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षखंडागम की शास्त्रीय भूमिका कितना समय इन ग्रंथों के उद्धार में खर्च होगा। यह समय साहित्य, कला व संस्कृति के लिये बड़े संकट का है। राजैनतिक विप्लव से हजारों वर्षों की सांस्कृतिक सम्पत्ति कदाचित् मिनटों में भस्मसात् हो सकती है। दैव रक्षा करे, किन्तु यदि ऐसा ही संकट यहां आ गया तो ये द्वादशांगवाणी के अवशिष्ट रूप फिर कहां रहेंगे ? हब्श, चीन आदि देशों के उदाहरण हमारे सन्मुख हैं। प्राचीन प्रतिमाएं खण्डित हो जाने पर नई कभी भी प्रतिष्ठित हो सकती हैं, पुराने मन्दिर जीर्ण होकर गिर जाने पर नये कभी भी निर्माण कराकर खड़े किये जा सकते हैं, धर्म के अनुयायियों की संख्या कम होने पर कदाचित् प्रचार द्वारा बढ़ाई जा सकती है, किन्तु प्राचीन आचार्यों के जो शब्द ग्रंथों में ग्रंथित हैं उनके एकवार नष्ट हो जाने पर उनका पुनरुद्धार सर्वथा असम्भव है । क्या लाखों करोड़ों रुपया खर्च करके भी पूरे द्वादशांग श्रुत का उद्धार किया जा सकता है ? कभी नहीं। इसी कारण सजीव देश, राष्ट्र और समाज अपने पूर्व साहित्य के एक-एक टुकड़े पर अपनी सारी शक्ति लगाकर उसकी रक्षा करते हैं। यह ख्याल रहे कि जिन उपायों से अभी तक ग्रंथ रक्षा होती रही, वे उपाय अब कार्यकारी नहीं। संहारक शक्ति ने आजकल भीषण रूप धारण कर लिया है। आजकल साहित्य रक्षा का इससे बढ़कर दसरा कोई उपाय नहीं कि ग्रंथों की हजारों प्रतियां छपाकर सर्वत्र फैला दी जाये ताकि किसी भी अवस्था में कहीं न कहीं उनका अस्तित्व बना हीरहेगा। यह हमारी श्रुतभक्ति का अत्यन्त बुद्धिहीन स्वरूप है जो हम ज्ञान के इन उत्तम संग्रहों की ओर इतने उदासीन हैं और उनके सर्वथा विनाश की जोखम लिये चुपचाप बैठे हैं। यह प्रश्न समस्त जैन समाज के लिये विचारणीय है। इसमें उदासीनता घातक है। हृदय के इन उद्गारों के साथ अब मैं अपने प्राक्कथन को समाप्त करता हूँ और इस ग्रंथ को पाठकों के हाथों सौंपता हूँ।
किंग एडवर्ड कालेज अमरावती १.११.३९
हीरालाल जैन