Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 336
________________ -४१ ] कङ्कणायमानेन, सभालक्ष्मीमणिघटितकटिसूत्रसदृशेन, पञ्चरत्नपांसुमयेन, क्वचिज्जाज्वल्यमानपद्मरागप्रभामेदुरतया देवसद्ध्यानाग्निकोलकलापसंवलितेनेव, परत्र विमलतरमुक्ताकान्तिमनोरमतया तन्मुखचन्द्रचन्द्रिकाविभ्रमं वितन्वता, क्वचन पद्मरागेन्द्रनीलरुचिरुचिरतया देवापरागसात्कृतकामक्रोधांशसंश्रितेनेव परिशोभमानेन रजः श्रीविराजितेनापि नीरजश्रोविराजितेन, परागशोभितेनापि अपरागशोभितेन, घनाशामलकान्तिनाप्यघनाशामलकान्तिना धूलिसालेन परीतं चतुर्दिक्षु ५ शातकुम्भमयस्तम्भाग्रलम्बितमणिमयमकरतोरणरमणीयज्योतिरम र दोवारिकपरिपालितजातरूप मयगोपुराभ्यन्तरमहावीथिमध्यपरिशोभमानेन मूर्तिमुपगतेनेव भर्तुरनन्तचतुष्टयेन, पुरुषार्थं चतुष्टय अष्टमः स्तबकः २९७ - इन्द्रधनुस्तस्य शङ्काकरेण संदेहोत्पादकेन, मोक्षलक्ष्म्या मुक्तिश्रिया यो मणिमयकङ्कणस्तद्वदाचरता, सभालक्ष्म्या समवसरणश्रिया यत् मणिघटितं रत्नखचितं कटिसूत्रं मेखलासूत्रं तस्य सदृशेन, पञ्चरत्नपांसुमयेन पञ्चविधमणिधूलिनिर्मितेन, क्वचित् क्वापि जाज्वल्यमानानां देदीप्यमानानां पद्मरागाणां लोहितमणीनां प्रभाभिः १० कान्तिभिर्मेदुरतया मिलिततया देवस्य भगवतो यत् सद्ध्यानाग्निः प्रशस्तध्यानपावकस्तस्य कीलकलापो ज्वाला समूहस्तेन संवलितेनेव व्याप्तेनेव परत्र अन्यत्र विमलतरमुक्तानामतिनिर्मलमुक्ताफलानां कान्त्या दीप्त्या मनोरमतया मनोज्ञतया तन्मुखमेव भगवद्वदनमेव चन्द्रो विधुस्तस्य चन्द्रिकाया ज्योत्स्नाया विभ्रमं संदेहं वितन्वता विस्तारयता, क्वचन क्वापि पद्मरागेन्द्रनीलयोर्लोहितनी लमण्यो रुच्या कान्त्या रुचिरतया मनोहरतया देवेन भगवता परागसात्कृता धूल्यधीनीकृता ये कामक्रोधांशास्तैः संश्रितेनेव सेवितेनेव परिशोभमानेन १५ विराजमानेन, रजः श्रोविराजितेनापि धूलिश्रीविशोभितेनापि नीरजश्रीविराजितेन न धूलिश्री विराजितेनेति विरोधः पक्षे कमलश्री विराजितेन, परागशोभितेनापि धूलिशोभितेनापि अपरागशोभितेन अधूलिशोभितेनेति विरोधः पक्षे अपगतो रागो यस्य सोऽपरागो वीतरागो जिनेन्द्रस्तेन शोभितेन, घना आशा दिशस्तासु अमलकान्तिनापि तथा न भवतीति अघनाशामलकान्तिना इति विरोधः पक्षे अघनाशेन पापनाशेन अमला कान्तिर्यस्य तेन । चतुर्दिक्षु शातकुम्भमयस्तम्भानां सौवर्णस्तम्भानामग्रेषु लम्बिता ये मणिमयमकरतोरणास्तै २० रमणीयानि, ज्योतिरमरदीवारिकैज्र्ज्योतिष्क देवद्वारपालैः परिपालितानि रक्षितानि यानि जातरूपमयगोपुराणि सुवर्णमयगोपुराणि तेषामभ्यन्तरमहावीथीनां मध्ये परिशोभमानेन मूर्तिमाकृतिमुपगतेन प्राप्तेन भर्तुः For Private & Personal Use Only हजार सीढ़ियों से सुशोभित था तथा भुवनत्रयकी लक्ष्मीका मुख देखनेके लिए मणिमय दर्पण के समान आचरण करता था। वह समवसरण जिस धूलिसालसे घिरा हुआ था वह गोलाकार इन्द्रधनुषकी शंका कर रहा था, मोक्षलक्ष्मीके मणिमय कंकणके समान जान २५ पड़ता था, अथवा सभालक्ष्मी के मणिनिर्मित कटिसूत्र के समान था, पंचरत्नों की धूलिसे तन्मय था, कहीं पर देदीप्यमान पद्मरागमणियोंकी प्रभासे युक्त होनेके कारण ऐसा प्रतिभासित होता था, मानो भगवान् के प्रशस्त ध्यानरूपी अग्निकी ज्वालाओंके समूहसे ही व्याप्त हो रहा हो, कहीं निर्मल मोतियोंकी कान्तिसे मनोहर होनेके कारण भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमाकी चाँदनीके विभ्रमको विस्तृत कर रहा था, कहींपर पद्मराग और इन्द्रनील ३० मणियोंकी कान्तिसे सुन्दर होनेके कारण ऐसा जान पड़ता था मानो भगवान् के द्वारा धूलिके आधीन किये हुए काम और क्रोधके अंशोंसे ही सेवित हो रहा हो । रजःश्रीधूलिकी शोभासे शोभित होकर भी निरजश्री - धूलिकी शोभासे शोभित नहीं था ( पक्ष में कमलों जैसी शोभासे सुशोभित था ) परागशोभित - धूलिसे सुशोभित होकर भी अपरागशोभितधूलिसे सुशोभित नहीं था ( परिहार पक्ष में वीतराग भगवान् से सुशोभित था ) | घनाशामल - ३५ कान्ति - सघन दिशाओंमें निर्मल कान्तिका धारक होकर भी अघनाशामलकान्ति सघन दिशाओं में निर्मल कान्तिका धारक नहीं था ( परिहार पक्ष में पापोंके नाशसे निर्मल कान्तिको ३८ Jain Education International www.jainelibrary.org

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