Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 427
________________ ३. पुरुदेवचम्पूप्रबन्धस्य पारिभाषिकशब्दानुक्रमणी [ शब्दोंके आगे दिये हुए तीन अंकोंमें पहला अंक स्तबक, दूसरा अंक श्लोक या साधारण संख्या तथा तीसरा अंक पृष्टका है। दूसरे अंकमें कोष्ठकके भीतरका अंक गद्यका है जो साधारण संख्याके अनुसार है। ] [अ] अन्न १०.(४२).३६४ अग्नित्रय १०.(६५).३७१ दश शुद्धियोंमें एक १. गार्हपत्याग्नि, २. दक्षिणाग्नि, अन्नप्राशन १०.(४२) ३६३ ३. आहवनीयाग्नि ये तीन अग्नियाँ गर्भान्वय क्रिया हैं । इनमें क्रमसे तीर्थंकर, गणधर अमिषेक १०.(४२).३६३ और सामान्य केवलियोंका अन्तिम गर्भान्वय क्रिया संस्कार होता है। अवतार १०.(४२).३६३ अग्रनिवृति १०.(४२).३६३ दीक्षान्वय क्रिया गर्भान्वय क्रिया अवध्यत्व १०.(४२).३६३ अणिमादिगुण १.९६.४३ दश अधिकारोंमें अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, एक अधिकार प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व अहत्परमेष्ठी ३.(९६).१३० अदण्ड्यत्व १०.(४२).३६३ दश अधिकारोंमें एक अधिकार अरहन्त, जिनेन्द्र, ज्ञानावरण, दर्श नावरण, मोह और अन्तराय इन अध्रुवादिद्वादशानुप्रेक्षा ८.(३५).२९३ चार घातिया कर्मोका क्षय करने१. अध्रुव, २. अशरण, ३. संसार, वाले जीव अरहन्त परमेष्ठी कहलाते ४. एकत्व, ५. अन्यत्व, ६. अशु हैं । इनके ४६ मूलगुण होते हैं । चित्व, ७. आस्रव, ८. संवर, ९. अहमिन्द्रनिर्जरा, १०. लोक, ११. बोधि ६.२२ २३३ सोलहवें स्वर्गके ऊपरके देव । दुर्लभ, १२. धर्म अतिबाल१०.(४२).३६३ अप्रत्याख्यानलोम ___३.(३६).१०९ दश अधिकारोंमें एक अधिकार लोभके चार भेद हैं-१. कृमिराग, अनन्तचतुष्टय ८.(४१).२९७ २. चक्रमल, ३. अङ्गमल, ४. अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन , अनन्तसुख हरिद्रा राग। यह चार प्रकार का और अनन्तवीर्य, ये चार अनन्त लोभ क्रम से नरकादि आयु के चतुष्टय कहलाते हैं। बन्ध का कारण है। अनुकम्पन-अनुकम्पा ३.३२.११७ अवधिज्ञान १.५२.२७ सम्यग्दर्शनका एक गुण, कर्मके इन्द्रियादि पर पदार्थों की सहायता तीव्रोदयसे विवश हुए जीवों पर के बिना मात्र आत्मा से होने वाला करुणाका भाव उत्पन्न होना। विशिष्ट ज्ञान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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