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देव तुम्हारे श्रीचरणों में श्रद्धा का उपहार करं । भक्त हृदय के सादर सौ-सौ साधुवाद स्वीकार करें ।।
कष्टों की परवाह भला क्या ? जब अपने को अभय किया । औरों को क्यों हो पीड़ा ? जब हमने सबको अभय दिया । संयम, समता और अभयता है यह मूल अहिंसा का । तुमने बतलाया इससे, होता उन्मूलन हिंसा का । इसी तत्त्व को हृदयगम कर, निज पर के सब पाप हरें ॥१॥
धर्म ग्रहिसा - संयम-तप-मय, सव जग का आधार यही । अभयदान से बढ़कर कोई देने में दातार नहीं । व्यसन पीड़ितों को यदि हम, व्यसनों की धुन से बचा सकें । बुरे पाप है, यही बात पापीष्टों को यदि जचा सकें । तेरे जीवन-मंथन से निष्कर्ष मिला, क्यों कर विसरे ॥२॥
भौतिकता के इस युग में अध्यात्मवाद का स्वाद मिला । है कृतज्ञ हम सभी तुम्हारे, सचमुच ही सौभाग्य खिला । पग-पग पर पाखण्ड पड़ा, प्रतिपद प्रवाह है पापों का । हा ! हा ! हिसा का हर घर-घर, आक्रन्दन अभिशापों का । प्राप्त अमर वरदान तुम्हारा, भवसागर का स्रोत तरें ||३|
चाहें हम हर समय समन्वय पथ के हामी हो रहना । अपने सच्चे दृष्टिकोण को अविकल अटल रूप कहना । सदा मनोवल वढ़े हमारा सदाचार पनपाने में | रात्रि-दिन हो लगन हमारी तरने और तराने में इसी अटल विश्वास सहारे अजरामर पद सपदि वरें ||४||
लय- - रामायण
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[ श्रद्धेय के प्रति