लेखना को अलग से बतलाया।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में कुन्दकुन्दाचार्य की तरह ही गुणव्रत तीन और शिक्षाव्रत चार बतलाये। गुणव्रत के भेद दिग्वत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण भी कुन्दकुन्द की तरह ही किये। किन्तु शिक्षाव्रतों के भेदों में परिवर्तन कर दियादेशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य। तत्त्वार्थसूत्र की तरह सल्लेखना को अलग से बतलाया। इसी तरह व्रतों और शीलों के अतिचारों को बतलाते हुए परिग्रह परिमाण व्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत के अतिचार तत्त्वार्थसूत्र से बिल्कुल भिन्न ही बतलाये-जो तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित अतिचारों से अधिक बुद्धिग्राह्य है और ठीक बैठते हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की महत्ता के कारण उसमें प्रतिपादित अतिचार ही उत्तर काल में प्रचलित हुए।
स्वामी जिनसेनाचार्य के आदिपुराण से श्रावकाचार में कुछ नवीनता का सूत्रपात हुआ। उन्होंने पक्ष, चर्या और साधन के द्वारा श्रावक के तीन भेद किये-पाक्षिक, नैष्ठिक
और साधक। अपने से पूर्व के सभी श्रावक आचारों का संकलन करके सागारधर्मामृत को रचने वाले आचार्यकल्प पं. आशाधर जी ने आदिपुराण का अनुसरण करते हुए ही श्रावक के तीन भेदों को आधार बनाकर कथन किया। प्रस्तुत श्रावकाचार
प्रस्तुत श्रावकधर्मप्रदीप में भी स्वामी जिनसेनाचार्य की सरणि का अनुसरण करके आचार्य श्रीकुन्थुसागर जी ने श्रावकधर्म का वर्णन किया है। प्रथम अध्याय में १५ श्लोकों के द्वारा उन्होंने पाक्षिक श्रावक का स्वरूप और आचार बहुत सरल रीति
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