Book Title: Shraddhey Ke Prati
Author(s): Tulsi Acharya, Sagarmalmuni, Mahendramuni
Publisher: Atmaram and Sons

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Page 115
________________ भवि कमलाकर सब विकसाया दंभिक तार विडारे । चूर्णित लोचन खवरदार जन खारिज हुये परवारे ॥६॥ जैन जगत दिशि प्रवल प्रकाशी प्रोद्भासी रवि द्वारे । हाहाकार निवार उजागर त्रिभुवन नयन उधारे ॥१०॥ पातक पक प्रचण्ड रहिम स्यू शोषित कर हरबारे। ' प्राग्वड़ पड पड़ तड फड़ तड़फडत लाखां जीव उवारे ।।११।। विश्वमित्र वण किरण मित्र की फैला रही जग सारे । करन रुकावट अन आगिया उद्यम कर कर हारे ।।१२।। रुचिर रोचि हो प्रतिदिन बधती हादिक भाव हमारे ।' हे तरणे ! तेरी नित 'तुलसी' ! हुलसित कीति उचारे ॥१३॥ गीतक छन्द संवत् शुभ कर युग सहस्र 'रु एक दुर्ग सुजान मे। भाद्रवी सित पक्ष भैक्षव चरम दिवस महान में ।। श्रमण श्रमणी एकसो' है, मुदित मन गुरु आन में। जयतु जुग-जुग पथ तेरा सन्तपति सन्तान में । वि० म० २००१ चरम महोत्सव, सुजानगढ़ (राज.) १ ४० मावु और ६० माध्विया १०२]] [श्रद्धेय के प्रति

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