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-११ ] द्वितीयः स्तबकः
५३ मुकुलामिव, चूचुकमुद्रामुद्रिताभ्यामिव शृङ्गाररसपूर्णशातकुम्भकुम्भाभ्यामिव वक्षोरुहाभ्यां विराजमाना, शुभतरलाक्षेण अब्जमदनिर्मूलननिदानेन पदेन वदनेन च विराजमाना, भ्रमराजितेन कचनिचयेन नाभिपुटेन च लसमाना, जलदकाललक्ष्मोरिवोल्लसद्धारपयोधरा सज्जघनाभिरामा च, निद्रेव सकललोचनग्राहिणी चकासामास। ११) कदाचित्सौधाने मृदुलतमहंसांसमृदुले
विराजत्पर्य के विविधमणिकान्त्या कवचिते ।
तस्याः फलाम्यामिव, हृदयतटमेव तटाकः सरोवरस्तस्य कमलमुकुलाभ्यामिव पद्मकोरकाभ्यामिव चूचुक मुद्रया स्तनाग्रमुद्रया मुद्रिताभ्यां चिह्निताभ्यां शृङ्गाररसेन पूर्णी संभृतौ यो शातकुम्भकुम्भौ सुवर्णकलशौ ताभ्यामिव वक्षोरुहाभ्यां कुचाभ्यां विराजमाना शोभमाना, शुभतरा लाक्षाजतुरसोऽलक्तकरागो यस्मिन् तेन पदेन चरणेन, शुभे तरले च अक्षिणी यस्मिन तेन वदनेन मुखेन, अब्जस्य कमलस्य यो मदः सौन्दर्यदर्पस्तस्य निर्मलनं १० निराकरणं तस्य निदाने नादिकारणेन पदेन, अब्जस्य चन्द्रस्य यो मदस्तस्य निर्मूलनं तस्य निदानेन वदनेन च विराजमाना शोभमाना, भ्रमरैरलिभिरजितोऽपराजितस्तेन भ्रमरादप्यतिकृष्णेनेति यावत् कचनिचयेन केशसमूहेन भ्रम इवावर्त इव राजितेन शोभितेन नाभिपुटेन च तुन्दिपुटेन च लसमाना शोभमाना, जलदकाललक्ष्मीरिव प्रावृश्रिीरिव उल्लसन्ती प्रकटीभवन्तो धारा येषां उल्लसद्धारास्तथाभूताः पयोधरा मेघा यस्यां सा जलदकाललक्ष्मीः उल्लसन् शोभमानो हारो मणियष्टिर्ययोस्तावुल्लसद्धारौ तथाभूतो पयोधरी स्तनौ यस्यास्तथाभूता १५ श्रीमतो, सज्जाः सजला ये घना मेघास्तैरभिरामा मनोहरा जलदकाललक्ष्मीः, सत् प्रशस्तं यत् जघनं नितम्बं तेन अभिरामा मनोहारिणी श्रीमती, निद्रेव सकललोचनग्राहिणी निखिलनरनयनवशीकारिणी श्रीमती निखिलजननयनस्थायिनी निद्रा च, चकासामास शुशुभे ॥ श्लेषोपमालंकारौ । ६११) कदाचिदिति-त्रिभुवनवशी लोकत्रयवशकारिणो, हेमलतिका काञ्चनवल्ली सुदृग् सुलोचना इयं श्रीमती, कदाचित् जातुचित् सौधाग्ने प्रासादपृष्ठे मृदुलतमेनातिकोमलेन हंसांसेन तूलेन मृदुले कोमले, विविधानां नानाप्रकाराणां मणीनां रत्नानां २०
लताके फलोंके समान जान पड़ते थे, अथवा हृदयतटरूपी तालाबमें उत्पन्न हुए कमलकी बोंडियोंके समान मालूम होते थे अथवा चूचुकरूपी मुहरसे लांछित श्रृंगाररससे भरे हुए सुवर्णमय कलशोंके समान प्रतिभासित होते थे। वह जिस चरण और मुखसे सुशोभित थी वे दोनों ही शुभतर लाक्ष और अब्जमदनिर्मूलन निदान थे (चरण अत्यन्त शुभ महावरसे युक्त और कमलके गर्वको दूर करनेके प्रमुख कारण थे तथा मुख, शुभ और चंचल नेत्रोंसे २५ सहित तथा चन्द्रमाका मद दूर करनेका प्रमुख कारण था ) वह जिस केशकलाप और नाभिपुटसे अलंकृत थी वे दोनों ही भ्रमराजित थे-केशकलाप भ्रमरोंसे अपराजित था अर्थात् भ्रमरोंसे भी कहीं अधिक काला था और नाभिपुट भ्रम-जलकी भँवरके समान सुशोभित था। वह श्रीमती वर्षाकालकी लक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार वर्षाकालकी लक्ष्मी उल्लसद्धारपयोधरा-धारास्रावी मेघोंसे युक्त होती है उसी प्रकार वह श्रीमती भी ३० उल्लसद्धारपयोधरा-हारसे सुशोभित स्तनोंसे युक्त थी और वर्षाकालकी लक्ष्मी जिस प्रकार सज्जघनाभिरामा-सजल मेघोंसे रमणीय होती है उसी प्रकार वह श्रीमती भी सज्जघनाभिरामा-समीचीन नितम्बमण्डलसे सुशोभित थी। वह श्रीमती निद्राके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार निद्रा सकललोचनग्राहिणी-सबके नेत्रोंपर असर करनेवाली होती है उसी प्रकार वह श्रीमती भी सकललोचनग्राहिणी-अपनी सुन्दरतासे सबके ३५ नेत्रोंको वश करनेवाली थी। $११) कदाचिदिति-त्रिभुवनको वश करनेवाली सुवर्णलता स्वरूप यह सुलोचना श्रीमती किसी समय महलकी छतपर अत्यन्त कोमल रुईसे मृदुल तथा
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