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आचार्यश्री तुलसी धवल समारोह के अभिनदन मे
श्रद्धेय के प्रति
रचयिता
आचार्यश्री तुलसी
सम्पादक
मुनि श्री सागरमलजी . मुनि श्री महेन्द्रकुमारजो
यात्माराम एण्ड संस दिल्ली जयपुर जालन्धर. मेरठ
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SIIRADDHIYA KE PRAT!
Acharya Shri Tuki
Rs. 2.25 श्रीनलाम्बर तेराची महासभा, बलात्ता के नौजन्य से प्राप्त
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सम्पादकीय
जैन धर्म में देव, गुरु और धर्म की त्रिपदी वह मदाकिनी है जिसके श्लाघा जल मे स्नात व्यक्ति अवश्य ही पाच मुक्त होता है । देव वे पुण्य श्रात्माए हैं जो भव-परम्परा के मार्ग और हैप के ट्रेल दुख से ऊपर उठ चुकी हैं, जिनका श्रज्ञांन रूप परम मिट चुका है। वे वर्तणुगत, जिन और तीर्थवर हैं । अपने परिपूर्ण जस्त के वे विश्वव्यापी है । भूत, वर्तमान और अनागत उनके लिए हस्तगरे नमक की तरह स्पष्ट हैं । के प्रत्ये श्रवसर्पण और उत्मर्पण के कालाध से चौबीस बोद्दीन होते हैं। वर्तमान संवसर्पण मे आदि देव ऋषभदेव थे और चौबा देव भगवान् श्री महावीर
गुरु की गरिमा भगवान् श्री महावीर के शब्दो मे है- अग्निहोत्री विप्र जिम प्रकार नाना प्राहुतियो और मन्त्र-पदो से अग्नि की पूजा करता है, इसी प्रकार अनन्त ज्ञानी शिष्य को भी गुरु के प्रति श्रद्धाशील रहना चाहिए। वे गुरु श्रहिंमा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचय और अपरिग्रह इन पाच महाव्रतो का पालन करते हैं । ग्रात्म-नल्याण और जन-कल्याण उनके जीवन का सहज ध्येय होता है । वे भी अहित की तरह ही उपास्य और श्रद्धेय होते हैं । जैन धर्म मे ही नही, श्रय धर्मों में भी गुरु का स्थान ईश्वरोपम माना गया है । निर्गुण मार्गी श्री वीर कहते हैं
'सव धरती कागद करू, लेखनि सव वनराय । सात समुद की ममि करू, गुरु-गुन लिखा न जाय ॥' गुरुकृपा के सम्वन्ध मे वे कहते हैं
'पगुल मेरु सुमेरु उलधे, त्रिभुवन मुक्ता डोले । गूगा ज्ञान विज्ञान प्रकार्स, अनहद वाणी वोले ॥'
धर्मं श्रात्म शुद्धि वा अनन्य साधन है । श्रवीतराग को वाणी मे दोषसभवता है, अत वह वीतराग को वाणी रूप है। धर्म का मूर्त श्रावार धर्म गम है, माधु मघ है, इसलिए वह भी श्लाघ्य और श्रद्धेय है ।
प्रस्तुत 'श्रद्धेय ये प्रति' पुस्तक में प्राचार्य श्री तुलसी से देव, गुरु व धर्म बीघा में की गई रचनाए हैं। उनको उल्लेखनीय विशेषता यह है कि ये मुम्यत महावीर जयनी, चरम महोत्सव, मर्यादा महोत्सव मादि विशेष प्रवर्गो
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पर रची गई है । सामान्य रसवती और पर्व-सम्बद्ध रसवती में महान् अन्तर रहता ही है । इसी प्रकार विशेप पर्वो के सम्बन्ध में रची गई गीतिकाएं विगेप होती ही है । देव प्रकरण में आचार्य श्री के श्रद्धेय भगवान् ऋपभदेव, भगवान् शातिनाथ, भगवान् श्री महावीर आदि तीर्थकर है।
गुरु प्रकरण में उनके श्रद्धेय तेरापन्थ-प्रवर्तक प्राचार्य श्री भिक्षु है । वे एक निस्पम महापुरप थे । सयम और साधन वा पुनरुज्जीवन उनका मन था। कूड़े-कचरे की अनेक तहों मे दबी साधना का महाय मणि को निकाल लेना कोई सहज बात नहीं थी। उन्होने अपने प्रारको कता, पर संयम को वृद्धिगंत होने दिया । उन्होने स्वय मान और अपमान को समबुद्धि से नहा, पर सत्य का सम्मान वढाया । वे स्वयं कंटकाकुल मार्ग पर चले, पर धर्म को निष्कटक मार्ग पर ले आए। ऐसे महापुस्प के प्रति अर्पित श्रद्धाजलिया और वे भी आचार्य श्री तुलसी द्वारा, जिनकी अभिधा ही जिनका परिपूर्ण परिचय है, किसके मानस को श्रद्धा और विराग के अजल आनन्द में प्रोत-प्रोत नहीं कर देती । और इस प्रकरण में उनके श्रद्धेय है-श्रीमज्जयाचार्य, श्रीमद डालगणी व उनके अपने दीक्षा-गुरु श्रीकालूगणी।
त्रिपदी का तीसरा तत्त्व धर्म है। उसका अाधार धर्म संघ है। बौद्ध लोग कहते है-'सघ सरण गच्छामि' मै सब की गरण जाता हूँ । सचमुच ही तेरापन्थ जैसा संघ व्यक्ति का त्राण बनता है । जहां व्यक्ति समुदाय मे ऐसा मिल जाता है, जैसे वर्षा की बूद समुद्र मे । व्यक्ति और समुदाय की यह अभिन्नता ही पारमार्थिक अानन्द की सृष्टि करती है । संघ का ध्येय है-- ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की अभिवृद्धि । उसका आधार है-सह जीवन के योग्य व्यवस्था । व्यवस्था साधना मे साधक भी वनती है, बाधक भी । जो वाधक बनती है, वह या तो अव्यवस्था है या असद् व्यवस्था । व्यवस्था मे व्यक्ति का चैतन्य कुण्टित नही बनता । अव्यवस्था या असद् व्यवस्था के दुष्परिणाम तत्काल अपने आपको प्रकट करते है । एक वार गौतम बुद्ध अपते विशाल भिक्षु समुदाय के साथ आराम में रात्रि-विश्राम कर रहे थे। आधी रात के लगभग सारिपुत्त के खांसने की आवाज उनके कानों में पड़ी और अचानक उनकी नीद टूटी । उन्होने अन्य भिक्षुओ से पूछा-हम सव इस प्रासाद के भव्य कक्षो मे सो रहे है और सारिपुत्त बाहर खांस रहा है। क्या वह वहीं किसी वृक्ष की छाया मे सोया है ? भिक्षुओ ने कहा-भगवन् ! उन्हें यहा स्थान नहीं मिला, इसलिए उन्हें तरुवासी होकर ही आज की रात काटनी पड़ रही है । गौतम बुद्ध ने कहा-ऐसा क्यो हुआ ? छोटे-बड़े सभी भिक्षुग्रो को स्थान मिला और मेरे धर्म सेनापति सारिपुत्त को स्थान नही मिला ? भिक्षु
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भगवन् । आराम मे पहुँचते ही सब भिक्षु शय्या रोकने की अहमहमिका मे लगते हैं। पड्वर्गीय भिक्षु इम दौड में सबसे आगे रहते हैं । यही कारण है कि महाप्रज्ञ सरिपुत्त को शय्या नहीं मिली और वृक्ष-मूल पर ही सारी रान काटनी पड रही है ।
गौतम बुद्ध को इस अव्यवस्था और ग्रसद् व्यवस्था पर भारी दुख हुया । उन्होने सोचा, शीघ्र ही मुझे इस विषय मे एक सर्वमान्य व्यवस्था कर देनी चाहिए । प्रात काल सब भिक्षुत्रों को एकत्रित कर रात को घटना कह सुनाई और सनसे पूछा - भिक्षुयो । अपनी-अपनी समझ से बताओ कि भिक्षु सघ मे श्राहार, पानी, शय्या और आदर पहले किसे मिलना चाहिए श्रर्थान् इन विषयो मे श्रमिक सविभाग कैसे हो ? क्षत्रिय भिक्षुग्रो ने कहा- इन विपयो मे पहला स्थान क्षत्रिय भिक्षुओ का होना चाहिए, क्योंकि वे राजकुल से आये हैं, वे राजमहलो के भोगोपभोग में रहे हैं । ब्राह्मण भिक्षुम्रो न कहा— प्रथम स्थान ब्राह्मण भिक्षुत्रो का होना चाहिए। वे समाज मे भी गुरु स्थानीय रहे हैं । अन्याय भिक्षुओं ने और भी अनेको विकल्प बुद्ध को सुझाये, पर उन्हें एक भी विकल्प पसन्द नही आया । अत मे उन्होंने स्वयं कहाश्राज से में व्यवस्था करता हूँ, उक्त सविभाग दीक्षा श्रम से चलाये जायें । त्याग, सयम और चारित्र मे जो ज्येष्ठ हैं, वे ही वस्तुत श्रादरास्पद हैं। उस दिन से यही व्यवस्था भिक्षु संघ में प्रवृत्त हो गई । तेरापन्य सदा से ही व्यवस्था के उप पर रहा है, प्राक्तन प्राचार्यों ने सघ सम्बन्धित काय-कलापो के लिए समुचित व्यवस्थाए दी और उनका विकास आज भी सतत प्रवाही है । प्राचार्यवर ने कुछ एव गीतिकाओ मे तेरापथ का समग्र सविधान ही उपस्थित कर दिया है। एक गीतिका विशेष में वे कहते हैं
Waldpa
सकल साधु ग्ररु साघवी वही एक सुगुरु से आण हो । चेला चेली आप ग्रापरा कोई मत करो, करो पचखाण हो ॥
गुरु भाई चेला भणी कोइ सूपं गुरु निज भार हो । जीवन भर मुनि साहुणो कोइ मत लोपो तसु कार हो ॥
श्रावं जिणने मुडनै कोइ मति रे वधाम्रो भेस पूरी कर कर पारसा कोइ दीक्षा
दिज्यो देव
देस
हो ।
हो ।
वोल श्रद्धा श्राचार से कोइ नवो निकलियो जाण हो । मत चरचो जिण तिण कने करो गणपति वचन प्रमाण हो ।
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जो हिरदे वैसे नहीं तोइ मति करो खींचाताण हो। केवलियां पर छोड्यो आ है अरिहन्ता री आण हो। उतरती गणी गण तणी कोइ मति करो, मति मुणो सैण हो। संजम पालो सांतरो कोइ पल-पल छिन-छिन रैन हो। अपचन्दा गण स्यूटल कोइ एक, दो, तीन अवनीत हो। साधु त्यांने सरधो मति कोइ मत करो परिचय-प्रीत हो । इत्यादिक नियमे भरयो कोई लेख लिख्यो गुमराज हो। संवत् अठारै गुणसठै कोइ माह सुदि सप्तमी साज हो ।। मर्यादा के महत्व पर कितनी आस्था व्यक्त की गई हैगुरुवर हमको मर्यादा का आधार चाहिए,
उच्च प्राचार चाहिए, सत्य साकार चाहिए, विमल व्यवहार चाहिए,
सदा सुविचार चाहिए। मर्यादा हो जीवन है, मर्यादा जोवन धन है। गण-वन में इसका ही प्राकार चाहिए । मर्यादा चाहे छोटी, जीवन की सही कसौटी। संयम को संयम का व्यापार चाहिए । छूटे तो तन यह छुटे, शासन सम्वन्ध न टूटे। सब में ऐसे ऊंडे सस्कार चाहिए । xxx मर्यादामय जीवन सारो, मर्यादा , रो मान ।
आत्म-नियन्त्रण अरु अनुशासन है शासण री शान ।। आचार्य भिक्षु के प्रति कितनी सजीव शृद्धांजलि अर्पित की गई है
दीपां के लाल दुलारे! . स्वीकार करो श्रद्धांजलियां रे !
जिनमत -- गगन - सितारे ! अहो ! अखिल सघ-अंखियों के तारे !
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भक्तो के हृदय निवासी,
भक्तिमय कुसुम की राशि, यह लो, लाखो जन के मन के रखवारे ।
फिर क्या उपहार सजाए ?
फिर क्या प्रभु चरण चढाए ? इससे बढ, वस्तु कौन-सी पास हमारे ।
तुमने जो राह दिखाई,
घट-घट मे ज्योति जगाई, छाइ है, यत्र-तत्र रो-रो मे सारे ।
प्रतिपल तुम पद-चिह्नो पर,
चलते व चलेगे जी भर, इससे बढकर क्या स्मारक प्रभो। तुम्हारे ।
प्राणी-प्राणो दिल-प्रागण,
रोपें श्रद्धाकुर क्षण-क्षण, जीवन के कण-कण में यह प्रण है प्यारे ।
हममे हो अतुल मनोवल,
कायरता क्षय हो बल-जल, अविरल ऐसी करुणा का स्रोत बहा रे ।
श्रुति मे, स्मृति मे, सस्कृति मे,
रमते रहो तुम कृति-कृति मे, गूजे कोटि-कोटि 'तुलसी' जय-नारे । देव प्रकरण में आचायवर गाते हैं
लो जन जगत के तौर्यकर मेरा प्रणाम लो। दो वीतरागता का वर, वन्दन निष्काम लो। तुम तीर्थ नही तीर्थकर, क्या गुण गरिमा गाए।
भव-सिन्धु-भवर मे भटके, (इन) भक्तो को थाम लो ।। स्वाध्याय प्रेमी वन्धुपी के लिए तो इस ग्रथ की निरुपम उपयोगिता है ही, पर मर्यादा महोत्सव आदि पर्व सम्बद्ध गीतिकारो का व्यवस्थित सकलन
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होने के कारण इसकी ऐतिहासिक उपयोगिता भी बन गई है । प्रत्येक गीति में तात्कालिक वातावरण का आभास मिलता है और प्राचार्यवर की दृढ आत्मशक्ति का भी।
जो हमारा हो विरोध,
हम उसे समझे विनोद, सत्य सत्य शोध में तव ही सफलता पायेंगे। ये पद्य जयपुर चतुर्मास के भयंकरतम दीक्षा-विरोध की ओर सकेत करते है । इसी प्रकार विभिन्न गीतिकाओं में संघ के अन्तरंग व बहिरंग विभिन्न वातावरणो का सकेत मिलता है । संवत्, तिथि, गांव व साधु-संख्या आदि का भी ऐतिहासिक व्यौरा गीतिकाओं में सुरक्षित है । पिछले युगों मे सकलन-प्रथा विकसित नहीं थी, इसीलिए बहुत सारे ऐतिहासिक तथ्य आज विलुप्त हो गए है । वर्तमान युग ने विखरी चीजों को बटोरकर रखने का दृष्टिकोण दिया है। प्रस्तुत ग्रन्थ भी समय-समय पर रची गई रचनायो का संकलन है और पाने वाले युगों में इसका ऐतिहासिक महत्त्व उभरता रहेगा, यह निस्सदेह है ।
मुनि महेन्द्रकुमार 'प्रथम
१६ जुलाई, १९६१ वृद्धिचन्द जैन स्मृति भवन न्यावाजार, दिल्ली
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अनुक्रम
देव
१ नमो अग्हिताण २ हे दयालो देव । ती शरण हम मब पा रहे ३ लो जैन जगन के तीकर मेरा प्रणाम लो ४ देव । दो दशन तुम्हाग ५ महावीर प्रभु के चणा में ६. वीर प्रभु के चरण-कमल मे वदन शत-शत वार करें ७ लो ध्यान धम्
१ है मद्गुर एक सहाग २ हमारे ऐसे मद्गुरु की मदा शिर छत्र छाया हो ३ जागृति जैन की जग में, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ४ अहा । अभिनव उच्छव छाए, तेगप यान में " बोलो जय भिक्षु, प्राय रहताने वाले ६ हिन-मिल सघ चतुष्टय उत्सव आज मनाएग ७ तू मन मन्दिर में प्राजा . दीपा लात दुलारे ६ दिन मे शामन मे ग्मे, गुर या हमे बरदान है १० वीर वे अनुगामी भिक्ष स्वामी में गुण गायेंगे १. १ प्राण दवते । तेरी ज्योज्यो म्मृनि हो रही १० प्रभु यह तेराय मुप्याग १३ मगन है पाज ते मामन मे मार-मान १४ देय तुम्हार धीमा में श्रद्धा का उपहार करें १। प्रो । श्वन गरी मन सैनिए । प्रपना पन बनाना है १६ बग्ने सपा या पल्याण १७ सोमगिदा, माम-विजयादा वरदान १८ यरल हो, अभिनदन हा, ये तन मन चरण चढाए हम
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१६, गुरुदेव ! तुम्हारे चरणों मे ये शीश स्वयं झुक जाते हैं
२०. मिला ग्रमित प्रानन्द श्रात्मवल
२१. हम वह आदर्श दिखाएं
२२. कोटि-कोटि कण्ठों से गाएं जिनके गीत सुरम्य रे -२३. गुरुवर ! तुम्हारे जीवन से दिव्य ज्योति पाएं २४. श्री भिक्षु का जीवन दर्शन
२५. देव ! चढाएं श्रीचरणों में क्या ऐसा उपहार हो
२६. गुरुवर मर्यादा का आधार चाहिए
२७ गुरुवर ! कण-कण मे नव चिन्तन भर दो ! भर दो ! भर दो !
२८ मन सुमर-सुमर नित भिक्षु नाम
२६ मंगल ग्राज मनाए गाए जय-जय मंगल गान
३०. तेरापथ के सप्तम गणपति डालिम दिवस मनाएगे
धर्म
१. शान्ति निकेतन सत्य धर्म की जय हो जय
२. अमर रहेगा धर्म हमारा
३. जय जैनधर्म की ज्योति, जगमगती ही रहे
४. धर्म मे रम जाना
५. धर्म पर डट जाना
-६. जय-जय धर्म संघ अविचल हो
राजस्थानी विभाग
देव
९. प्रह सम परम पुरुष नै समरूं
२. ॐ जय-जय त्रिभुवन अभिनन्दन
३. श्री महावीर चरण में सादर श्रद्धा-सुमन सभाऊं मैं
गुरु
१. श्री भिक्षु स्वामी द्योनी मोहि भक्ति तुम्हारी
२. अयि जय भिक्षो दैपेय
३ मैं समरुं गुरु भिक्खन नाम
४. राग-द्वेष क्लेश रा कारण तारण तरण बतायाजी
५. भिक्षु भवि तारे तारे तारे, दीपां मात दुलारे ६. चरमोत्सव आज मनाओ
४६
५०
५३
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५.६
५७
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६७
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७४
७६
Sisir
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३ ૨૪
६५
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१०५. १०७
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७ भीखणजी स्वामी भारी मर्यादा वाधी सघ में ८ सावरा ही सावरा, स्वामीजी स्वामीजी ६ स्वामीजी रो भासन म्हाने घणो सुहावजी १० स्वामी भिखणजी ११ ॐ जय बालू गुरुदेव १२ भजिए निशदिन कालू गणिन्द १३ अहो । प्रभु कालू गणेश्वर आपरो नाम महागुणकार हो १४. रटो भवि स्वाम नाम नित मन में १५ छोगा सुत कालू हो गणिवर जग प्रतिपालू हो १६ शासन सेहरो, म्हारै मन मन्दिर वसियो १७ मात छोगा उर उपना कालू कलि अवतार, हो गुरुजी १८ मूल तनय की महिमा भारी स्वर्भूर्भुव प्रसारी १६ भाद्रवी छठ दिन भोर, सुणत शोर खग साथ रो
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१२०
7
.
M
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देव
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नमो अरिहन्ताण श्रद्धा, विनय समेत, नमो अरिहन्ताण । प्राजल, प्रणत सचेत नमो अरिहन्ताण ॥ आध्यात्मिक पथ के अधिनेता।
प्रम विश्व-विजेता।
शरच्चन्द्र सम श्वेत,
नमो अरिहन्ताण ॥१॥ अक्षय, अरुज, अनन्त, अचल जो। अटल, अस्प, स्वरप अमल जो।
अजरामर अहत,
न मो मिद्धाण ॥२॥ धर्म-मघ के जो नवाहक । निमल धर्म-नीति निर्वाहा ।
शासन में समवेत,
नमो पायरियाण ॥३॥ प्रागम अध्यापन में अधिकृत । विमल कमल मम जीवन अविरत ।
सम, मयम समुपेत,
नमो उपग्मायाण ॥4॥ प्रात्म-मापना तीन अनवरत । विपय-यामनायो मे परत ।
'नुलनी है अनिकेत,
नमो (नोए) नन्ब चाहण ॥५॥ मर-ममी नमो
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२:
हे दयालो देव ! तेरी शरण हम सब आ रहे । शुद्ध मन से एक तेरा, ध्यान हम सब ध्या रहे ।। मोह, मद, ममता के त्यागी, वीतरागी तुम प्रभो ! हम भी उस पथ के पथिक हों, भावना यही भा रहे ।।१।।
सद्गुरु में हो हमारी भक्ति सच्चे भाव से। धर्म रग-रग में रमे हरदम यही हम चाह रहे ।।२।। दिल से पापों के प्रति प्रतिपल हमारी हो घृणा । प्रेम हो सत्संग से यह लालसा दिल ला रहे ॥३॥
दूसरों की देख बढ़ती हो न ईर्ष्या लेश भी। सर्वदा ग्राहक गुणों के हों हृदय से गा रहे ॥४॥ त्यागमय जीवन विताएं, शान्तिमय बर्ताव हो। भाव हो समभाव तेरा पंथ, 'तुलसी' पा रहे ॥५॥
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लय-हे प्रभु आनन्ददाता
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देव ]
३
लो जैन जगत के तीर्थङ्कर मेरा प्रणाम लो । दो वीतरागता का वर, वन्दन निष्काम लो ॥
तुम तीर्थ नही तीर्थकर, क्या गुण गरिमा गाए । भव- सिन्धु-भवर मे भटके, (इन) भक्तो को थाम लो ॥ १ ॥
तुम सकल चराचर द्रष्टा, अविकल विज्ञान हो । तुम ग्रमित शक्ति, दृढ दर्शन, अविचल विश्राम लो ॥२॥
तुम तीन भुवन के नायी, ( पर) उत्तरदायी नहीं । सुस दुस जय निज कर्माश्रित, तुम ज्योतिर्धाम लो || ३ ||
तुम श्रात्म-विजेता नेता, 'तुलसी' के त्राण हो । तुम सत्य शिव सुन्दर, स्तवना आठू याम लो ॥४॥
तय-प्रभु पाश्वदेव के चरणो मे
[x
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६]
: ४ :
देव ! दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन मैं शरण ग्राया । बिना प्रभु-दर्शन तड़फती मीन ज्यों यह मेरी काया ||
शिखर धर वर मन्दिरों के द्वार भी जा खटखटाए । जड़ाकृति प्रतिमा प्रतिष्ठित स्वर्णमय शिर छत्र छाए । सुबह-शाम "हंगाम से होती निहारी ग्रारती मैं । विविध वाद्य, विनोद, गायन गा रहे सुर-भारती में ।
बाह्य आडम्बरों में भगवन् ! न तुमको देख पाया । देव ! दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन मै शरण ग्राया ||१||
लय- मातृ मन्दिर मे
स्वच्छ सुरभित सलिल से जिनराज ! तुमको जन नहलाते । मिष्ट नव-नव भोज्य भगवन् ! बिन बुभुक्षा जन खिलाते । कलित कोमल कुसुम कलिका भेंट नव नेवज
चढ़ाते ।
सुरभि, धूप, सुरूप सुन्दरता
चरच
चन्दन
बढ़ाते |
[ श्रद्धेय के प्रति
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वीतराग विडम्बना सी देस दिल मे दर्द छाया। देव । दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन में शरण आया ॥२॥
समारोहो से सुसज्जित आपकी होती सवारी। धी धी धपमप घि धि की धिक्कट वज रहेातोद्य भारी। सृजत रथ यात्रादि मिप हिमा, अहिंसा के पुजारी। जव निहारु नयन से हो हृदय मे दुविधा दुधारी।
कहा वह विज्ञानमय विभुवर? कहा वह छद्म छाया? देव । दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन में शरण पाया ।।३।।
चेतनामय देव को पापाणमय कैसे बनाऊ ? जो बने पापाण के कैसे उन्हे जिन-रूप गाऊ ? सर्वतन्न स्वतन्त्र जो, कैसे दिवासे मे विठाऊ? जो बने बन्दी, उन्हे कैसे विनय से सर भुकाऊ?
अमल अज अविकार साक्षात्कार करने मन उम्हाया। देव । दो दर्गन तुम्हारा भान्ति जिन मैं शरण पाया ॥८॥
रेव]
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८]
ग्राज
चारों ओर घोर शान्ति जन-जन को सताती । रो रहा मानव हृदय यों सिकुड़ती जाती है छाती । इस विषाक्त वृत्तान्त में तू ही सहारा एक शान्ति । घ्या रहे सव दूर हो झट
ध्यान तेरा क्लेश - कान्ति ।
अमर ग्राशा को लिए 'तुलसी' चरण में शिर झुकाया । देव ! दो दर्शन तुम्हारा शान्ति जिन मैं शरण आया ॥ ५॥
[ श्रद्धेय के प्रति
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देश ]
५
महावीर प्रभु के चरणो मे श्रद्धा के कुसुम चटाए हम । उनके आदर्शो को अपना जीवन की ज्योति जगाए हम ॥
तप नयममय शुभ साधन से, प्राराध्य-चरण श्राराधन से, वन मुक्त विकारों से महमा, अव ग्रात्म-विजय कर पाए हम ||१||
दृढ निष्ठा नियम निभाने मे, हो प्राण-प्रति प्रण पाने मे, मजबूत मनोवन हो ऐसा,
वायरता कभी न लाए हम ||२||
या-लोलुपता, पद-लोलुपता,
प्राणी
न मताए कभी विकार-व्यथा, निधाम स्व-पर त्याण काम,
जीवन अर्पण कर पाए हम ||३|| गुरुदेव रण में लीन है, निर्भीक धम की बाट बहे,
अविचल दिन सत्य, श्रहिमान,
दुनिया को सुपथ दिलाए हम ||४|| मंत्री म नियम प्रभिमान तजे, पनीरी सार बा
,
'मी' तेरा पथ पाए हम ॥५॥
[e
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वीर प्रभु के चरण कमल में वन्दन शत-शत वार करे । तन से, मन से और वचन से अभिनन्दन कर भार हरें।
इन्द्रभूति से अनमि नमाये अपने आध्यात्मिक बल से । गिरते कितने गैर बचाये हत्यारों की हलचल से। उपकृत हम चिर ऋणी आपके समय-समय उपकार स्मरे ॥१॥ अनेकान्त आदर्श दिखाया वौद्धिक जगत जगाने को। उत्पीडित वा शोषित मानवता का मान बढाने को। तत्त्व अहिंसा दिया कि उससे दोनों का उद्धार करें ॥२॥ मूक, निरीह, सहस्रों प्राणी यज्ञों के आवेदों में। होमे जाते कितने बच्चे, मानव उन नरमेधों में । उन पर क्या ? उन हिस्र मनुष्यों के ऊपर आभार धरें॥३॥ संघ-संगठन की वह मौलिक, प्रवल शक्ति जो तुमने दी। उसे अनेकों उत्तरवर्ती प्राचार्यों ने अपना ली। 'तुलसी' उसके सबल सहारे तेरापन्थ-प्रचार करें ॥४॥
लय-बाजरे की रोटी पोई
१०]
[श्रद्धेय के प्रति
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लो ध्यान धरू, अभिधान स्मरू, प्रभु महावीर मैं तेरा। सब भार हरू,
उपहार करू,
यह मन मन्दिर प्रभु मेरा ।। त्रिशला के राजदुलारे, सिद्धारथ कुल उजियारे, त्रिभुवन के नयन सितारे,
चरम जिनराज, भवाब्धि जहाज, समस्त समाज, स्मरण से मिटा रहा अन्धेरा ॥१॥
तिथि तेरस जन्म तुम्हारा, सित पक्ष चंद्र का प्यारा, भारत को मिला सहारा,
महोछव मान, मिले मुर, रान, कि तीन जहान, निविडतम मे भी दिव्य उजेरा ॥२॥
सय गुण चग भग या लोटा
रेव]
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सब जग को माया त्यागी, आन्तरिक प्रेरणा जागी, एकाकी वीर विराग, तपोवन-वास, अटल उपवास, सजग प्रति श्वास,
खास जव कर्म कटक ने घेरा ॥३॥
जो बही उपद्रव धारा, सुर नर तिर्यञ्चों द्वारा, हिम्मत को कभी न हारा, कष्ट मरणान्त, सहे चित्त शान्त, न दिल विभ्रान्त, त्रिवेणी संयुत मोह बिखेरा ॥४॥
वनकर प्रभु केवलनाणी, बरसाई अमृत वाणी, आध्यात्मिक सुख-सहनाणी, विश्व उत्थान, प्रयत्न महान्, महा अभियान, महाव्रत, अणुव्रत सुखद सबेरा ॥५॥
गोतम से गणधर भारी, सती चन्दनवाला तारी, है सब तेरे आभारी, अमित उपकार, किया जगतार, अहिंसा द्वार, जगत, शिव-पथ का किया निवेरा ॥६॥
[श्रद्धेय के प्रति
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देप]
यह वीर प्रभु का शासन, है अटल धर्म का ग्रासन, प्राणाधिक प्रिय अनुशासन, गुण-गण अनन्त,
जय हे भदन्त '
जय
तेरापथ, सदा 'तुलसी'
'तुलसी' ग्रानन्द- वसेरा ॥७॥
[१३
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गुरु
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गुरु ]
हे सद्गुरु एक सहारा । है सुगुरु सूर्य के विना घोर अधियारा । है सद्गुरु एक सहारा । यह निराधार संसार, नयन विस्फार, देखते हारा ॥
अज्ञान भरा हे घट-घट मे, दुनिया प्रान्तर तम के पट मे, दिनकर भी कर न सकेगा जहा उजारा ॥१॥
तममावृत जन दिग्मूढ हुए, अपने को आप ही भूल गए, प्रतिकूल वह रही जव जीवन की धारा ॥२॥
घर-घर मे घुसे लुटेरे है, दुर्व्यसन जमाये डेरे ह, सर्वस्व लूट साते व कौन रुखारा ॥३॥
धनवान दुखी, वनहीन दुखी,
नही राज- प्रजा में एक सुखी, सबको अब सुख की राह दिखाने वारा ॥४॥
प्यासे को पानी, भूखे को भोजन, श्रावश्यक ज्यो देखो,
नौका मे नियामक ज्यो जग उजियारा ॥५॥
पापी महिपाल प्रदेशी से,
यदि मिले न सद्गुरु केशी से,
क्या सम्भव 'तुलसी' ऐसे हो निस्तारा ॥६॥
सय--है तेरा यौन सहारा
[ १७
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२ :
हमारे ऐसे सद्गुरु की सदा शिर छत्र छाया हो । सदा शिर छत्र छाया हो, शीघ्र पवित्र काया हो ||
धर्म रथ के वृषभ धोरी, सजोरी त्यागमय मूर्ति । तपोवल भाल पर जिन के, तजी सब जग की माया हो ॥१॥
अहिसा के पुजारी जो, झूठ को पीठ जीवन भर । स्वजीवन तुल्य पर - जीवन, वाक्य दिल में बसाया हो ॥२॥
अदत्तादान के त्यागी, विरागी भोग- भामिनी के । वदन में ब्रह्म की दीप्ति, चमकता सूर्य ग्राया हो ||३||
न जिनके धाम मठ मन्दिर, न अस्थल स्थल में अपनापन । समझ धन धूल सम, जीवन सुभिक्षा से निभाया हो ॥४॥
प्रपंचों से परे, पंचेन्द्रियां मन अपनी मुट्ठी में । शान्त रस सरस नस-नस में, रोव निज पर जमाया हो ||५||
तरे भवसिन्धु से प्राणी, शीघ्र परमार्थ पथ पाकर । मधुर उपदेश ही जिनका, कि ज्यों अमृत पिलाया हो ॥ ६ ॥
पतित पंखी, प्रहारी से, बने गुरु-शरण से पावन । स्वपर कल्याण ही 'तुलसी' लक्ष्य अपना वनाया हो ॥७॥
लय-गजल
१८]
[ श्रद्धेय के प्रति
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जागृति जैन की जग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु । सुतेरापन्थ पग-पग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ।। तुम्हारे नाम की आभा अलौकिक विश्व मे छाई। उमडता हर्प रग-रग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥१॥ अनेको कप्ट जो सहकर जगाई जैन की ज्योति । रोशनी प्रकट जगमग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥२॥ रची मर्याद की सरणी खची ज्यो तार चीवर मे । चरम मीमा सूक्ष्म दृग् मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥३॥ अठारह उनमठे मे जो लिया था लेख हाथो से । विलोके आज के छक में, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥४॥ थपना की जो थावर दिन पुण्य परिणाम हम देखें। महोत्सव माघ के मग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥५॥ व्यवस्थित संघ है सारा तुम्हारी पूज्य करुणा से। आज के घोर कलियुग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ।।६।। भारमल, राय, जय, मघवा,सुमाणिक, डाल गणि कालू। उदित ज्यो सूर्य हो नभ मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ॥७॥ सहन दो एक मे 'तुलसी', महोत्सव माघ की महिमा । चतुग्गट भाग्य मोभग मे, जयो भिक्षु जयो भिक्षु ।।८।। श्रमण है एक शत पिचपन, यमणिया तीन युत चउगत। भक्ति ग्म + मे प्रगमे, जयो भिक्षु जयो भि ।
पि० स० २००१, मर्यादा-महोत्मय, गुजानगढ़ (राज.) पप-~-गुने पामगरले जगन तो __ग]
[१९
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: ४ :
अहा ! अभिनव उच्छव छाए, तेरापन्थन में । मन उमड़ उमड़ घन आए, मण्डप मैदान मे ॥
२०]
जैन जगत की अनुपम ख्याति, मद्गुरु मुक्ताफल मे ख्याति, साकार उतर कर सरसाए भिक्खन अभिधान में ॥ १ ॥
वाह माता दीपां की कुच्छी, मानो कल्पलता की गुच्छी, यदि तुलना हम कर पाएं, प्राची दिशि भान में ॥२॥
अब लों वह मरुधरा कहाए, क्यों न आज हम क्रान्ति उठाएं,
वसुगर्भा कह बतलाएं, जन सकल जहान में ॥३॥ वीर वीरता विश्व - विभूति, मूर्तिमती मानो मजबूतो, सतयुग की लहरें लाएं, कलियुग मध्याह्न में ॥४॥ आध्यात्मिक पथ एक पथिकता,
प्रतिभा पुंरंज विवेक अधिकता,
जिनवर की याद दिलाए, शिव-सुख सन्धान में || ५ ||
-
ग्रन्थ-गठन, संगठन संघ में,
दूरदर्शी नव-नव प्रसंग में,
कर स्मरण शीश झुक जाए, सहसा सम्मान में ॥६॥
दृढ प्रतिज्ञ दिल निमल नगीना, प्रबल पराक्रमशाली सीना,
यश झल्लरी झण-हणणाए, सुरनर इक तान में ॥७॥
लय - माहे रमजान मे
[ श्रद्धेय के प्रति
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हैं अनुकरण उन्ही का करना,
हो कटिवद्ध कहो क्या डरना, कायरता नही सुहाए, उनको मन्तान मे ॥८॥
भाद्रव तेरस है स्मृति माधन,
वदन-वदन मे भिक्वन-भिक्ग्वन, 'तुलसी' पल सफल बनाए, गुरु के गुण-गान मे ।।९।।
रामायण दो हजार तीन की मवत नृपगढ मे पावस सत्सग। मुनि गुणतीम मती अट्ठावन तन-मन गुरु मेवा का रग ।। एक वीस छव गत युत सारे भिक्खन गण नन्दनवन मे। सघ चतुष्टय प्रमुदित 'तुलमी' अटल एक अनुशासन मे ।।
वि० सं० २००३, चरम महोत्सव, राजगढ (राज.)
गुद]]
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वोलो जय भिक्षु, आर्य कहलाने वाले !
वोलो जय भिक्षु. शिवपुर जाने वाले ! तेरापंथ पंथ के नेता, जैन-संस्कृति के निर्णता, विमल आत्मबल विश्व विजेता, धर्म-धुरा रखवाले ॥१॥
सन्त, अनन्त मनोवल भिक्षु, धर्माचार्य, आर्य-वर भिक्षु, अमित अथाह कार्य-कर भिक्षु,
दुनिया के उजियाले ॥२॥ मर्यादा पुरुषोत्तम भिक्षु, संघ-संगठन कारक भिक्षु, नव नव आविष्कारक भिक्षु, निरुपम चरित निराले ॥३॥
अपनी मां के एक ही भिक्षु, अपनी राह के एक ही भिक्षु, सत्य सलाह के एक ही भिक्षु,
वीर वृत्ति में आले ॥४॥ स्वच्छ साधुता-पोषक भिक्ष, दंभ शिथिलता-शोषक भिक्षु, दुर्गुण के परिमोषक भिक्षु,
क्रान्ति जगाने वाले ॥५॥
लय-तोता उड़ जाना
२२]]
[श्रद्धेय के प्रति
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वाह्याभ्यन्तर मे इक भिक्षु, कहनी करणी मे इक भिक्षु, सकट या दु ख मे इक भिक्षु,
क्या क्या गौरव वाले ॥८॥ मडप गूज उठा दश-दिक्षु, करें प्रतीक्षा कीति-विवक्षु, 'तुलसी' रोम-रोम मे भिक्षु,
प्रतिपल सुमरन वाले ॥७॥
वि० स० २००३, मर्यादा-महोत्सव, चुरु (राज.)
[२३
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हिल-मिल संघ चतुष्टय उत्सव आज मनाएंगे। मर्यादा दिन की स्मृति में सब मंगल गान सुनाएंगे । भिक्षु-जन्म से ही वह मरुधर मरुधर धरा कहाई है। भिक्षु-प्रसव से वीर प्रसू दीपां कहलाई है। (उस)वीर पुरुष को वीर कहानी मुख मुख पर सरसाएंगे ॥१॥ जैनधर्म की ज्योति जगाने कितने कष्ट उठाए है। शिथिलाचार मिटाने कितने हेतु लगाए है। (उस) वीर पुरुष की एक-एक कृतियां स्मृति-पथ पर लाएंगे ॥२॥ अति विशृखल साधु सघ में एक शृखला आई है। पृथक्-पृथक् स्वछन्द-वृत्ति जड़ से छुड़वाई है । (उस) वीर पुरुष का एक लेख दृग्गोचर करवाएंगे ॥३॥ जैनागम की भव्य भित्ति पर मन्दिर सवल सजाया है। तेरापंथ अभिधान विश्व विख्यात बनाया है। (उस) मंजुल मन्दिर की सुषमा अवलोकन लोग लुभाएंगे।।४।। भातृभाव के विमल भाव जो मुनि सतियों में आए है। एक सुगुरु मे भक्ति भाव केन्द्रित बन पाए है। (उस) योगीराज की दूरदर्शिता सुमर-सुमर सुख पाएंगे ।।५।। खपे अनेक छेक खा खेवट एक एकता मरने को। पर न प्राप्त अल्पांश सफलता श्रान्ति विसरने को। उस सफल मनोरथ महामना की महिमा अव महकाएंगे ॥६॥
लय-आदिनाथ आदीश्वर भिक्षु जग मे २४]
, [श्रद्धेय के प्रति
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न्यायाधीग, नियामक नीति-निपुण निर्मला निरुपम प्यारा। निरतिचार नि शल्य निरामय वह जग से न्यारा । 'तुलसी' उसकी गुण गाया गाकर मण्डप गुजाएगे ।।७।।
चौपई भारीमल्ल, ऋपिवर, जय स्वामी, मघ, माणिक, डालिम गुरु नामी। कालू अष्टम पट अधिराजा, सुगुरु प्रसाद सदा सुख ताजा ॥
दोहा तेरस शुक्ला भाद्रवी, भिक्षु चरम कल्याण । मिले सघ नव रग मे, मण्डप मे मण्डाण ।। वाह्याभ्यन्तर श्वेत हे, सती सन्त समुदाय । नव-नव श्रावक श्राविका, अनुरत मन, वच, काय ।। मती चार सौ सात है, मुनि शत-तयालीस । लोक हजारो प्रगति पर, शासन विश्वावीम ।। दो हजार युत चार मे, वीदासर सुखकार । माघ महोत्सव मे सुखद, तुलमी जय-जयकार ।।
वि० स० २००४, मर्यादा-महोत्सव, बीदासर (राज.)
[२५
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:७:
तू मन मन्दिर में प्राजा, तेरापथ के अधिराजा, ओ ! भिक्षु ! भिक्षु-गणराजा, वह सांवरी सूरत दिखाजा, स्मृतिपट पर चित्र खिचा जा। तू मन मन्दिर में आजा ॥
दीपां मां के लाल दुलारे, वल्लूशाह के कुल उजियारे, मरुधर रत्न चमकते तारे, सारे महिमा महका जा। तू मन मन्दिर में प्राजा॥
त्याग-वृत्ति जो तुमने धारी, भर यौवन जग सम्पत्ति छारी, विषम समस्या हल कर डारी, सारी वह बात बता जा। तू मन मन्दिर में आजा ।।
सत्याग्रह की सबल प्रणाली, चित्र ! कहां से ढूंढ निकाली, उत्पथ तज निज प्रात्म-उजाली, फिर से वह ज्योति जगा जा। तू मन मन्दिर में आजा ।।
लय-मेरा रंग दे तिरंगी चोला
२६]
[श्रद्धेय के प्रति
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असहयोग आन्दोलन छेडा, शिथिलाचार समूल उखेडा, पुण्य-पाप का किया निवेडा, वह मधुरी तान सुना जा। तू मन मन्दिर मे आजा ।।
भगवन् महावीर की भाति, की थी सवल अहिंसक क्रान्ति, दूर हुई दुनिया की भ्रान्ति, वह शान्ति-स्रोत वहा जा।
तू मन मन्दिर मे आजा ।। अपनाई असली आजादी, पराधीनता व्याधि मिठादी, जिससे कभी न हो वरवादी, वह सादी रीत सिखाजा। तू मन मन्दिर मे आजा ।।
सघ-सगठन की जो शक्ति , आध्यात्मिक अनुभव अभिव्यक्ति, धर्म, कर्म की विमल विभक्ति, फिर इस युग मे दिखला जा।
तू मन मन्दिर मे ग्राजा ॥ ऐक्य ऐक्य सब जन चिल्लाते, भरसक प्रवल प्रयास उठाते पर पग-पग असफलता पाते, अव उन्हे सफल बनवा जा। तू मन मन्दिर में प्राजा ॥
सहनशील मक्ट सहने मे, वहनशील मयम वहने में, निर्भय सही बात कहने मे, वह विभुता फिर विकसाजा। तु मन मन्दिर में प्राजा ।।
[२७
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निज निर्मित उपवन की ग्राभा, कैसी खिली विश्व में वाह वाह, क्यों नही निजर निहारे बावा, इक पल हित पलक विछाजा । तू मन मन्दिर में
ग्राजा ||
२८ ]
करें ग्राज शत-शत ग्रभिनन्दन, कोटि कोटि तेरा अभिवन्दन, संघ संघपति ' वदना नन्दन', सव का दिल कमल खिला जा । तू मन मन्दिर में ग्राजा ||
वि० सं० २००४, चरमहोत्सव, रतनगढ़ (राज० )
[ श्रद्धेय के प्रति
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गुर]
दीपा के लाल दुलारे | स्वीकार करो श्रद्धाजलिया रे । गगन सितारे |
जिनमत हो । अखिल सघ - प्रखियो के तारे ।
-
-
भक्तो के हृदय निवासी, भक्तिमय कुसुम की राशि,
यह लो, लाखो जन के मन के रखवारे ॥ १ ॥
फिर क्या उपहार सजाए ? फिर क्या प्रभु चरण चटाए इससे वढ, वस्तु कौन-सी पास हमारे ॥२॥
?
तुमने जो राह दिखाई, घट-घट मे ज्योति जगाई,
छाई है, यत्र तत्र रो-रो मे सारे ॥३॥
प्रतिपल तुम पद चिह्नों पर, चलते व चलेंगे जी भर,
इसमें वटकर क्या स्मारक प्रभो । तुम्हारे ||४|
प्राणी- प्राणी दिल - प्रागण,
रोपें
श्रद्धापुर क्षण-क्षण,
जीवन के कण-कण में यह प्रण है प्यारे ||५||
तन- --वाला जवानिया मार्ग
[RE
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३०]
हम में हो अतुल मनोबल, कायरता क्षय हो बल जल, अविरल ऐसी करुणा का स्रोत वहा रे ॥ ६॥
श्रुति में, स्मृति में, संस्कृति में, रमते रहो तुम कृति कृति में, गूजे जग कोटि-कोटि 'तुलसी' जय नारे ||७||
वि० सं० २००५, चरम महोत्सव, छापर ( राज० )
[ श्रद्धेय के प्रति
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दिल से शासन मे रमे, गुरु का हमे वरदान है । श्रात्म-सयम मे रमे, गुरु का हमे फरमान है ।
डोर सारे सघ की हो एक गुरु के हाथ मे, व्यक्ति व्यक्ति फिर मिले ज्यो दूध-पानी साथ मे, त्यागमय जीवन बने, वस इसमे सवकी शान है || १||
ໄປ
कार्य जो शासन व्यवस्था के जरा प्रतिकूल हो, मत करो, मत प्रेरणा दो, मत ना ऐसी भूल हो, भावना हो सघ का में, सघ मेरा प्राण है ||२||
रात दिन अपने से अपना हो निरीक्षण लाजमी, आज कुछ मैंने किया ऐसी हो दिल मे दिल जमी, नियत दिनचर्या वने इसमे सदा उत्थान है ||३||
स्वय को या सघ को, ससार को घोसा न दो, करके कहनी मी ही करनी, वेग से आगे वढो, व्यक्ति, जाति, सघ का इसमे सदा कल्याण है ||४||
मत वनो पद की प्रतिष्ठा, नाम के भूखे कभी, पर वनो लाघव से लायक, पद प्रतिष्ठा के सभी, काम पीछे नाम, केवल नाम से नुक्सान है ||५||
तन मे जैसे प्राण, वैसे सघपति की शासना, रोज रग-रग मे रमे, फूलो मे जैसे वासना, हो सफल पल-पल सदा, जीवन का यह अभिमान है ||६||
गुरु ]
लय
-
-रग लाती है हिना पत्थर पर घिस जाने के बाद
[ ३१
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घोर इस कलियुग में, हम सतयुग की लहरें लाएंगे, भाव हो जन-जन के मन में, प्रण सफलता पायंगे, पूज्य भिक्षु प्रसाद 'तुलसी' हृदय का अरमान है ||७||
३२]
वि० सं० २००५, मर्यादा- महोत्सव, राजलदेशर ( राज० )
[ श्रद्धेय के प्रति
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वीर के अनुगामी भिक्षु म्वामी के गुण गायेगे। तेरापथ-पथ की दुनिया मे पाव वटायेगे। जैनधर्म धर्म की दुनिया मे आव वढायेंगे। वटते-बटते जायेंगे, नही पीछे हट आयेंगे।
जीवन सफल बनायेगे।
हे प्रभो । यह तेरापथ,
मानव-मानव का यह पथ, जो बने इसके पथिक, सच्चे पथिक कहलायेगे।
आगे कदम वढायेंगे ॥१॥ जो पडे इसके प्रतिकूल,
कर रहे बचपन-सी भूल, उनको भी अनुकूल पथ मे, प्राण प्रण से लायेंगे।
भ्रातृ भाव दिखलायेंगे ॥२॥
दान दया का जो मिद्धान्त,
दुनिया है जिसमे उद्भ्रान्त, गीघ्र हो सब शान्त, ऐसा गान्तरस बरमायेंगे।
कान्ति भी फैलायेंगे ॥३॥
जो हमारा हो विरोध,
हम उसे समझे विनोद, सत्यन्मत्य शोध मे, तब ही मफनता पायेंगे ।
कप्टो में नहीं घबरायेंगे ।।
सप-जिदगी है मौज में
[३३
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दूध पानी
सत्य का बल है अटूट, झूठ आखिर झूठ-झूठ,
का
निवेड़, सत्य से दिखलायेगे | साहस सदा बढ़ायेगे ||५|| ।।५।।
दीपां के इकलौते लाल, क्या वरणे तेरा खुशहाल,
वाह-वाह काम कमाल, मानव देख शिर
अपना हृदय
तेरे जीवन का आकूत, बतलाता यह संघ सबूत,
३४ |
दुषम-सुषमा या सतयुग की, रचना हम बतलायेंगे । ज्यों की त्यों रख पायेगे ||७||
डोलायेंगे । फुलायेगे || ६ ||
करें याचना हम सब एक, अटल आत्मबल हो अतिरेक,
1
'सत्यं शिवं, सुन्दरम् का हम साक्षात्कार करायेंगे | जीवन ज्योति जगायेंगे || ८ ||
अभिनन्दन हो बारम्बार, अभिनन्दन हो बार हजार,
'तुलसी' तन मन रों- रों में गुरुवर को सदा बसायेंगे । नहीं पल भर बिसरायेंगे ||८||
वि० संवत् २००६ चरम महोत्सव, जयपुर (राज० )
[ श्रद्धेय के प्रति
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है प्राण देवते । तेरी ज्यो-ज्यो स्मृति हो रही। मेरी रसना रस प्यासी वाचाल वन रही ।। तू ने निजात्म-शोधन जिस युक्ति से किया। जन-जन की मार्ग दर्शक अब युक्ति है वही ।।१।। फिर सघ-सगठन का फूका जो मन्त्र सा। परिणाम रूप नूतन ज्योर्तिमय है मही ।।२।। शासन-विहीन गण मे अनुशासना भरी। डगमगती जन-नया की तू ने पतवार ग्रही ॥३॥ आडम्वरो से आवृत्त धर्मों की दुर्दशा। देखी दया चेता जो जाती ना कही ॥४॥ निश्छदम प्रो' निराला पय वीर का लिया। सुख शान्ति की तभी से स्रोतस्विनी वही ॥१॥
ईर्ष्या कलह के युग मे एकत्व जो रहा । हृदयेश कोटि चन्दन श्रद्धाजलि यही ।।६।। अानन्द मग्न 'तुलसी सह सघ सामने । जयपुर मे तेरापथ को देखी छटा मही ।।७।।
वि० स० २००६ मर्यादा महोत्सव, जयपुर (राज.)
लय-प्रभु पावंदेर चरणो मे
[३५
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________________
: १२:
प्रभु यह तेरापंथ सुप्यारा । बना रहे आदर्श हमारा ॥
सत्य अहिसामय जीवन हो, सत्य अहिंसामय जन-जन हो, विश्व-व्यापी हो सत्य अहिसा मुख-मुख मुखरित हो यह नारा । बना रहे आदर्श हमारा ॥१॥
EE
दान वहीं जहां पुष्ट अहिंसा, दया वही जहां नही हो हिंसा, दान दया का आडम्बर रच मत हो शोषण भ्रष्टाचारा ।
बना रहे आदर्श हमारा ॥२॥ संयम पोषण धर्म पिछाने, त्याग तपोबल को अपनाने, भोगों को कायरता माने यही बने जीवन की धारा। बना रहे आदर्श हमारा ॥३॥
वीतराग को देव बनाएं, जिन हो हरि, हर संज्ञा चाहे, आखिर अपना हित अपने से होगा समुचित साधन द्वारा।
बना रहे आदर्श हमारा ॥४॥ लय-अमर रहेगा धर्म हमारा
-
-
[श्रद्धेय के प्रतिः
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सद्गुरु के अधिनायक पन में, सच्ची श्रद्धा हो तन मन मे, सकल सघ हो एक गठन मे छा जाए जग एक उजारा। बना रहे आदर्श हमारा ॥५॥
नही विरोधो मे घबराये, पद-यश-लिप्सा नहीं सताये, हम अपना कर्तव्य निभायें सच्चावट का एक सहारा। बना रहे आदर्श हमारा ॥६॥
हम शिवपुर के सच्चे राही, क्यो कोई आयेगी खाई, भिक्षु भावना का दृढता से 'तुलसी' होगा अमर पुजारा। बना रहे आदर्श हमारा ॥७॥
वि० स० २००६ चरम महोत्सव, हासी (पजाब)
गुरु]
[३७
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मंगल है आज ! तेरे शासन में मंगल-मंगल । शासन के ताज ! तेरे शासन में मंगल-मंगल । भिक्षु गणी राज ! तेरे शासन में मंगल-मंगल ॥
साधु सतियों में मंगल,
श्रावक समुदय में मंगल, मंगल परिवार ! तेरे शासन में मंगल-मंगल ॥१॥
मंगल तेरी मर्यादा,
नर हो चाहे कोई मादा, सब पर इकसार, तेरे शासन मे मंगल-मंगल ॥२॥
मंगलमय तेरी नीति,
संयम से ही हो प्रीति, उज्ज्वल आचार, तेरे शासन में मंगल-मंगल ॥३॥
ना कोई खींचा तानी,
चलती है नही मनमानी, इक गुरु की कार, तेरे शासन में मंगल-मंगल ॥४॥
सवकी है एक शैली,
ना कोई के चेला चेली, सुन्दर व्यवहार, तेरे शासन में मंगल-मंगल ॥५॥
लय-कैसी फुलवारी फूली
३८]
[श्रद्धेय के प्रति
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गुरु ]
अद्भुत है सघ- सगठन, परस्पर प्रेम सघन धन,
आगम-आधार, तेरे शासन मे मंगल - मंगल || ६ ||
जव तक नभ मे शशि भानु, 'तुलसी' तब तक मैं मानू, गण है गुलजार, तेरे शासन मे मंगल- मगल ||७||
वि० स० २००७ मर्यादा महोत्सव, भिवानी ( पंजाब )
| Te
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: १४ :
देव तुम्हारे श्रीचरणों में श्रद्धा का उपहार करं । भक्त हृदय के सादर सौ-सौ साधुवाद स्वीकार करें ।।
कष्टों की परवाह भला क्या ? जब अपने को अभय किया । औरों को क्यों हो पीड़ा ? जब हमने सबको अभय दिया । संयम, समता और अभयता है यह मूल अहिंसा का । तुमने बतलाया इससे, होता उन्मूलन हिंसा का । इसी तत्त्व को हृदयगम कर, निज पर के सब पाप हरें ॥१॥
धर्म ग्रहिसा - संयम-तप-मय, सव जग का आधार यही । अभयदान से बढ़कर कोई देने में दातार नहीं । व्यसन पीड़ितों को यदि हम, व्यसनों की धुन से बचा सकें । बुरे पाप है, यही बात पापीष्टों को यदि जचा सकें । तेरे जीवन-मंथन से निष्कर्ष मिला, क्यों कर विसरे ॥२॥
भौतिकता के इस युग में अध्यात्मवाद का स्वाद मिला । है कृतज्ञ हम सभी तुम्हारे, सचमुच ही सौभाग्य खिला । पग-पग पर पाखण्ड पड़ा, प्रतिपद प्रवाह है पापों का । हा ! हा ! हिसा का हर घर-घर, आक्रन्दन अभिशापों का । प्राप्त अमर वरदान तुम्हारा, भवसागर का स्रोत तरें ||३|
चाहें हम हर समय समन्वय पथ के हामी हो रहना । अपने सच्चे दृष्टिकोण को अविकल अटल रूप कहना । सदा मनोवल वढ़े हमारा सदाचार पनपाने में | रात्रि-दिन हो लगन हमारी तरने और तराने में इसी अटल विश्वास सहारे अजरामर पद सपदि वरें ||४||
लय- - रामायण
४० ]
[ श्रद्धेय के प्रति
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सत्य-धर्म का झण्डा जन-जन के मन मन्दिर लहराए। धर्म नाम से शोपण, अत्याचार कभी ना हो पाए। ऐसा करे प्रसार व्यवस्थित और सगठित रूप लिए। जीए न जीने को, पर हम सब अटल साधना लिए जियें। देहली चतुर्मास चरमोत्सव, 'तुलसी' अभिनव भाव भरें ॥५॥
वि० स० २००८ चरम महोत्सव, दिल्ली
गुरु]
[४१
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: १५ :
ओ ! श्वेत संघ के सवल सैनिकों ! अपना फर्ज वजाना है । मिट जाए जनता की जड़ता, सक्रिय कदम उठाना है ।।
कैसी है दयनीय दशा मानव, मानवता छोड़ रहा, चलता है वीहड़ - पथ में पशुता से नाता जोड़ रहा, बोझिल है जन-जन का जीवन स्वार्थो का साम्राज्य खिला, दुराचार के गहन गर्त में मानो गिरने जगत चला, पुनः चेतना देकर उसको फिर सन्मार्ग दिखाना है ||१|| लगी अखरने अर्थ-विषमता, पूंजी श्रम का प्रश्न खड़ा, सवका अग्रदूत वन श्राया वादों का व्यामोह बड़ा, राष्ट्र- राष्ट्र को खड़ा निगलने अविश्वास है जन-जन में, कथनी-करनी में न समन्वय लगे धनार्जन की धुन में, समता, क्षमता, अनासक्ति का उनको पाठ पढ़ाना है ॥२॥
सन्तों की वह प्रोज भरी वाणी कुर्बानी साथ लिए, निखर पड़ेगी जन-जन के अन्तस्थल को ग्राह्वान किए, एक जगेगी अभिनव ज्योति उसी प्रेरणा के वल पर, बढ़ता ही जाएगा मानव उन्नत पथ पर जीवन भर, कोई नही रोकने पाए ऐसा स्रोत वहाना है ॥३॥ मर्यादोत्सव के अवसर पर दृढ़प्रतिज्ञ ! सीना ताने, 'तुलसी' मानवता को रखते जन-जीवन को पहचाने, क्यों होगा एहसान किसी पर होगा वही कार्य अपना, जिसको सफल बनाने का देखा था भिक्षु ने सपना, फिर से वही दिशा दर्शन दे अभिनव क्रान्ति जगाना है ॥४॥
वि० सं० २००८ मर्यादा महोत्सव, सरदारशहर ( राज० ).
लय - ओ ! चलने वाले रुकने का
४२]
-
[ श्रद्धेय के प्रति
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करने जीवन का कल्याण, मिला यह तेरापथ महान । हमारे भाग्य बडे वलवान, मिला यह तेरापन्थ महान ।
भिक्षु ने ढूंढ निकाला, कैसा अमृतमय प्याला, याला धार्मिक जग की शान, मिला यह तेरापन्थ महान ।।१।।
जो व्यापक बनने पाया, है वर्गातीत कहाया, पाया अपना ऊचा स्थान, मिला यह तेरापन्य महान ।।२।।
विद्या विकास है जारी, भावुक मुनि सतिया सारी, पर, चारित्र ही यत्र महान, मिला यह तेरापन्थ महान ||३||
मौलिकता रहे सुरक्षित, परिवर्तन सदा अपेक्षित, लक्षित निज पर का उत्थान, मिला यह तेरापन्थ महान ||४||
लय-बना मन मदिर मालिशान
गुरु]
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गुरु अाजा जहां बड़ी है, वन पहरेदार खड़ी है, विन आजा हिले न पान, मिला यह तेरापन्थ महान ॥५॥
भिक्षु की अमर कृति यह, भिक्षु की दिव्य धृति यह, सारा भिक्षु का सुविधान, मिला यह तेरापन्थ महान ॥६॥
जिसका इसमें एकीपन, उसका ही है यह शासन, उसका, इससे है सन्मान, मिला यह तेरापन्थ महान ।।७।।
लो जन-जन का अभिनन्दन, गण सदा रहे वन नन्दन, ‘वदना-नन्दन' का आह्वान, मिला यह तेरापन्थ महान ॥८॥
भिक्षु का स्मृति दिन आया, मिल संघ अभंग मनाया, खिला सरदारशहर सुस्थान, मिला यह तेरापन्थ महान ।।६।।
वि० सं० २००६ चरम महोत्सव, सरदारशहर (राज.)
४४]
[श्रद्धेय के प्रति
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लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान, जय हे | जय त्रिभुवन के बाता, जैन जगत की शान ।। मानवता के अटल पुजारी, महाव्रती शिरमोर, दीन बन्धु समता के सागर, कोमल कहे कठोर, सद्गुण पुञ्ज, निकुञ्ज शान्ति के, आस्था के प्रास्थान । लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान ॥१॥ हिंसा से प्रातकित युग था, दर-दर शिथिलाचार, धर्म नाम पर घर-घर चलते धोखे के व्यापार, विद्रोही बन तुमने फू का एक नया तूफान । लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान ।।२।। उडी धज्जिया अनाचार की, खुली पाप की पोल, सत्य धर्म की विजय ध्वजा, फर्राई वजते टोल, चमका चारो ओर वीर का शासन वन अम्लान । लो लाखो अभिनन्दन, प्रात्म-विजय का दो वरदान ॥३॥ वही धर्म है विश्वधर्म, जो विश्व वन्धुता धार, अर्थाश्रित नहीं होता, मत्य-अहिंसामय साकार, गूज रहा है प्रोज भरा यह तेरा मगलगान । लो लाखो अभिनन्दन, प्रात्म-विजय का दो वरदान ॥८॥ जातिवाद से अर्थवाद से व्यर्यवाद मे दूर, बलात्कारिता चाटुकारिता नही उमे मजूर, धर्म हृदय-परिवर्तन है, फिर क्या निर्धन धनवान् । लो लामो अभिनन्दन, श्रात्म-विजय का दो वरदान ॥५॥
सप-भारत में दो लार
गुरु]
[४५
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४६]
मिला समुन्नत संघ संगठन यह श्रद्धा, ज्ञान, चरित्र त्रिवेणी वहै गौरवशाली सदा सुखी है, हम तेरी सन्तान । लो लाखों अभिनन्दन, ग्रात्म-विजय का दो वरदान || ६ ||
उज्ज्वल आचार, विमल जलधार,
वि० सं० २०१० चरम महोत्सव, जोधपुर (राज० )
[श्रद्धेय के प्रति
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वन्दन हो, अभिनन्दन हो, ये तन-मन चरण चढाए हम । दीपा नन्दन आज तुम्हारी, स्मृति मे श्रुति सरसाए हम ।। 'जाए सद्धाए निक्खत्तो” इमी पक्ष को लक्ष्य बना। वज्र हृदय बन चले अकेले, इसीलिए तुम महामना । कभी न की परवाह राह पर, प्रतिपल पलक विछाए हम ॥१॥
'पडिम पडिवज्जिया मसाणे प्रथम श्मशान स्थान पाया। अन्वेरी ओरी पा, मन नहीं भय-भैरव से धवराया। बने पथिक से पन्याधिप, तेरापन्य कथा सुनाए हम ।।२।। 'अन्त समे मनिज्ज छप्पिकाए', इस पथ को अपनाया। दया-दान सिद्धान्त शान्तचित्त, सही रूप से समझाया। आवश्यकता तृप्ति धर्म है, आग्रह क्यो कर पाए हम ।।३।। 'पुटवी समो मुणी हवेज्जा,' वीर वाक्य को अपना कर । उग्न विरोघ विनोद समझकर, सहे परीपह भीषणतर । फलत सत्य अहिंसा को अव, विजय-ध्वजा फहराए हम ॥४॥ 'तवसा धुणई पुराण पावग' सफल बना इस शिक्षा को। घोर तपस्या आतापन सह वाह वाह ! तीव्र तितिक्षा को। मानी फिर' स्थिर पाल' 'फतह' की, वाणी क्यो विसराए हम ||५|| 'मज्झायम्मि रयोसया, जीवन में खूब उतार लिया । मरम सुगम अडतीस सहल पद्यो का मुन्दर सृजन किया। दृट अनुगासन, विमल व्यवस्था, की क्या वात वताए हम ।।६।।
____
-~प्रनुभव विनय मदा सुख मनुभव
मुष्]
[४७
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'सच्चं भयवं' यह वाणी थी साध्य तुम्हारे जीवन का। इसीलिए तो केन्द्र बने तुम जन-जन के आलोचन का। 'तुलसी' चरम महोत्सव वम्बई, सिक्कानगर मनाएं हम ॥७॥
वि० सं० २०११ चरम महोत्सव, बम्बई
४८]
[श्रद्धेय के प्रति
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१६
गुरुदेव । तुम्हारे चरणो मे ये शीश स्वय भुक जाते है । तव वाडमय अमृत करणो मे ये हृदय हिलोरे खाते है ||
→
क्या वर्णन हो उपकारो का, जो जीवन जटिल समस्या है । उसका भी सुन्दर समाधान पाया, हम प्रकट दिसाते है || १॥
कैसी यो विशद विराट भावना जन-जन के उद्धरने की । भयभीतो के भय हरने की, हम सुमर सुमर सुख पाते हैं || २ ||
वह व्याख्या विरल अहिंसा की, हिंसा की झलक जरा न जहा । जो विश्व मैत्री का विमल रूप, जन-जन जिसको अपनाते है || ३॥
खुद जागो और जगाओ जग को, यही दया है दान यही । इसमे सबका उत्थान मान, जन-जन मे जागृति लाते हे ||४||
संगठन का कैसा जादू, किया तुमने सावरिये साधु झगडो की जडे जला डाली, हम सव वलिहारी जाते हे ||५|
नही शिथिलाचार पनप पाया, सयम की रही छत्र छाया । श्री वीर पिता के वीर पुत्र । तेरापथ हम सरसाते है || ६ ||
वह अटल रहे मर्यादा तेरी, लोह लेखिनी से जो लिखी । समवेत चतुष्टय श्वेत-सघ माघोत्सव आज मनाते है ||७||
वि० सं० २०११, मर्यादा महोत्सव, बम्बई
लय- घुतश्याम तुम्हारे द्वारे पर
गुरु ]
[re
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:२०:
मिला अमित आनन्द प्रात्मबल, जन-जन का दिल कमल खिला। जीवन को पालोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ।।
टूट गया धीरज का धागा कव तक शिथिलाचार सहें। मूढजनोचित मन्तव्यों पर कैसे संयम भार वहें ।।
क्रान्तिकारी इस चिन्तन में वस जैनों को जैनत्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ॥१॥
प्रभो ! तुम्हारे पथ पर हमने लो अपना बलिदान किया। तेरापंथ हमारा प्यारा सब पंथों को छान लिया ।
तेरापंथ नाम में ही तो तव मम का एकत्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ।।२।।
लय-आज हिमालय की चोटी से
५०]
[श्रद्धेय के प्रति
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मत मारो मे अधिकृत स्प अहिंसा का अभ्यर्थन है। और बचाओ की व्याप्ति हिमा का गुप्त ममर्थन है ।।
ऐसे सूक्ष्मेक्षण मे कैसा आध्यात्मिक अपनत्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ॥३॥
दया पात्र हैं वे वेचारे क्या उन पर हम रोप करें। अपना पाप छुपाने करते परनिन्दा जो जोश भरे ।।
सहे विरोव विनोद समझ यह वीरो का वीरत्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ॥४॥
शिष्य-प्रथा की वह विडम्बना 'पद-लोलुपता पार हुई । धन से धर्म नही होता यह वृत्ति सफल साकार हुई ।।
कटे कप्ट धर्मस्थानो के जिन शासन का सत्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ॥॥
वाचिका, कायिक और मानसिक सयम प्रात्म-शुद्धि पथ है। यही धर्म है, मोक्ष मर्म है कठिन कर्म है, वितय है ।।
[५१
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वार भिक्षु की विमल घोपणा से यह मधुर ममत्व मिला। जीवन को पालोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला॥६
उच्चाचार उचित अनुशासन सवल संगठन सार भरा। लो लाखों श्रद्धाञ्जलियां सद्गुरु हम सवका भार हरा ।।
'तुलसी' यह चरमोत्सव का मालव को बड़ा महत्त्व मिला। जीवन को आलोकित करने वाला अभिनव तत्त्व मिला ॥७॥
वि० सं० २०१२, चरम महोत्सव, उज्जैन (मध्यप्रदेश),
५२]
[श्रद्धेय के प्रति
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२१
हम वह आदर्ग दिखाए। शामन की मुपमा दुनिया के कोने-कोने फैलाए ।
सचमुच हम कितने सौभागी (जो) सदा त्रिवेणी से न्हाए । मानव-जीवन, जैनधर्म और भैक्षव गामन पाए ॥१॥
एक-एक गण की मर्यादा जीवन प्राण बनाए । 'देह त्यजेन्न धर्म सामन' दृट मकल्प मझाए ||२||
सीमित मवेदन हो सवका, ग्राम्या को अपनाए। इधर-उधर नही टोले तिल भर, 'पटवोजी' बन जाए ॥३॥
सीचातान करे क्यो कोई, (जो) तत्व समझ में नाए। क्यो ऊडे जल पेठे, गणपति निज कर्नव्य निभाए ॥४॥
ममझ भेद को ममझौते मे मिल जुल कर मुलझाए। बिछुडे दिल को हो यदि सम्भव अपने माथ मिलाए ||५|| अनुगामन का भग अगर हो ममुचित पदम उठाए। आमिर नाक भाल मे नीचे रह कर गोभा पाए ।।६।।
एकानार, रिचार शृगला, जुग-जुग जुड़ी रहाए । 'तुलनो' यह मर्याद-महोत्सर गण-वन को विषमाए ॥७॥
वि० स० २०१२, मर्यादा महोसव, भीलवाहा (राज.) द-भाग पौनाने में व
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कोटि कोटि कण्ठों से क्या जाने भिक्षु की
: २२:
गाएं जिनके गीत सुरम्य रे । महिमा कैसी अलख अगम्य रे ॥
है ममकार बन्ध का कारण, यह ग्राध्यात्मिक शैली | स्वामीजी के जीवन के कण-कण में देखी फैली | है तेरापंथ भदन्त, कहा यों प्रभु पादाव्ज प्रणम्य रे ॥१॥
जिनके श्रम से हमें मिला यह शासन सुखद बगीचा | नन्दन - वन की सुषमा लें सब, ऊंचा कौन है नीचा । जीवन की सफल सुरक्षा है, जहां अननुमेय अनुपम्य रे ॥२॥
तार्किक युग में भी श्रद्धा का स्थान सदा है ऊचा । केवल तर्कवाद से पीड़ित है संसार समूचा । हो तार्किक श्रद्धालु गण में एकान्ताग्रह अक्षम्य रे ||३||
मर्यादा निर्माण कला में देखा तरुण तरीका | एकतन्त्र में प्रजातन्त्र का सबक कहां से सीखा ? सब शिष्यों में भर दिया, भरेगा जो उत्साह अदम्य रे ॥४॥
भरा खजाना ।
प्रत्त्युत्पन्न बुद्धि का वैभव अक्षय औरों को शिक्षा देने का किसने तत्त्व पिछाना ? मत बोलो, पर व्यवहार करो अपना तन-मन संयम्य रे ॥५॥
५४]
लय-बड़े प्रेम से मिलना सबसे
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वढे चलो सयम मे विनयी, प्रात्म समपर्णकारी। श्रीप्राचार्य-चरण मे घरकर जीवनचर्या सारी। फिर विचरो अप्रतिवद्ध सदा यह शिवपथ सरल सुगम्य रे ॥६॥
सीमा मे रहना है सकट, यह दिल की नादानी । वाहर पड़ा कि सडा, प्रवाहाश्रित पूजाता पानी। चन्देरी उत्सव मे 'तुलसी' सव सोचें क्षण विधम्य रे ॥७॥
वि० स० २०१४, मर्यादा महोत्सव, लाडनू (राज.)
[५५
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: २३ :
गुरुवर ! तुम्हारे जीवन से दिव्य ज्योति पाएं । फिर एक बार सोए संसार को जगाएं ||
दृढ़ लक्ष्य कौन ऐसा ? हो दूसरा धरा में 1 आराध्य ! श्रीचरण में, लो प्राण ये चढ़ाएं ॥१॥
आदर्श वह अहिंसा, पल-पल की साधना में । हिसा ने हार मानी, इतिवृत्त क्या बताएं ? २ ||
वह सत्य सत्य - निष्ठा, स्रोतस्विनी प्रतापना तपस्या, किसका कहो
किनारे । सुनाएं ॥ ३ ॥
अस्तेय की शुभाभा, जन-जन के मन में छाई । विश्वस्त थे सभी के, गौरव से गीत गाएं ||४||
,
वर्चस्व ब्रह्म व्रत का साहित्य है दिखाता । नवशील की वे बाड़ें, पढ़ आत्म-वल बढ़ाएं ||५||
अपरिग्रहीश ! अनुपम, निस्संगता तुम्हारी । अनशन में श्रात्म-दर्शन, लो वन्दनार्चनाएं || ६ ||
निश्छल, उदार, व्यापक, अध्यात्म चेतना में | 'तुलसी' सदैव पनपे, वे भिक्षु भावनाएं ॥ ७॥
वि० सं० २०१५, चरम महोत्सव, कानपुर (उत्तरप्रदेश) लय --- इतिहास गा रहा है
५६]
[ श्रद्धेय के प्रति
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२४
श्री भिक्षु का जीवन दर्शन, मजुल मर्याद महोत्सव है ।
जनता का सहज समाकर्षण, मजुल मर्याद महोत्सव है ।।
सघर्षो का इतिहास भरा, आदर्शो का पथ हरा भरा ।
मुनिचर्या का शुभ सजीवन, मजुल मर्याद महोत्सव है ॥१॥
सुन्दर सगठन प्रतीक वना, निर्मल निरुपम निर्भीक बना ।
अनुशासन का पावन उपवन, मजुल मर्याद महोत्सव है ||२||
यम नियमहीन ग्रधुना युग में, निम्मीम निरवधिक इस जग मे ।
मर्यादित विधि का अनुमोदन, मजुल मर्याद महोत्सव है ||३||
नव जागृति का सन्देश सबल, ले प्राता प्रगति पथ परिमल ।
प्रतिवर्ष हर्प का नव यौवन, मजुल मर्याद महोत्सव है ||४||
शासन का भावित शुभ भविष्य, समुपस्थित करता सुगम दृश्य ।
तेरापथ का अभिनव दर्पण, मजुल मर्याद महोत्सव है ||५||
लय- महावीर प्रभु वे चरणो मे
गुरु ]
[५७
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सवत्सर भर का कार्यक्रम, निश्चित करवाता यह निरुपम । प्रतिरूप संघ का परिमार्जन, मंजुल मर्याद महोत्सव है ||६||
मुनियो को मिलते नये क्षेत्र, भक्तो को मिलते नये नेत्र |
परिवर्तन वर्तन का साधन, मंजुल मर्याद महोत्सव है ||७||
घुल मिल ग्रक्षरमय एक पत्र, है धार्मिक जग का एक छत्र |
करने क्षण-क्षण अमृत वर्पण, मजुल मर्याद महोत्सव है ॥ ८ ॥
1
भिक्षु का भाव भरा मन्थन, श्री जयाचार्य का सद्ग्रन्थन । 'तुलसी' का सफल सुफल चिन्तन, मजुल मर्याद महोत्सव है || ६ ||
५८ ]
वि० सं० २०१५, मर्यादा महोत्सव, संथिया ( बंगाल )
[ श्रद्धेय के प्रति
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२५
देव | चढाए श्रीचरणो मे क्या ऐसा उपहार हो । जिसे देखकर जनता मे जागृत सच्चे संस्कार हो ||
हँसती सिलती कोमल कलिया ऋञ्जलिया क्यो वन रही ? कर स्पर्श करना भी जिनका श्रागम सम्मत हे नही । वह क्या भेंट तुम्हारी ? जहा पर प्राणो पर सहार हो ॥१॥
स्वर्ण रजत की वे मुद्राए, मणि भूषण ग्रम्लान जो । हीरे, माणिक, मूगे, मोती, विस्तृत वाहन यान जो । काचन त्यागी को यह कैसे सामग्री स्वीकार हो ||२||
तैल चित्र या प्रस्तर प्रतिमा, घडे कि सुन्दर घाट से । उच्च शिखर धर वर मन्दिर मे करे प्रतिष्ठित ठाट से ।
2
क्या यह पटु प्रतिभा का परिचय ? चेतन जड ग्राकार हो ॥३॥
साय प्रातरुपासना ।
श्रद्धा करें समर्पित प्रतिदिन, स्वर-लहरी संगीत सुबाए, पास न आए वासना । क्या हम सोचें ? श्रात्म-साधना केवल बाह्याचार हो ||४||
चिर, सुम्थिर साहित्य बनाए स्मारक के अणु-उद्जन बम से न नष्ट हो घरें प्रतल फिर भी यदि क्या मानव मे दानवता का
मय--नगरी नगरी द्वारे-द्वारे
गुद]
सदर्भ मे । भूगर्भ मे । संचार हो ॥५॥
[ve
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सच्चा स्मारक यही और उपहार यही ग्रविकल्प हो । पूज्य दिखाएं पथ पर चलने मानव दृढ़ संकल्प हो । स्वयं सजग औरों का उद्बोधन अपना ग्राचार हो ||६||
तेरापंथ मिला यह संघ चतुष्टय का सौभाग है । चरण-चिह्न पर चलें कि हम सव, रग-रग में अनुराग है । भिक्षु चरमोत्सव कलकत्ता, संकुल वड़ाबाजार हो ||७||
६०]
वि० सं० २०१६, चरम महोत्सव, कलकत्ता (बंगाल)
[श्रद्धेय के प्रति
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________________
•
२६
गुरुवर हमको मर्यादा का आधार चाहिए । आचार चाहिए, साकार चाहिए,
उच्च
सत्य
विमल व्यवहार चाहिए, सुविचार चाहिए ||
सदा
मर्यादा ही जीवन है, मर्यादा जीवन धन है, गण-वन मे इसका ही प्राकार चाहिए ॥१॥
मर्यादा चाहे छोटी, जीवन की सही कसौटी, सयम को सयम का व्यापार चाहिए ॥२॥
छूटे तो तन यह छूटे, सवमे ऐसे ऊडे
शासन सम्बन्ध न टूटे, संस्कार चाहिए ||३||
छाए जो दाए बाए, तत्क्षण हम तोड गिरायें,
न हमे दलवन्दी की दीवार
चाहिए ॥४॥
ते जो बाह्य नियन्त्रण, उनको क्यो कभी अपने से ही अपना उद्धार
लय- पानी श्राया पुला दे
गुरु ]
निमन्त्रण, चाहिए ||५||
नियमित गति हो न निरकुश, प्रेरक 'हय रस्सि गयकुस, डगमगती नैया को पतवार
चाहिए ॥६॥
अपने सस्मरण सुनाए, ग्राह्लादित सव बन जाए, ऐसी घटनाओ का विस्तार चाहिए ॥७॥
[६१
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________________
रत्न-त्रय की जहां वृद्धि, मुनि-चर्या वरे समृद्धि, फिर क्यों नां बंग, कलिङ्ग विहार चाहिए ॥८॥
'तुलसी' संयम के पथ पर, उन्नत हो जन-जीवन स्तर, 'हांसी' उत्सव का यह उपहार चाहिए ।
परस्पर प्यार चाहिए |
वि० स० २०१६, मर्यादा महोत्सव, हांसी (पंजाब)
६२]
[श्रद्धय के प्रति
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________________
२७
1
गुरुवर कण-कण मे नव चिन्तन भर दो । भिक्षो । जन-जन मे नव जीवन भर दो।
भर दो
भर दो।
!
भर दो।
भर दो ।
थे,
तुम तुम
धर्म - क्रान्ति - उन्नायक अटल सत्य निर्णायक थे. शासन के भाग्य विधायक थे,
-
अपना वह अनुपम अनुशीलन भर दो । भर दो ! भर दो | ॥ १॥
तुम साध्य सिद्धि से स्वस्थ बने, पथ- दर्शक परम प्रशस्त वने,
आत्मस्य वने, विश्वस्त बने,
अविचल अविकल वह सद्गुण धन भर दो । भर दो | भर दो | ||२||
लय-- उतरी तम पत्र पर ज्योति चरण
गुरु ]
कप्टो मे क्षमा तुल्य क्षमता, थी स्थितिप्रज्ञ की सी समता, सबके प्रति निर्मित ममता,
अपनत्व लिए वह अपनापन भर दो । भर दो। भर दो ' ॥३॥
सयम के सच्चे माधक थे, चाराव्य और आराधक थे, जिनवाणी के अनुवादक थे, वह धार्मिक मार्मिक सघन मनन भर दो । भर दो। भर दो | ॥४॥
[ ६३
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________________
सव जीवों के तुम मित्र रहे, व्याख्या मे व्यक्ति विचित्र रहे,
आत्मा से पूर्ण पवित्र रहे, आलोकयुक्त वह अनुकम्पन भर दो ! भर दो ! भर दो ! ॥५॥
तुमने नव-नव उन्मेष दिए, तुमने नव-नव उपदेश दिए,
तुमने नव-नव आदेश दिए, वह ओज भरा दृढ़ अनुशासन भर दो ! भर दो ! भर दो ! ॥६॥
संसृति में जीवित संस्कृति हो, संस्कृति में अभिनव जागृति हो,
जागृति मे धृति हो, अविकृति हो, 'तुलसी' में वह अन्तर-दर्शन भर दो! भर दो ! भर दो ! ॥७॥
वि० सं० २०१७, चरम महोत्सव, राजनगर (राज.)
[श्रद्धेय के प्रति
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________________
गुरु ]
२८
,
मन सुमर-सुमर नित भिक्षु नाम हो जायेंगे सव सिद्ध काम |
अजरामर अक्षय ग्रटल धाम, मन सुमर-सुमर नित भिक्षु नाम ।
1
जो सन्त-प्रवर भव सिन्धु पोत, वहते वन निर्भय प्रतिस्रोत । जन-जन के जो प्रेरणा स्रोत, कैसा जिनका लाघव ललाम ॥१॥
पावन पुरुषोत्तम के ग्रार्हद् दर्शन के
अध्यात्मवाद मे साधनाराम जो
सपूत,
अग्रदूत |
अनुस्यूत, श्रविश्राम ||२||
प्रवृत्तिया सहज ही प्रसकीर्ण, जो अन्ध रूढिया जीर्ण-शीर्ण 1 कर एक-एक सबको विदीर्ण, उत्तीर्ण हुए प्रति दृढ स्थाम ॥३॥
शास्त्रम्बुधि का अभिनव निचोड, धार्मिकता को दे नया मोड | सारे जीवन को जोडतोड, तेरापन्थ सुपरिणाम ॥४॥
उसका
लय-अभिनन्दन भारत के सपूत
[ ६५
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________________
६६]
मर्यादा ही जिसका अथ है, मर्यादा ही जिसका पथ है । मर्यादा घोष अनवरत है, सन्तोष पोष सुषमा प्रकाम ॥५॥
सयम समाधिमय श्रमण संघ, साध्वियां कुसुम कलियां अभंग | श्रावक समाज ले नव उमंग, है खड़ा एक टक दृष्टि
थाम || ६ ||
में,
मर्यादोत्सव
मंगलमय प्रमुदित सव पल-पल लव-लव मे । 'तुलसी' श्रद्धानत भक्त हृदय हो, कोटि-कोटि सविनय प्रणाम ||७||
वि० सं० २०१७ मर्यादा महोत्सव, श्रामेट ( राज० )
[ श्रद्धेय के प्रति
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मगल गान !
मगल आज मनाए गाए जय-जय जय हे जय जिन शामन शेखर । सुन्दर जय अभिधान ॥
२६
प्रतिपल ग्रात्म-साधना मे जय-जीवन श्रोत-प्रोत | फैला जैन जगत मे अभिनव एक रश्मि का स्रोत । शैशव वय सयम की मुपमा कैसी उज्ज्वल शान ॥ १॥
प्राकृत कवि, नैसर्गिक शासक, कलाकार साकार । लेखक, वक्ता, सघ विभर्ता, वैज्ञानिक ग्रविकार । रूप अनेक, एक रसना यह क्या कर सके बयान ॥२॥
वज्र-कठोर आत्म-वल ग्रविक्ल, हृदय कुसुम सुकुमाल | तेरे अनुशासन मे यासित रहे वृद्ध, युव, वाल । चित्र न होगा किसे ? देस कर मुगठित संघ - विधान ||३||
|
वर्ण सावरे मे भो कैसा अद्भुत अनुपम प्रोज क्या मानव की बात, निकट टिक सका न मत्त मनोज । धन्यवाद के पान मातृ-पितु,
'कल्लु', 'आईदान' ॥४॥
नय भारत में दो ना
--
धार्मिक, राजनीतिविद निर्मल, प्रगति पथ के पुष्ट प्रणेता, ग्रक्षय तूर्यासन पर सूर्य तेज वर, प्रगटे
गुरु ]
कुशल गच्छ नेतार |
श्रुत पुण्य
भण्डार | निधान ||५||
[ ६७
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तेरापथ के भाग्य विधाता, ऐ ! द्वितीय दैपेय ! गुजे अगणित कण्ठ-स्वर से सदगुण गरिमा गेय। स्वीकृत हो श्रद्धाञ्जलियां हे ! श्रद्धा के आस्थान ॥६॥
तेरे इस पावन स्मृति दिन में सघ चतुष्टय लीन । अांखों आगे आज नाचता तेरे युग का गीन । 'तुलसी' जय-जय की धुन में यह जयपुर राजस्थान ।।७।।
वि० सं० २००६ भाद्रव शुक्ला १२ जयपुर (राज.)
६८]
[श्रद्धेय के प्रति
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तैरापथ के सप्तम गणपति 'डालिम' दिवस मनाएगे । उज्जयिनी गुरु-जन्मभूमि मे गौरव गाएगे ||
३०
नौ मे जन्म, तेवीमे दीक्षा आत्म-साधना पाई है । बहुश्रुति सम्यग् वने विकसित विभुताई है। इकतीसे गुरुदेव दया से ग्रागेवान कहाएगे ॥ १॥
उन बिहारी देश विदेशे विचर वरी विस्याति जो । अद्भुत अनुभव प्राप्त किए क्या वर्णे रयाति जो । बड़े भाग्य मे शासन मे ऐसे शामनपति आएंगे ||२||
आकस्मिक घटना ने जो इतिहास नवीन बनाया है । डालिम के उस दिव्य रूप ने हृदय डुलाया है । भैक्षव गण के बच्चे-बच्चे जुग-जुग शीश झुकाएगे ||३||
प्रवचनकार रूप मे जब मण्डप मे मण्डित सिंह गजना, मुदिर घोप अपनापन हो समवसरण मे विरले जो नही डगमग शीश
लय
ग्रोजस्वी, वचस्वी और यशस्वी हो तो ऐसे हो । सुनते हाक प्रतिद्वन्द्वी मानो भूमि मे पैसे हो । सहजतया चरणारविन्द को विरले हो छ् पाएंगे ||५||
गुरु ]
होते थे । खोते थे । डुलाएगे ॥ ४ ॥
- मीखणजी का चेला दशन वेगा-वगा दीज्यो जी
-
[ ६६
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________________
नर की परख करी तुमने अप्रतिहत प्रतिभा धारीजी। कैसा शानदार चुना उत्तर-अधिकारीजी। कालू भाल विशाल आज ही क्या कोई विसराएगे ।।६।।
धन्य-धन्य हम सब है ऐसे गुरु रत्नो को पाकर के।
सदा वजाएं चैन बांसुरी हृदय फुला करके । R 'तुलसी' शत वार्षिक यह मालव-चतुर्मास सझाएगे ।।७।। E
...
७०]
[श्रद्धेय के प्रति
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धर्म
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शान्ति-निकेतन सत्य धर्म की जय हो जय। करुणा-केतन जैन धर्म की जय हो जय।। विश्व-मैत्री की भव्य-भित्ति पर,
सत्य अहिंसा के खम्भो पर, टिका हुआ है महल मनोहर,
मदा सचेतन सत्य धर्म की ॥१॥
अनेकान्त झडा लहराए, जिन प्रवचन महिमा महकाए, माम्य-भाव-सुपमा सरसाए ,
सकट-मोचन सत्य धर्म की ॥२॥
वर्ण, जाति का भेद न जिसमे, लिंग, रङ्ग का छेद न जिसमे, निर्धन, पनिक विभेद न जिसमे,
समता-शामन सत्य धर्म की ॥३॥ कर्मवाद की कठिन समस्या, सुलझा देती तीव्र तपस्या, नही फलाप्ति ईश्वर वश्या,
व्यक्ति-विकासन सत्य धर्म की ॥४|| शाश्वत अग्विल विश्व को जाना,
नही किसी को कर्ता माना, 'तुलसी' जैन तत्त्व पहिचाना,
जीवन-दर्शन सत्य धर्म की ॥५॥ नय-नोता उड जाना
पर्म]
[७३
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________________
:२:
अमर रहेगा धर्म हमारा
जन-जन मन अधिनायक प्यारा, विश्व विपिन का एक उजारा, असहायों का एक सहारा, सब मिल यही लगायो नारा ।।
धर्म धरातल अतुल निराला, सत्य, अहिसा स्वरूप वाला, विश्व-मैत्री का विमल उजाला, सत्पुरुपों ने सदा रुखारा ॥१॥
व्यक्ति-व्यक्ति में धर्म समाया, जाति-पांति का भेद मिटाया, निर्धन, धनिक न अन्तर पाया, जिसने धारा, जन्म सुधारा ॥२॥
राजनीति से पृथक् सदा है, जग-झंझट से धर्म जुदा है, मोक्ष-प्राप्ति का लक्ष्य यदा है, आत्म-शुद्धि की वहती धारा ॥३॥
आडम्बर में धर्म कहां है, स्वार्थ-सिद्धि में धर्म कहां है, शुद्ध साधना धर्म वहां है, करते हम हर वक्त इशारा ||४|| लय-बना रहे आदर्श हमारा
७४)
[ श्रद्धेय के प्रति
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वर्म नाम मे शोपण करते, धर्म नाम से जो घर भरते, धर्म नाम मे लडते-भिडते, वे सब वर्म कलङ्क विचारा ॥५॥
प्रलयकार पवन भी वाजे, उठे तूफानो की आवाजे, पलटे सब जग रीति रीवाजे, पर इसका नव अटल सितारा ॥६॥
वर्म नाम पर डटे रहेगे, सत्य-शोध मे सटे रहेगे, सकट हो यदि सकल सहेगे, 'तुलमो' निश्चित है निस्तारा ॥७॥
पर्म
[७५
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________________
जय जैनधर्म की ज्योति, जगमगती ही रहे। जिसको अपनाकर जनता, जड़ता जड़ मूल दह ।।
'मित्ति मे सब भुएसु वेरं मझ न केणई' । यह मूल मन्त्र समता का, (जिसे) अहिसा जैन कहे ।।१।।
मुनियों के पच महाव्रत, अणुव्रत गार्हस्थ्य में। लो यथा शक्ति जिन-आगम कहते 'धम्मे दुविहे' ।।२।।
आत्मा सुख-दु.ख की कर्ता, भोक्ता स्वयमेव ही। है 'अत्तकडे दुक्खे' सब, अपने कृत कर्म सहे ॥३॥
सत्करणी सबकी अच्छी, जैनेतर जैन क्या ? कहते जिन बाल तपस्वी भी 'देशाराहए' ॥४॥
है विश्व अनन्त अनादि, परिवर्तन रूप में। फिर स्रष्टा क्या सरजेगा, 'जव लोए सासए' ।।।।
पुरुषार्थी वनो सुप्यारे, जो होना होने दो। दमितात्मा सदा सुखी है, 'अस्सि लोए परत्थए' ।।६।।
आत्मा वनती परमात्मा, उत्कृष्ट विकास मे। नव तत्त्व द्रव्य षट् घटना, 'समदिष्टी सद्धहे' ॥७॥
लय-प्रभु पार्श्वदेव के चरणो में
७६]
[श्रद्धेय के प्रति
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सिद्धान्त समन्वयवादी, स्याद्वादी का सदा। अन्धाग्रह को निपटाने, 'पण्णत्ते सत्त नए' ॥८॥
क्यो जातिवाद को प्रश्रय, प्रश्रय सच्चरित्र को। व्यापक बन 'तुलसी' वढता 'मग्गे जिण देसिए' ।।६।।
घम]
[७७
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________________
: ४ :
धर्म में रम जाना, ना मेरे मन घबराना, अभय तू बन जाना, ना मेरे मन भय खाना ।
धर्म है शान्ति-सदन सुखकारी, खिली है सयममय फुलवारी, ज्ञान मलयाचल पवन सुप्यारी, वास कर मुख पाना ॥१॥
धर्म नन्दन वन सुखद वगीचा, शान्त-रस से सन्तों ने सींचा, यहा नहीं कोई ऊचा-नीचा, सुमनता सरसाना ॥२॥
धर्म है मान सरोवर भव्य, त्याग-तप मोती जहां अलभ्य, भव्य जन का है यह कर्तव्य, हंस वन चुग जाना ॥३॥
धर्म ने कितने पतित सुधारे, उजड़ते कितने खेत रुखारे, डूबते कितने पार उतारे, उन्हें स्मृति में लाना ॥४॥
लय-रमजाना
७८]
[श्रद्धेय के प्रति
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ऋपभ-मुत अठाणू ज्यो प्रावो, विमल मन धर्म भावना भावो, सरम 'तुलसी' शिक्षा अपनावो, परम पद जो पाना ॥५॥
घम]
[७६
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धर्म पर डट जाना, है वीरों का काम । वीरता दिखलाना, है धीरों का काम ।। हुए न्यौछावर 'गजसुकुमाल'. 'मुकौगल' ने कर दिया कमाल, 'सन्त खन्धक' सा हृदय विशाल, वना कर दिखलाना, है वीरों का काम ||१|| धर्म पर धर्मरुची' कुर्वाण, चढ़ाये सन्त पांच सौ प्राण, अडिगता 'मुनि मेतायं' समान, वक्त पर बतलाना, है वीरो का काम ।।२।। धर्म में 'जम्बू' का अनुराग, 'नेमि-राजुल' का विमल विराग, 'विजय-विजया' के सदृश त्याग, तुला पर तुल जाना, है वीरो का काम ।।३।। 'सती सीता' का धीज महान, 'सुभद्रा' का सतीत्व बलवान, 'धारिणी' ज्यों जीवन बलिदान, समय पर कर पाना, है वीरों का काम ॥४॥ धर्म है अत्राणों का त्राण, धर्म है अप्राणों का प्राण, धर्म से है 'तुलसी' कल्याण, हृदय से अपनाना, है वीरों का काम ॥५॥
लय-डट जाना
८०]
[श्रद्धेय के प्रति
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जय जय धम सघ अविचल हो, मघ सघपति प्रेम अटल हो।
हम सवका सौभाग्य मिला है, प्रभु यह तेरापथ मिला है, एक सुगुरु के अनुगामन मे, एकाचार विचार विमल हो ||१||
दृटतर सुन्दर सघ-मगठन, क्षीर-नीर सा यह एकोपन, है अक्षुण्ण मघ-मर्यादा, विनय और वात्मल्य अचल हो ॥२॥
सघ-सम्पदा वढती जाए, प्रगति शिखर पर चढती जाए, भैक्षव-शामन नन्दनवन को, मौरभ से सुरभित भूतल हो ॥३॥ 'तुलसी' जय हो सदा विजय हो, मघ चतुष्टय बल अक्षय हो, श्रद्धा, भक्ति बहे नम-नम मे, पग-पग पर प्रतिपल मगल हो ॥४)
सय-प्रम रहा धम
पम]
[१
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राजस्थानी विभाग
देव
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प्रह सम परम पुरुप नै ममर, 'पग्म पुग्प नै मुध मन ममरया, पातम निरमल होय । निज में निज गुण परगट जोय, प्रह मम परम पुरुप नै समरू ।
ऋषभ, अजित, सम्भव, अभिनन्दन, मुमति पदमप्रभ नाम । -सप्तम म्वाम सुपाम, चन्द्रप्रभ, सुविवि, शीतल अभिराम ॥१॥ श्रेयास, वासुपूज्य, जिन बन्दू विमल, अनन्त विशेप। धर्म, शान्ति, कुन्य, अर, मल्ली, मुनिसुव्रत तीर्थेश ।।२।। -नमि जिन, नेमिनाय, पारस प्रभु, चौवीसमा महावीर। भाव निक्षेप भजन करता जन, पाव भवधि तीर ॥३॥
सिद्ध अनन्त पाठ गुण नायक, अजरामर कहिवाय । 'तीन प्रदक्षिण देई प्रणमु, यिर कर मन वच काय ॥४॥
गोतम आदि इग्यारह गणधर, पांचारज ध्येय । 'पचवीम गुण युक्त विराज, उपाध्याय प्रादेय ॥५॥
अढी द्वीप पनग खेत्रा में, पच महाव्रत धार । समिति गुप्ति युत जो सुध साधु, बन्दू बारम्बार ॥६॥
दुपम पारे भरन क्षेत्र में, प्रगट्या भिक्ष म्बाम । अरिहन्त देव ज्यू धर्म दिपायो, पायो जग मे नाम ॥७॥
नय-गला पापा पनि देय]
[५
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पटवर भारमल्ल, ऋपिराया, जयजय, मव माणकलाल, डालगणि, कालू ग्रप्टम पट
महाराज ।' अधिराज || वा
भाग्य योग भिक्षु-गण पायो, तेरापन्थ प्रख्यात । परम प्रमोद मनावै गणपति,
'तुलसी'
वदना-जात ॥
६६]
[ श्रद्धेय के प्रति
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ॐ जय-जय त्रिभुवन अभिननन्दन विगलानन्दन तीर्थपते । अयि विशनानन्दन तीर्थपते । प्रायि र लुप निकन्दन विश्वपते ।
* जय-जय त्रिभुवन अभिनन्दन ।।
तिमिगच्छादित भुवन मे रे । दिव्य दिवारर उदित भयो, मरण-मग्ण निज हिरण पसारे, मारे जग जागरण हयो।
निद्रा धूणित जन बोध नमो ॥१॥
अतुल अहिंमा पमं गे रे । ममं दिमायो महितल मे, प्रक्षय अनुपम अविचल अनिमल मुग पाव ज्यू भवि पल में।
न नई गरट जग हरफन मे ॥२॥
पियपुर पायापुर थी रे । पावन गोलो अघ लिया, टिचिटिमटिटिग्रिम टिम टिम बाज, धौ धौ अपमप मादलिया।
ग्यणायनिया पावनिया र मोना गुर नर गह मिलिया
|
गषि प्रभु nि मेरे । तो पिण नंगपाप मिागम विना निरा, नन्नयन पसार मित।
fT नोग्य प्राण प्रा सि, गुण परिमन प्रगर पागिरं ॥
(0
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________________
भारिमल्ल, रायेन्दुजो रे ! जयजग, मघ, माणिकलाले, डालिम कलिमल कन्दन कालू, वनपालू इक इक आले ।
'तुलसीगणि' गुरु ग्रनुपद चालै, मिल गंध गंध सयल सायंकाले । करो वीर प्रार्थना सम काले ॥५॥
८८
لا
[ श्रद्धेय के प्रति
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श्री महावीर चरण मे मादर श्रद्धा-सुमन सझाऊ मैं । हार्दिक भक्ति-सलिल स्यू सीच-मीच कलिया विकमाऊ मैं ॥
ईश्वर अखिलेश्वर, प्रभु परमातम परमेश्वर।
प्राण-प्रिय जैन जिनेश्वर, भास्वर अविनश्वर हृदय बसाऊ मैं ॥१॥
नही जिन जग कर्ता, नही शकर सम सहर्ता ।
है तीन भवन रा भर्ता, अविकार अमल प्रभु लक्षण गाऊ मैं ॥२॥
नहिं घट-घट व्यापी, यद्यपि घट-घट का ज्ञापी ।
सूरज सो ज्ञान प्रतापी, मब पाप पक शोषण कर पाऊ मैं ॥३॥
नहिं भगवन् भोगी, नहिं योगाराधक योगी।
साकार इतर उपयोगी, अवियोगो मिलन मन सदा लुभाऊ मैं ॥४॥
नय-देखो वीर जिनेश्वर वन्दन राय उदाई पावै रे
देव
[८९
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________________
अमृत ग्य बनो, चुम्बक ज्यू चित्ताकरसी,
उपदेश मदा शिव-दरसी, 'तुलसी' नत मरतक गीग चढाऊ मैं 112.11
[श्रद्धेय के प्रति
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गुरु
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श्रो भिक्ष स्वामी द्योनी मोहि भक्ति तुम्हारी, भक्ति तुम्हारी प्रभु शक्ति तुम्हारी।
युक्ति मुक्ति पथवारी ।। भक्ति विशाली भाली भगवन् निराली ।
सुर हुए चरण पुजारी ॥१॥ शक्ति तुम्हारी प्रभु सत्य सपथ पर।
यात्मवली करनारी ॥२॥ युक्ति तुम्हारी भारी वर्णन-वर्णन ।
जाण सकल ससारी ॥३॥ तीन चीज की रीझ जो पाऊ ।
तो होऊ त्रिभुवन सचारी ॥४॥ चारुवास छापुर विच सुमरै ।
_ 'तुलसी' नवम पटधारी ॥५॥
सय-श्याम कल्याण
गुरु]
[६३
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:२:
अयि जय भिक्षो दैपेय । तेरापन्थ पथाधिप, जैन जगत अाधेय ।।
एकानन लख, कानन हंसासन वृपभासन तव
पंचानन लाजै । उपमा साझे ॥१॥
नर वको मरुधर रो कवि कलना चीह्नी । कंटालिय पुर अवतर चरितारथ कीह्नी ॥२॥ विरस विषय रस त्यागी त्यागी चित्र न एह । दुनिया सतपथ लागी अद्भुत हम हृदयेह ॥३॥ नही केवल मनपर्यव अवधि स्यादन्ते। तदपि अलौकिक अनुपम पन्थ लियो भन्ते ॥४॥ अलग-अलग शिव जगमग सुन कोई चित्त चिडके । चित्र न चग मृदंगे महिषि सदा भिड़के ॥५॥
महावीर शासन में दक्षिण इण भरते। तव कृपया कलियुग में सतयुग सो वरते ॥६॥
है तव अटल आण में तीरथ च्यार खरे। छापुर चारुवास विच 'तुलसी' तुम सुमरे ॥७॥
लय-आरती
६४]
[श्रद्धेय के प्रति
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मैं समरु गुरु भिक्सन नाम, वा ममरु गुरु भिक्खन काम । वा गुरु भिक्खन को करणी, भोर ममय भजू भिक्षुगणी ॥ रटू भिक्षुगगो, ममरू भिक्षुगणी, भिक्षुगणी म्हारै मुकुटमणी। रटू भिक्षुगणी, भिक्षुगणी तेरापन्य धणी ॥
भिक्खन नाम वडो अभिराम, भिक्खन नाम हृदय विश्राम । सरल गुभकर शिव सरणी ॥१॥
नाम करू क्षण यात्माराम, वर्णनातीत मुगुरु कृत काम । स्थित चित मुणल्यो मयलगुणी ॥२॥
धुर नृपनगर को काम उदा, साचो श्रावक वर्ग समग्र । दिल अव्यग्र यया धरणी ॥३॥
दोय वरम चरचा गुरु पास, नहि निज अपचारी अभिलाप । है स्यागश पर नूज भणी ॥४॥
पामो जाति
गु
[५
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________________
प्रतिभा रो अप्रतिम उजास, आत्म अलौकिकता ग्राभास | विश्व विकास यथा घृमणी ||५||
सरधा से रे अजोड निचोड, नहि कोई रंच रह्यो भकभोड़ । पड़सी सब नं स्वीकरणी ||६||
शासन मन्दिर री रे दिवाल, निज आशय सम करी सुविशाल । ऊंडी नीव अतीव
घणी ॥७॥
ε'६]
वर मरयाद लोहमय बीम, ढाल ढाल - मय ढोला धड़ीम | मति सकलना कली वणी ||5|
चित्र विचित्र भान्ति दृष्टान्त, गुरु रज्जा सुख सज्जा शान्त सयन कर सुखे मुनि श्रमणी || ||
सारो जगत हुयो इक ओर, एक प्रभु कियो काम कठोर । आरे इसो न जण्यो जणणी ॥१०॥
करणी करणी पड़सी याद, दीपांगज री धर आह्लाद । धुर धारी देह उद्धरणी ॥११॥
तारण आत्म तपस्या ताप, प्रारम्भी भूतल बतका नही जाये
आताप ।
वरणी ॥ १२ ॥
[ श्रद्धेय के प्रति
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पुनरपि प्रेरित जन समझास, प्रारम्भी कियो प्रवन प्रयास । सारी-मार्ग निर्माग जागरणी ॥१२॥
अन्न पाण रो किस्यो रे प्रमाण, साम में रहता निज प्राण । मगे नहिं बहु शिष्य गिग्यणी ॥१४॥
श्रावक श्राविका रो ममुदाय, अवलोकता आगम भाय । खूब करी प्रभु समझावणी ॥१५॥
वय सत मप्तति वर्प रो पाम, नहिं ठहरया कही एकण ग्राम । विचरया नित जिम नभ तरणी ॥१६॥
यावज्जीव लियो सथार, तिण माहे पियो अद्भुत कार । कौतुक मुणी गुर-वागरणी ॥१७॥
जिनमत को रे जमायो झण्ड, मेटयो शिथिलाचार अफण्ड । भनधि तारण तू तरणी ॥१८॥
माठं भादव मित गुन पाम, तेग्म तिचि माध्यो मुग्धाम । चरमोत्लर निधि तेह तणी ||६||
पटधर भाग्मन, अपिगय, जय,मप, माणक, टान मुहाय । पार मूरति मन ही ॥२०॥
ftv
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उगणीसै अठाणव साल, राजाणे पावस रो काल । चिहं तीरथ की चोकी चीणी ॥२१॥
तीस मुनि श्रमणी पच्चास, तन-मन मानै परम हुलास । 'तुलसी' न चूक आणा अणी ॥२२॥
वि० सं० १९६८ चरम महोत्सव, राजलदेसर (राज.)
९८]
[श्रद्धेय के प्रति
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गृह ]
राग-द्वेष क्लेश रा कारण तारण तरण बतायाजी । उत्तम अर्थ अनोपम भिक्षु स्वाम
सभायाजी | दीपाजी रा जाया म्हारा रोम गय विकसायाजी । वल्लुजी रा जाया जिन मत सतपथ मय दरशायाजी । बोधाकुर उगाया वचनामृत वरमायाजी ॥
असयती रो जीवणो मरणो वाछन उभय समायाजी | आदिम तत्त्व अलौकिक वरणत भरम भगायाजी ॥१॥
प्रथम संयतामयत लक्षण पूज्य विचक्षण गायाजी । -सुन-सुन श्रोता निज तन मन मे मोद मनायाजी ॥२॥
प्राण-विघात, वात मुख मिथ्या, करं चौर्य चित चायाजी । मिथुन, परिग्रह विग्रह कारण जो मुख वायाजी ॥३॥
स्पष्ट ग्रमयति इत उत जोवो जैनागम मे सर्व विरति बिन सयति नाहिं साफ
देशव्रती पिण भगवती न्याये ग्रमयति मे व्रत तिणरा अल्पाश नहिं लेखा मे
भायाजी । सुनायाजी || ४ ||
प्रायाजी । न्यायाजी ॥ ५॥
व्रत जीवन या पुद्गल-सुख बछया अरु वछायाजी । हवं असयतित्व अनुमोदन मोद बढायाजी ॥६॥
नय - प्रादिनाय श्रादीवर भिक्षु
स्वीय असयम नहि अनुमोद सयमपर मुनिरायाजी । तो परो अनुमोदन रोधत किम दुरितायाजी ||७||
[ee
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असे.खसमस्त असयम जीवन-बछा राग कहायाजी। अमन चैन हित भिक्षु वैन भविजन सरधायाजी ।।८।। इतर रहस्य अजाण छाण विन भोला नै भरमायाजी। गौ-बाड़ो अरु प्रोतु अखाड़ो राड़ो ठायाजी ।।६।। मुख-मुख में अरु लेख-लेख मे भेख-भेख भिडकायांजी। भैक्षव पन्थी दान दया रा पाया ढायाजी ॥१०॥ अगर पूछलै कोई पाछो आगम गम सुनवायाजी। तो कहै सामायक-धर साधु नहि छुड़वायाजी ॥११॥ तो छुडाण मे शकीलों प्रभु कद ना फरमायाजी । नाहक भोली दुनिया वंचन तूद उठायाजी ॥१२॥ 'मुञ्च, मुञ्च, मामुञ्च' सही दृष्टान्त शान्त चित्त ध्यायाजी। इम जैनेतर अन्थे पिण जिन मत अपनायाजी ।।१३।। धर्म नीति रो मार्ग निभावत निर्मलता निर्मायाजी। वर्तमान गृह नीति हेतु हा ना न कहायाजी ॥१४॥
ओ सत्यार्थ प्रकाशक सत्पथ दर्शक दीपां-जायाजी। अखिल जगत आभारी बारी है इण न्यायाजी ॥१५॥ अतएव नित भिक्षु भिक्षु भविजन रटन लगायाजी । अल्पागे पिण उऋण होवण परम उम्हायाजी ।।१६।।' भारीमाल, नप, जय, मघ, माणक, डाल, काल गणरायाजी। हुलसी 'तुलसी' भिक्षु सुमरण स्तवन रचायाजी ।।१७।। संवत दोय हजार शुक्ल पख भाद्रब मास सुहायाजी । भिक्षु चरम कल्याण जाण मन घन उमड़ायाजी ॥१८॥ गंगाशहर नहर सुकृत री मत को भवि तरसायाजी । च्यार तीरथ चिहुं चोक चौपडा भुवने छायाजी ।।१६।।
वि० सं०..२००० चुरम महोत्सव, गंगाशहर (राज.)
१००]
[श्रद्धेय के प्रति
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भिक्ष भवि तारे तारे तारे, दीपा मात दुलारे । अग्विल जगत उजियारे, भिक्षु भवि तारे तारे तारे ॥ विना इक दिनकर जगतो की हुवै दगा कुदशा रे। अज्ञानान्ध तमम घर-घर मे निज कर चरण पमारे ॥१॥
घटा-पथ अरु कापथ घटना उभय वणी इक मारे । ठोट-ठोट लुक-छिप कर वैठचा लु टन हेतु लुटारे ॥२॥
कलह कलाप उलूक उमाहित करन लग्या घुर्गरे । कुमति कुनय चमचेड कन्हैया उर-उड मोद मना रे ॥३॥ कमलाकर भवि नर कुम्हलाया तिग तिगताग निहारे। चोवीदार मु घृणित लोचन मच ग्ही हाहाकारे ॥४॥
इण अवमर मरुधर उदयाचन उदयो उचित प्रकारे । मानु मनग्रा युत भानु भिक्षु नाम धग रे ॥५॥ तरुण तेज कर तिमिर निकर नो मोज मतम निरधारे। न्याग गजपय, इनर इतर पथ ममुचित रूप दिया रे ॥६॥ माल पराहत चोर लुटेरा नहि कोई जोर मबारे।
तह उनूप लूक्या गपट मे नहिं अहिं होत बजारे ॥७॥ तुमति सुनय चमचेट पन्हैया दुर्जन हृदय मझा रे । अन्यमार दचार देम कर छुप गयो भय के मारे ||
मद-तुम ऐगा जी
ग
[१०१
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भवि कमलाकर सब विकसाया दंभिक तार विडारे । चूर्णित लोचन खवरदार जन खारिज हुये परवारे ॥६॥
जैन जगत दिशि प्रवल प्रकाशी प्रोद्भासी रवि द्वारे । हाहाकार निवार उजागर त्रिभुवन नयन उधारे ॥१०॥
पातक पक प्रचण्ड रहिम स्यू शोषित कर हरबारे। ' प्राग्वड़ पड पड़ तड फड़ तड़फडत लाखां जीव उवारे ।।११।। विश्वमित्र वण किरण मित्र की फैला रही जग सारे । करन रुकावट अन आगिया उद्यम कर कर हारे ।।१२।।
रुचिर रोचि हो प्रतिदिन बधती हादिक भाव हमारे ।' हे तरणे ! तेरी नित 'तुलसी' ! हुलसित कीति उचारे ॥१३॥
गीतक छन्द संवत् शुभ कर युग सहस्र 'रु एक दुर्ग सुजान मे। भाद्रवी सित पक्ष भैक्षव चरम दिवस महान में ।। श्रमण श्रमणी एकसो' है, मुदित मन गुरु आन में। जयतु जुग-जुग पथ तेरा सन्तपति सन्तान में ।
वि० म० २००१ चरम महोत्सव, सुजानगढ़ (राज.)
१ ४० मावु और ६० माध्विया
१०२]]
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चरमोत्सव आज मनायो, भिक्षु समृति पथ मे लायो ।
शुभ सवत साठ अठार, गुरुवर मुग्धाम सिधार। भाद्रव तेरस भल भायो |॥१॥
है देश मरुस्थल भारी, वो प्राक्तन पुर सिरियारी। नंगमनय निगम निभाओ ॥२॥ वै कच्ची पक्की हाटा, गुरुराज रह्या गहघाटा। (मत) अनशन वात विसरायो॥३॥
वा अन्तिम गीख मनुरी, आध्यात्मिक प्ररक पूगे। हृदयागण लेख लिसावो ॥४|| माधार्मिक भक्ति मिसाई, प्रभु दैविक शक्ति दिग्वाई। गुणी गौरव मुम मुम गाग्रो ॥५॥ भिक्षु जीवन पर उस भागी, योमाम विपय चित्त चापी। ममृति पट मे चित्र सिंचाग्रो ॥६॥
सय-सम गणी पण
गु]
[१.३
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१०४]
चर् कुशाग्र प्रभु बुद्धि, ग्रनुपम गुण ग्रात्म विशुद्धि | क्षण-क्षण अनुकरण कराओ ||७||
है पृथक्-पृथक् युग पन्था, अपवर्ग 'रु संसृति गन्ता । मन्तव्य भव्य अपनाओ || ८ ||
वा सगठन की शैली, इक नायक नीति नवेली | कर याद हर्ष उमड़ावो || ||
मुख धन्य-धन्य ध्वनि गाग्रो, जयकार अपार सुनाओ । वाह-वाह कहि वदन उछावो ॥१०॥
पट
भारमल्ल, ऋषिराया,
जय, मध, माणक कहिवाया । डालिम पट छोगां छावो ||११||
दो सहस्र दोय चउमासो,
डूंगरगढ़ अतुल उजासो । चिउ तीरथ चोक पुरावो ||१२||
सैतीस श्रमण सुखकारी, श्रमणी चवपन इकतारी । 'तुलसी' गणि रंग रचावो ||१३||
वि० सं० २००२ चरम महोत्सव, श्री डूंगरगढ़ (राज० )
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भीखणजी म्वामी भारी मर्यादा वाधी मघ मे। प्रवल परतापी शासन वीर रो, जिणमे जग रही जगमग ज्योत हो ।
देखी दशा है दयामणी पातो साधु मघ की आप हो। काप्यो कलेजो म्हारे पूज्य गे किन्ही मूल महित थिर थाप हो ।।१।। मकल सावु अरु साधवी वहो एक सुगुर री प्राण हो। चेला चेली अाप पापरा कोड मत करो, करो पचखाण हो ।।२।। गुरु भाई चेला भणी कोड मूपे गुर निज भार हो। जोवन भेर मुनि माहुणी कोड मत लोपो तमुगार हो ॥३।। आवै जिणने मूडने कोड मतिरे बधाो भेस हो । 'पूरी कर कर पारखा कोइ दीक्षा दिज्यो देख देख हो ॥४॥
बोल श्रद्धा प्राचार रो कोड नवो निकलियो जाण हो। मत चरचो जिण तिण कने करी गणपति वचन प्रमाण हो ॥५॥
जो हिरदै वैसे नही तोइ मति कगे खीचाताण हो। केवलिया पर दोडद्यो पा है अरिहन्ता री प्राण हो ॥६॥
उनन्ती गणी गण तणी गोड मति कगे, मति मुणो मैण हो। मजम पानो मानरो कोइ पल-पल छिन-दिन रैन हो ॥७॥ अपरदा गण म्यू टन कोड एक, दो, तीन अवनीत हो। माधु त्याने मरधो मती कोड मत परो परिचय-प्रीत हो ।
प-यपावो गावा
[१०५
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इत्यादिक नियमे भरचो कोई लेख लिख्यो गुग्गज हो। संवत् अठारै गुणसठ कोइ माह सुदि सप्तमी साज हो ।।६।। वार्षिक उत्सव आज रो कोइ होवै तिण उपलक्ष हो । दूर दर्शिता एहमें कोइ जयगणि की परत्यक्ष्य हो ॥१०॥
शहर सिरदार सुहामणों जिहां चार तीरथ रा झंड हो । 'तुलसी' तेरापथ जयो कोइ जुग-जुग अटल अखण्ड हो ।।११।।
वि० सं० २००६ मर्यादा महोत्सव, सरदारशहर (राज.)
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मावरा हो मावरा, म्वामीजी स्वामीजी, म्हारै आगण भला पधारचा रे । दुनिया री दुविधा मे डूबत, लाखा जीव उधारया रे ।
भरी जवानी मे सुरज्ञानी जग की सारी ममता माया मारी। कबीर वारी भारी चदरिया वो उजरी कर डारी रे ॥ar
मीरा रो सावरियो माइ, राम नाम पर तुलसीदास दिवानो। म्हारो रे सावगे जिन वाणी पर बण्यो रहयो परवानो रे ॥२॥
प्रवल विरोधी झेल चुनौती वीहड पथ पर निकल पडयो मरदानो। 'मोटा घर रो मान रटापो' केवल प्रभु रो वानो रे ॥३॥
वर्ण वणाई जो रे वामणी क्यो कर छोडै लखण ड्रमणी वाला। विना मावना मात्र नाम हा । अजव मोहिनी हाला रे ॥४॥
गलं कमुम्बो, वणे कमुम्मल पेचा कपडा नयन निहारया। कर कानू पहिली अपण पर चेला ने ललकारया रे ॥५॥
वोत्यो वेद बडो हो वावो, जो चोतरफी गहरी दृष्टि दुडाइ । ग्गर्दै झगडे को झपडिया दागी दियामलाई रे ॥६॥
दो बाता गे बाबा दुग्मण शिथिलाचार स्वतन्त्रचारिता चीरी। दो वाता गे पक्मो प्रेमी सम सयम रो सीरी रे ॥७॥
नय---रापना रमवदा
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संयम धर्म, अधर्म असयम, सुणोरे सयाणा कैसी करी कसोटी। विखरया वाल संवार साधदी एक हाथ में चोटी रे ॥८॥
नइ मोड़ युग ने दी क्यों नहिं खुले आम म्हे कहि युगपुरुप पुकारां। चरमोच्छव दिन सघ चतुष्टय 'तुलसी' तन मन वारां रे ॥६॥
चौपाई तेरह सवत पुर सरदारा। कियो चौमास मंत्रि-मनुहारा ।। वयालिस मुनि सति अड़चाला। 'तुलसी' भैक्षव-गण रखवाला ॥ श्रीभिक्ष रो अभिनव वैभव । एकसे चौवनवों चरमोच्छव ।। श्रद्धाञ्जली समर्पित शतशत । जगति चिर जय तव तेरापथ ।।
वि० सं० २०१३ चरम महोत्सव, सरदारशहर (राज.)
२०८]
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स्वामीजी रो शासण, म्हाने घणो सुहावैजी । वीर प्रभुजी रो ग्रासण, म्हाने घणो मुहावैजी | घणी सुहावै, हृदय लुभावै, तारक तेरापन्थ ||
मर्यादामय जीवन सारो, मर्यादा रो मान । श्रात्म-नियत्रण अरु अनुशासन है शासण री शान ॥१॥
एकाचार्य, एक समाचारी, एक प्ररूपणा पथ । श्रो नूतन अद्वैत निकाल्यो, वाह । वाह । भिखणजी सत ॥२॥
पावस मे प्रसरे, करें अपणो शीत काल सकोच । निर्झरिणी जिम शासण सरणी अन्तर मन ग्रालीच ॥३॥
सेवाभावी सुविनीता रो बढ़ खेतसी तथा रायचन्द श्रो त्यो
सहज प्रत्यक्ष
}
निन्नाणू रपिया नोली मे आयो विनय ग्राचार | शेप एक वाकी, बाकी गुण, स्वर्ण सुरभि सचार ||५||
गुरु ]
बहुमान | प्रमाण ||४||
विद्या भारभूत वणज्यावै, कला कलकित होय । नही धारी गणि गण इकतारी, वारी खूब विलोय ||६||
जो दलबन्दी रा दल-दल म्यू, दूर रहे दश हाथ । सघ हितेच्छु तिण री तुलना, रसिया रोहिणी साथ ||७||
नय—- माह
[toe
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वा वक्तृत्व कला बेचारी, बिन वारी धन गाज। नहिं विकसावै गण वन क्यारी, मूल विना किहां व्याज ॥८॥
वात-बात, प्रवचन-प्रवचन में गण गणपति गे नाम । सुविनीता री सरल कसौटी, दो चावल कर थाम ||९||
'लिखित लेख ओ स्वामीजी रो शासण री बुनियाद । हर वर्षे मरयाद महोत्सव, 'तुलसी' तिणरी याद ॥१०॥
सतरे पंचशया मुनि समणी श्रावक संघ सजोर । शहर सरदार त्रयोदश सवत शासन हर्प विभोर ॥११॥
वि० सं० २०१३ मर्यादा महोत्सव, सरदारशहर (राज.)
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[श्रद्धेय के प्रति
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________________ स्वामी भिखणजी। प्रगट्यो एक नयो उद्योत, जागी जग मे जगमग ज्योत / प्रवह्यो अटल धर्म को स्रोत, सागी भवसागर की पोत / / भीखण भीखण नाम स्यू रे म्हारो हुवै कलेजो हेम / सुमरण करता सकट भाग, जागे धार्मिक प्रेम // 1 // पगा लह्यो पथ साक्डो रे निश्चित निज गन्तव्य / जिन-वाणी रे सवल सहारै वद्धमूल मन्तव्य / / 2 / / निरभिमान नि सगता रे निर्भय हृदय सजोर / रुढिवाद रो कट्टर शत्रु भूलो म' मजन्यो चोर // 3 // अनुचित ही समझयो सदा रे अव्रत-व्रत रो मेल / उदाहरण है अम्ब-धतूरो, घी-तम्बासू मेल // 4 // बत-महाव्रत रो आतरो रे देखो मोला दोय / शिष्य सुगुरु सवाद सलूणो, मक्खन लियो विलोय // 5 // चूहा-विल्ली रो चल्यो रे सदिया लग हुडदग। पर बावा री बज्जर छाती, झूकी न झूठे जग // 6 // निज निन्दा काना सुणी रे, रह्यो प्रसन्न मन पूज / गुण मुण नहिं कहिं हृदय फूलायो, सत्पुम्पा री सूझ // 7 // लय-~म्हारा पागणा सूना [111
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________________ संघ सुरक्षा कारण रे, अनुशासन अनमोल / सवोरि शासण में राख्यो, मर्यादा रो मोल / / 8 / / टालो टालोकर तणों रे, पंडित भले प्रवीण / पतित पुप्प की गति पहिचाणो, शोभै सलिला मीण / / 6 / / जीवन भर दियो सघ नै रे, सक्रिय शिक्षण स्वाम / तारक तेरापन्थ वण्यो ओ, शक्ति स्रोत अभिराम / / 10 / / भाद्रव तेरस महाप्रभु रे, लह्यो समाधि मरण / 'तुलसी' नवमाचार्य चतुर्विध सघ सुगुरु की गरण // 11 // वि० सं० 2014 चरम महोत्सव, सुजानगढ़ (राज.) 112] [श्रद्धेय के प्रति
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