Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 412
________________ ३७३ -७१ ] दशमः स्तबकः $ ७१ ) जयतां मृदुगम्भीरैर्वचनैः परिनिर्वृतेर्हेतुः । सुरसार्थसेवितपदः पुरुदेवस्तत्प्रबन्धश्च ॥५०॥ इत्यर्हदासकृतौ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे दशमः स्तबकः ॥१०॥ मित्यर्थः परमनिर्वृति मोक्षम् आपुः प्रापुः । द्रुतविलम्बितछन्दः ॥४९॥ ७१ ) जयतामिति-मृदुगभीरैः कोमलगभीरार्थसहितः । वचनैः परिनिवृतेः निर्वाणस्य हेतुः कारणं पक्षे संतोषस्य हेतुः सुरसार्थसे वितपदः। ५ सुराणां देवानां सार्थेन समूहेन सेविते पदे चरणो यस्य तथाभूतः, पक्षे.सुष्ठु रसार्थों सुरसार्थो ताभ्यां सेवितानि पदानि सुबन्ततिङन्तरूपाणि यस्मिन्सः पुरुदेवो वृषभजिनेन्द्रः तत्प्रबन्धश्च पुरुदेवचम्पुनामप्रबन्धश्च जयतां सर्वोत्कर्षेण वर्तताम् । आर्या ॥५०॥ इति श्रीमदहहासकृतेः पुरुदेवचम्पूप्रबन्धस्य 'वासन्ती'समाख्यायां संस्कृत व्याख्यायां दशमः स्तबक: समाप्तः ॥१०॥ आदि गणधर भी क्रमसे परमनिर्वाणको प्राप्त हुए ।।४९॥ ७१ ) जयतामिति-जो कोमल तथा गम्भीर वचनोंके द्वारा परम निर्वाणके कारण थे (पक्षमें परम सन्तोषका कारण था) तथा सुरसार्थसेवितपदः-देवोंके समूहसे जिनके चरण सेवित थे (पक्षमें जिसके शब्द-समूह उत्तम रस और अर्थसे सेवित थे ) ऐसे भगवान् पुरुदेव और उनका यह पुरुदेवचम्पू नामका प्रबन्ध सदा जयवन्त रहे ।।५०॥ इस प्रकार अर्हद्दासको कृति पुरुदेवचम्पू प्रबन्ध दसवाँ स्तबक समाप्त हुआ ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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