Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 451
________________ ५.(३९).२१० एकावलीतरलमणि ४१२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे आभुग्न१.(८५).३९ [ए] झुका हुआ आरमटी ४.(९५).१८० एक लड़के हारके नीचे लगा हआ नाटककी एक वृत्ति आस्थान-. बड़ा मध्यमणि ८.४६.३१८ ऐशवण समवसरण ४.(९१).१७८ आहिततनु देवोंका हाथी । यह हाथी विक्रियासे ३.२०.११० शरीरको धारण करनेवाला ३२ मुख बनाता है, प्रत्येक मुखमें ८-८ दाँत होते हैं, प्रत्येक दाँतपर [] सरोवर बनाता है, प्रत्येक सरोवरमें इन्दिन्दिर २.(७७).८० ३२-३२ पंखुड़ियोंवाला कमल भ्रमर बनाता है और प्रत्येक पाँखुड़ीपर ईर्याशुद्धि २.(१०५).९२ देवांगनाओंका नृत्य दिखाता है। मार्ग सम्बन्धी शुद्धि [क] [उ] कंकण २.(३५).६३ उच्चकरेणु ३.१.९७ जलके कण, हाथका कड़ा ऊँचे हाथी, ऊँची उड़नेवाली धूलि कंचुक ४.(५४).१६४ उच्चकोरकसंनिभ १.७१.४५ स्तनवस्त्र उत्कृष्ट चकोर पक्षीके समान, उन्नत कंचुकी ३.(१५).१०२ कोरक-कमलकी बोंडीके समान अन्तःपुरका वृद्ध पहरेदार, साँप उत्तमश्री ४.(५८).१६५ कण्ठीरवकण्ठरव ४.(४९).१७० उत्कृष्ट लक्ष्मी, उठते हए अन्धकार सिंहके कण्ठका शब्द की शोभा कथारसंज्ञाउदन्त १.(३१).१८ कथाके रसको जाननेवाली वृत्तान्त कनकयन्त्रधर २.(९).९३ उदण्डकाण्ड सोनेकी पिचकारीको धारण करनेऊपरकी ओर छलकता हुआ पानी, वाला लम्बे बाण, कनकशिखरी १.(४५).३३ उपनदण्ड ६.(७४).२४९ सुमेरुपर्वत आश्रयदण्ड कनकाचल २.(७७).८० उपत्यका १.(१३).९ सुमेरुपर्वत पर्वतके नीचेका मैदान कनकावली २.(५३).७० उल्लसद्धार २.(१०).५३ एक तप जिनपर हार सुशोभित है, जिनकी कनोयान् १.५४.३५ धारा सुशोभित है। छोटा उरु६.(१३).२२७ कन्तुक ४.(५४).१६४ विशाल काम ऊरु६.(१३).२२७ कबन्ध ५.(६).१९१ जाँच पानी, शिररहित धड़ १.९.५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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