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है प्राण देवते । तेरी ज्यो-ज्यो स्मृति हो रही। मेरी रसना रस प्यासी वाचाल वन रही ।। तू ने निजात्म-शोधन जिस युक्ति से किया। जन-जन की मार्ग दर्शक अब युक्ति है वही ।।१।। फिर सघ-सगठन का फूका जो मन्त्र सा। परिणाम रूप नूतन ज्योर्तिमय है मही ।।२।। शासन-विहीन गण मे अनुशासना भरी। डगमगती जन-नया की तू ने पतवार ग्रही ॥३॥ आडम्वरो से आवृत्त धर्मों की दुर्दशा। देखी दया चेता जो जाती ना कही ॥४॥ निश्छदम प्रो' निराला पय वीर का लिया। सुख शान्ति की तभी से स्रोतस्विनी वही ॥१॥
ईर्ष्या कलह के युग मे एकत्व जो रहा । हृदयेश कोटि चन्दन श्रद्धाजलि यही ।।६।। अानन्द मग्न 'तुलसी सह सघ सामने । जयपुर मे तेरापथ को देखी छटा मही ।।७।।
वि० स० २००६ मर्यादा महोत्सव, जयपुर (राज.)
लय-प्रभु पावंदेर चरणो मे
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