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हमारे ऐसे सद्गुरु की सदा शिर छत्र छाया हो । सदा शिर छत्र छाया हो, शीघ्र पवित्र काया हो ||
धर्म रथ के वृषभ धोरी, सजोरी त्यागमय मूर्ति । तपोवल भाल पर जिन के, तजी सब जग की माया हो ॥१॥
अहिसा के पुजारी जो, झूठ को पीठ जीवन भर । स्वजीवन तुल्य पर - जीवन, वाक्य दिल में बसाया हो ॥२॥
अदत्तादान के त्यागी, विरागी भोग- भामिनी के । वदन में ब्रह्म की दीप्ति, चमकता सूर्य ग्राया हो ||३||
न जिनके धाम मठ मन्दिर, न अस्थल स्थल में अपनापन । समझ धन धूल सम, जीवन सुभिक्षा से निभाया हो ॥४॥
प्रपंचों से परे, पंचेन्द्रियां मन अपनी मुट्ठी में । शान्त रस सरस नस-नस में, रोव निज पर जमाया हो ||५||
तरे भवसिन्धु से प्राणी, शीघ्र परमार्थ पथ पाकर । मधुर उपदेश ही जिनका, कि ज्यों अमृत पिलाया हो ॥ ६ ॥
पतित पंखी, प्रहारी से, बने गुरु-शरण से पावन । स्वपर कल्याण ही 'तुलसी' लक्ष्य अपना वनाया हो ॥७॥
लय-गजल
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[ श्रद्धेय के प्रति