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प्रास्ताविक
आचरण की दृष्टि से जैनधर्म के दो रूप है, सागार अथवा गृहस्थधर्म और अनगार अथवा मुनिधर्म। किन्तु यथार्थ में जैनधर्म अनगारों का ही धर्म था। जैनधर्म का प्रधान लक्ष्य है मोक्षप्राप्ति और अनगारधर्म ही मोक्ष प्राप्ति का साक्षात् कारण है। अनगारधर्म धारण किये बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। इसी से पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में जो श्रावकधर्म का प्रतिपादन करने वाला ग्रन्थ है, आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने लिखा है कि जो उपदेष्टा यतिधर्म का उपदेश न देकर गृहस्थधर्म का उपदेश देता है, जैन प्रवचन में उसे निग्रहस्थान के योग्य कहा है।
इसका स्पष्ट निदर्शन हमें आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के ग्रन्थों में मिलता है। उनके षट्प्राभृतों में मुनि को लक्ष्य करके ही धर्म का प्रतिपादन किया गया है। श्रावकधर्म का निर्देशमात्र चारित्र प्राभृत में है। श्रावक के बारह व्रत और ग्यारह दर्जे (प्रतिमा) यही साधारणतया श्रावकधर्म का प्राचीन रूप है। तत्त्वार्थसूत्र और रत्नकरण्ड श्रावकाचार से बारह व्रतों के अतिचारों की परम्परा का आरम्भ होता है।
यद्यपि उत्तरकाल में निर्मित श्रावकाचारों में अतिचारों का वर्णन विशेषरूप से तत्त्वार्थसत्र का ऋणी है तथापि इसमें सन्देह नहीं है कि रत्नकरण्डश्रावकाचार उपलब्ध श्रावकाचारों में आद्य श्रावकाचार है और वह एक प्राचीन तथा स्वतंत्र परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है।
आचार्य समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में जो सन्तुलितपन, क्रमबद्धता तथा प्रौढ़ता है वही रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी पाई जाती है। उसका सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का वर्णन मौलिक है। सम्यग्दर्शन का चित्रण करते हुए उन्होंने गुरुमूढता के लिए पाषण्डिमोहन शब्द रखा है। यहाँ पाषण्डि शब्द साधु का वाचक है। पहले साधुसामान्य को पाषण्डि कहते थे। उत्तर काल में इसी का भ्रष्ट रूप पाखण्डी बनावटी साधुओं के अर्थ में व्यवहृत होने लगा। अशोक के शिलालेखों में पाषण्डी शब्द अपने मूल अर्थ में व्यवहृत हुआ है। अतः पाषण्डी शब्द का प्रयोग रत्नकरण्ड की प्राचीनता का सूचक है। इसी तरह प्रोषधोपवास के लक्षण में पर्वण्यष्टम्याञ्च में पर्व शब्द भी खास ध्यान देने योग्य है। टीकाकार प्रभाचन्द्र ने पर्व का अर्थ चतुर्दशी प्रचलित पद्धति के अनुसार कर दिया है। किन्तु 'पर्व' का प्राचीन अर्थ अमावस्या पूर्णिमा ही मिलता है।
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