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अयि जय भिक्षो दैपेय । तेरापन्थ पथाधिप, जैन जगत अाधेय ।।
एकानन लख, कानन हंसासन वृपभासन तव
पंचानन लाजै । उपमा साझे ॥१॥
नर वको मरुधर रो कवि कलना चीह्नी । कंटालिय पुर अवतर चरितारथ कीह्नी ॥२॥ विरस विषय रस त्यागी त्यागी चित्र न एह । दुनिया सतपथ लागी अद्भुत हम हृदयेह ॥३॥ नही केवल मनपर्यव अवधि स्यादन्ते। तदपि अलौकिक अनुपम पन्थ लियो भन्ते ॥४॥ अलग-अलग शिव जगमग सुन कोई चित्त चिडके । चित्र न चग मृदंगे महिषि सदा भिड़के ॥५॥
महावीर शासन में दक्षिण इण भरते। तव कृपया कलियुग में सतयुग सो वरते ॥६॥
है तव अटल आण में तीरथ च्यार खरे। छापुर चारुवास विच 'तुलसी' तुम सुमरे ॥७॥
लय-आरती
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[श्रद्धेय के प्रति