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सत्वामृत
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क-विचारकता (इंकको, ईको) कार की कर करता हो। पर विनय के लिये दीनना
किसी बात पर श्रद्धा करने के लिये उसपर जरूरी नहीं है। सा होसकता है और होना विचार करना जरूरी है। यद्यपि विचारक कह- चाहिये कि एक मनुष्य दीन बिलकुल न हो और लाने लायक विख्यात था चे दर्जे का विचारक विनीत पूरा हो । दीनता और विनय के सम्बन्ध बनने के लिये काफी विद्वत्ता और वृद्धिमता की से मनुष्य चार तरह के होते है। जरूरत होती है, और ये चीजें जितने अचे दर्षे -अदीन विनीत (नोनह नाय)-जो की होगी, विचारकता भी उतने ऊचे दर्जे की हो अपनी योग्यता आदि से अच्छी तरह परिचित सकेगी, पर काम चलाने के लिये साधारण धुद्धि- है, आत्मगौरव भी रखता है, झूठ-मूठ किसी से भत्ता और विद्वत्ता भी काफी होसकती है। साधा- प्रभावित नहीं होता. पर साथ ही दूसरे के गुणो रए आदमी के पास जितनी विद्याधुद्धि होती है की पूरी कद्र करता है, उपकार के प्रति पूरा कृतज्ञ उससे अगर वह पूरा काम ले तो सत्यदर्शन के रहता है, या अटीन विनीत है। योग्य विचारकता उसमें आसकती है।
-दीन विनीत ( नद नाय )-को प्रादर्मा यह होसकता है कि वह कठिन भापान अपनी योग्यता प्राति से जैसा चाहिये वैमा परि समझे, शास्त्रीय भाषा का उसे ज्ञान न हो, फिर चित नहीं है पर दसरे के शणों की पूरी कह भी हित-अहित कल्याण-कल्याण की वात वह करता है, उससे प्रभावित होता है वह दीन बिनान समझ सकता है, उसपर विचार भी कर सकता है। इसमें साधारणतः एक खराबी पाई जाती है है। विचारकता में सबसे बडी बावा उसके कुस- कि उसकी नम्रता श्रीक आधार पर नहीं सड़ी स्कार हैं। कुसंस्कार दूर होजाय तो वह थोड़े ही होती, एक तरह से अज्ञान या निर्वलता पर खड़ी श्रम से अपनी विचारता को पनपा सकता है होती है। इसलिये अगर कभी उसके हाथ में और परीक्षक बनकर सत्यदर्शन कर सकता है। अधिकार वैभव आदि श्राजाय तो उसमे विनय
ख-अदीनता ( नोनूहो) को प्रतिक्रिया होने लगती है। उसका विनय वहत से लोगों में विचारकता रहने पर भी गुणानुराग कृतज्ञता आदि पर खडा होता नहीं खास खास स्थानो पर दीनता के कारण परीक्ष- है इसलिये दीनता इटन पर, अनीन मनुष्य के कता नहीं आने पाती। वे धर्म की, शास्त्र की, वरावर मी विनीत वह नहीं रहता। दीन विनीत, गरुकी, रुढियों की परीक्षा करने मे घबराते हैं, परिस्थिति बदलते ही अत्यन्त अविनीत तक हो अपनी दीनता के कारण भले-बुरे की जांच भी सकता है। अदीन विनीत में सी प्रतिक्रिया नहीं कर पाते। इससे वे रूड़ियों के दास धनकर होन का अवसर नहीं आता, योग्यता आदि बढ़ने रहजाते हैं।
पर भी वह परिस्थिति के अनुसार उचित विनय शंका-इसे दीनता क्यों कहना चाहिये यह का प्राय. सदा खयाल रखता है। और कृतज्ञता एक प्रकार का विनय है। विनय तो गुण है में तो किसी भी हालत में भी अन्तर आने का वह सत्यदर्शन में बाधक क्या होगा
अवसर नहीं है। विनय गुण है और दीनता दोप। ३-अदीन अविनीत (नोनूह नोनाम)--यह विनय गुणानुराग और कृतज्ञता का फल है और मनुष्य घसंही होता
की मानसिक निर्षलता और पर दूसरी के गुणों का उपकारों का योग्य मुल्य निता
PM है। यह होसकता है कि एक भी नहीं होता । आत्मगौरव की मर्यादा का सदा यदीन भी हो विनीत भी हो । दीनता के उल्लंघन करता रहता है।
से अपरिचित हो और ४-दीन अविनीत (नूह नोनाय)-इसे न वनय के कारण दूसरे की शक्ति की गुण की उप-
की उप- अपनी योग्यता का मान होता है न दूसरों की
अपनी योग्यता
कारण वह अपनी शक्ति से अपरिचित हो और