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देव ! दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन मैं शरण ग्राया । बिना प्रभु-दर्शन तड़फती मीन ज्यों यह मेरी काया ||
शिखर धर वर मन्दिरों के द्वार भी जा खटखटाए । जड़ाकृति प्रतिमा प्रतिष्ठित स्वर्णमय शिर छत्र छाए । सुबह-शाम "हंगाम से होती निहारी ग्रारती मैं । विविध वाद्य, विनोद, गायन गा रहे सुर-भारती में ।
बाह्य आडम्बरों में भगवन् ! न तुमको देख पाया । देव ! दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन मै शरण ग्राया ||१||
लय- मातृ मन्दिर मे
स्वच्छ सुरभित सलिल से जिनराज ! तुमको जन नहलाते । मिष्ट नव-नव भोज्य भगवन् ! बिन बुभुक्षा जन खिलाते । कलित कोमल कुसुम कलिका भेंट नव नेवज
चढ़ाते ।
सुरभि, धूप, सुरूप सुन्दरता
चरच
चन्दन
बढ़ाते |
[ श्रद्धेय के प्रति