Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 406
________________ -५४ ] दशमः स्तबकः ३६७ निवर्णनेन आदिक्षत्रान्वयविच्छेदिभूपालकत्वमकुलीनानां, काककलितोलूकसंबाधदर्शनेन कालान्तरे जनानां जैनधर्मपरिहारेण मतान्तराश्रयणं, नृत्यद्भूतनिरीक्षणेन प्रजानां देवतात्वेन व्यन्तरभजनं, शुष्कमध्यतटाकपर्यन्तजलावलोकनेन धर्मस्यायनिवासपरित्यागेन प्रत्यन्तवासिष्ववस्थानं, पांसुधूसरमणिगणदर्शनेन पञ्चमयुगे योगिनामृद्धयप्रादुर्भवनं, सत्कारसत्कृतसारमेयनिध्यानेन व्रतरहितानां द्विजानां पूजनं, तरुणवृषभविहारावलोकनेन तारुण्य एव श्रामण्येऽवस्थानं, परिवेषोपरक्तदोषाकर- ५ विलोकनेन कालान्तरीणानां मुनीनां समनःपर्ययावधेरजननम्, अन्योऽन्यं सह संभूय वृषयुगलगमनेक्षणेन मुनीनां साहचर्येण वर्तनं, जलधरावरणरुद्धदिवाकरनिरीक्षणेन पञ्चमयुगे प्रायः केवलज्ञाना मनुष्याणाम् असत्तिताख्यापनम असदाचारसचकम, मदेन मन्थरो मन्दगामी यः सिन्धरो गजस्तस्य कन्धरायां ग्रीवायामधिरूढो यः शाखामगो वानरस्तस्य निर्वर्णनेन विलोकनेन आदिक्षत्रान्वयविच्छेदि आद्यक्षत्रवंशविघातकम् अकुलोनानां नीचकुलानां भूपालकत्वं महीरक्षकत्वं, काकैर्वायसैः कलितो य उलूकसंबाधो धूकपीडनं १. तस्य संदर्शनेन कालान्तरे जनानां जैनधर्मपरिहारेण मतान्तराणां मिथ्याधर्माणामाश्रयणम्, नृत भूतनिरीक्षणेन प्रजानां लोकानां देवतात्वेन देवत्वबुद्धया व्यन्तरभजनम् व्यन्तराराधनं, शुष्कं मध्यं यस्य तथाभूतस्य तटाकस्य सरोवरस्य पर्यन्ते तटे जलावलोकनेन नीरदर्शनेन धर्मस्य आर्येषु निवासस्य परित्यागस्तेन प्रत्यन्तवासिषु समीपवासिषु अवस्थानं स्थितिः, पांसुधूसरस्य धूलिधूसरस्य मणिगणस्य रत्नराशेः दर्शनेन पञ्चमयुगे पञ्चमकाले योगिनां मुनीनाम् ऋद्धीनामप्रादुर्भवनमप्रकटनम्, सत्कारेण सत्कृतो यः सारमेयः कुक्कुरस्तस्य १५ निध्यानेन समवलोकनेन व्रतरहितानां द्विजानां पूजनं अवतिब्राह्मणसमर्थनम्, तरुणवृषभस्य विहारावलोकने परिभ्रमणदर्शनेन तारुण्य एव यौवन एव श्रामण्ये मुनित्वेऽवस्थान, परिवेषेण परिधिना रक्तो यो दोषाकरश्चन्द्रस्तस्य विलोकनेन कालान्तरीणानां पञ्चमकालभवानां मुनीनां समनःपर्ययावधेः अजननमनुत्पत्तिः, अन्योऽन्यं परस्परं सह साधू संभूय मिलित्वा वृषयुगलगमनेक्षणेन वलोवर्दयुगगमनावलोकने मुनीनां यतीनां साहचर्येण वर्तनं प्रवृत्तिः, जलधरावरणेन मेघावरणेन रुद्धो यो दिवाकरः सूर्यस्तस्य निरीक्षणेन पञ्चमयुगे प्रायः केवल- २० ज्ञानाजननं केवलज्ञानानुत्पत्तिः चतुर्थकालजानां पञ्चमकाले केवलज्ञानमुत्पद्यते पञ्चमकालजानां पञ्चमकाले सूखे पत्ते खानेवाले बकरोंके देखनेसे सूचित होता है कि मनुष्य सदाचारको छोड़कर असदाचारकी ख्याति करेंगे। मदसे मन्द-मन्द चलनेवाले हाथीके ऊपर बन्दरके देखनेसे प्रकट होता है कि आदिक्षत्रियवंशका नाश होगा तथा अकुलीन मनुष्य पृथिवीका पालन करेंगे। कौओंके द्वारा को हुई उलूकोंकी बाधाको देखकर सूचित होता है कि कालान्तरमें लोग २५ जैनधर्मको छोड़कर दूसरे धर्मोंका आश्रय ग्रहण करेंगे। नाचते हुए भूतके देखनेसे सूचित होता है कि प्रजा देवतारूपमें व्यन्तरोंकी सेवा करेंगे। जिसका मध्यभाग सूखा है तथा किनारोंपर पानी है ऐसे तालाबके देखनेसे प्रकट होता है कि धर्म, आर्यजनोंके निवासको छोड़कर समीपवर्ती लोगों में स्थित रहेगा। धूलिसे धूसर मणिसमूहको देखनेसे प्रकट होता है कि पंचमकालमें मुनियोंको ऋद्धियाँ प्रकट नहीं होंगी। सत्कारसे सत्कृत कुत्ताके देखनेसे ३० सूचित होता है कि व्रतरहित द्विजोंकी पूजा होगी। तरुण बैलके विहारको देखनेसे मालूम होता है कि तरुण अवस्थामें ही मुनिपद धारण किया जायेगा। परिधिसे उपरक्त चन्द्रमाके देखनेसे सूचित होता है कि कालान्तरके मुनियोंके मनःपर्यय तथा अवधिज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होगी। परस्पर मिलकर बैलोंकी जोड़ी जा रही है यह देखनेसे प्रकट होता है कि मुनि परस्परके सहयोगसे ही प्रवृत्ति कर सकेंगे। मेघके आवरणसे रुके हुए सूर्यके देखनेसे ३५ सिद्ध होता है कि पंचमकालमें प्रायः केवलज्ञानकी उत्पत्ति नहीं होगी। सूखे वृक्षके देखनेसे सूचित होता है कि पुरुष और स्त्री चारित्रसे च्युत हो जायेंगे। और जीर्ण पत्तोंके देखनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476