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धर्म में रम जाना, ना मेरे मन घबराना, अभय तू बन जाना, ना मेरे मन भय खाना ।
धर्म है शान्ति-सदन सुखकारी, खिली है सयममय फुलवारी, ज्ञान मलयाचल पवन सुप्यारी, वास कर मुख पाना ॥१॥
धर्म नन्दन वन सुखद वगीचा, शान्त-रस से सन्तों ने सींचा, यहा नहीं कोई ऊचा-नीचा, सुमनता सरसाना ॥२॥
धर्म है मान सरोवर भव्य, त्याग-तप मोती जहां अलभ्य, भव्य जन का है यह कर्तव्य, हंस वन चुग जाना ॥३॥
धर्म ने कितने पतित सुधारे, उजड़ते कितने खेत रुखारे, डूबते कितने पार उतारे, उन्हें स्मृति में लाना ॥४॥
लय-रमजाना
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[श्रद्धेय के प्रति