________________
लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान, जय हे | जय त्रिभुवन के बाता, जैन जगत की शान ।। मानवता के अटल पुजारी, महाव्रती शिरमोर, दीन बन्धु समता के सागर, कोमल कहे कठोर, सद्गुण पुञ्ज, निकुञ्ज शान्ति के, आस्था के प्रास्थान । लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान ॥१॥ हिंसा से प्रातकित युग था, दर-दर शिथिलाचार, धर्म नाम पर घर-घर चलते धोखे के व्यापार, विद्रोही बन तुमने फू का एक नया तूफान । लो लाखो अभिनन्दन, आत्म-विजय का दो वरदान ।।२।। उडी धज्जिया अनाचार की, खुली पाप की पोल, सत्य धर्म की विजय ध्वजा, फर्राई वजते टोल, चमका चारो ओर वीर का शासन वन अम्लान । लो लाखो अभिनन्दन, प्रात्म-विजय का दो वरदान ॥३॥ वही धर्म है विश्वधर्म, जो विश्व वन्धुता धार, अर्थाश्रित नहीं होता, मत्य-अहिंसामय साकार, गूज रहा है प्रोज भरा यह तेरा मगलगान । लो लाखो अभिनन्दन, प्रात्म-विजय का दो वरदान ॥८॥ जातिवाद से अर्थवाद से व्यर्यवाद मे दूर, बलात्कारिता चाटुकारिता नही उमे मजूर, धर्म हृदय-परिवर्तन है, फिर क्या निर्धन धनवान् । लो लामो अभिनन्दन, श्रात्म-विजय का दो वरदान ॥५॥
सप-भारत में दो लार
गुरु]
[४५