Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 409
________________ ३७० पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे (१०६६१$ ६१ ) माघे मासि चतुर्दशीदिनवरे सूर्योदये श्रीपति लग्ने चाभिजिति प्रतीतसुगुणे पक्षे वलक्षेतरे । पल्यङ्कासनमास्थितः स भगवान् प्राग्दिङ्मुखः सर्ववित् मुक्तिश्रीकरपीडनाय सहसा संनद्ध एष स्थितः॥४३॥ ६६२) अयं खलु भगवांस्तृतीयशुक्लध्यानविध्वस्ताघातिकर्मचतुष्टयः समधिष्ठितायोगि___केवलगुणस्थानो व्यपगतशरीरत्रयः सिद्धत्वपर्यायं गुणाष्टकजुष्टमश्नुवानः क्षणाप्ततनुवातः परमोदारिकदिव्यदेहात्किचिदूनपरिमाणो नित्यनिरञ्जनरूपः सर्वदा विश्वं पश्यन्सुखमासामास । ६ ६३ ) अथ झटिति चिकोर्धर्मोक्षकल्याणपूजां परमपुरुजिनेन्दोर्दैवतानां निकायः। इदममलशरीरं भर्तुरस्येति तोषा न्मणिमयशिविकायामपंयामास साधु ।।४४।। हरिणीछन्दः ॥४२॥ ६६०) तदानीमिति-सुगमम् । $1) माघे मासीति-माघे मासि माघमासे वलक्षेतरे कृष्ण पक्षे चतुर्दशीदिनवरे चतुर्दश्यां श्रेष्ठतिथो सूर्योदये प्रातलायां प्रतीता प्रसिद्धाः सुगुणा यस्य तस्मिन् प्रसिद्धसगणयुक्त अभिजिति तन्नामनि लग्ने पल्यङ्कासनं पद्मासनं यथा स्मात्तथा आस्थित आसीनः प्रागदिङ्मुखः १५ पूर्वाशाभिमुखः श्रीपतिरनन्तचतुष्टयलक्ष्मीयुक्तः स एष भगवान् पुरुदेवः मुक्तिश्रीकरपीडनाय मुक्तिलक्ष्मी विवाहाय सहसा संनद्धस्तत्परः स्थितः। शार्दूलविक्रीडितछन्दः ॥४३॥ १२) अयमिति-तृतीयशुक्लध्यानं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिनामधेयं, व्यपगतं नष्टं शरीरत्रयम् औदारिकतैजसकार्मणनामधेयं यस्य तथाभूतः गुणाष्टकजुष्टं सम्यक्त्वादिगुणाष्टकेन जुष्टं सहितं, शेषं सुगमम् । ६६३ ) अथेति-अथानन्तरं झटिति शीघ्रं परम पुरुषजिनेन्दोः वृषभजिनचन्द्रस्य मोक्षकल्याणपूजां निर्वाणकल्पाणकसपर्या चिकीर्षुः कर्तुमिच्छु: देवतानां २० निकायः भवनव्यन्तरज्योतिष्ककल्पामरसमूहः, इदम् अमलशरोरं निर्मलशरीरम् अस्य भर्तुभंगवतोऽस्तीति तोषात् साधु यथा स्यात्तथा मणिमयशिविकायां रत्नरचितचतुरन्तयाने अर्पयामास स्थापयामास । मालिनी करता रहा । ६ ६१) माघे मासोति-तदनन्तर माघमासके कृष्ण पक्ष सम्बन्धी चतुर्दशीके दिन सूर्योदयके समय प्रसिद्ध उत्तम गुणोंसे सहित अभिजित् नामक लग्नमें अनन्त चतुष्टय रूपी लक्ष्मीके स्वामी वे सर्वज्ञ भगवान् पूर्व की ओर मुख कर पद्मासनसे ऐसे विराजमान हो २५ गये मानो मुक्तिरूपी लक्ष्मीके साथ विवाह करनेके लिए शीघ्र ही तैयार होकर बैठे हों ॥४३॥ ६६२ ) अयमिति-तृतीय शुक्लध्यानके द्वारा जो चार अघाति कर्मोका नाश कर अयोग केवली नामक चौदहवें गुणस्थानको प्राप्त हुए थे, जिनके औदारिक, तैजस और कार्मण ये तीनों शरीर नष्ट हो गये थे, जो आठ गुणोंसे सहित सिद्धत्व पर्यायको प्राप्त हुए थे, क्षणभरमें जिन्होंने तनुवात वलयको प्राप्त कर लिया था, जो परमौदारिक नामक दिव्य शरीरसे कुछ ३. कम परिमाणसे युक्त थे, नित्य निरंजनरूप थे और सदा विश्वको देख रहे थे इस प्रकार वे वृषभ जिनेन्द्र सुखसे वहाँ विराजमान थे। $ ६३ ) अथेति-तदनन्तर शीघ्र ही परम पुरुष जिनेन्द्र चन्द्रके मोक्ष कल्याणकी पूजा करनेकी इच्छा करता हुआ देवोंका समूह आया। उसने यह भगवान्का निर्मल शरीर है इस प्रकारका सन्तोष होनेसे उसे अच्छी तरह मणिमय पालकीमें विराजमान किया । विशेष-यद्यपि भगवान्का परमौदारिक शरीर मोक्ष प्राप्त होते १५ ही कपूर की तरह उड़ जाता है तथापि अन्तिम संस्कार करनेके लिए देव एक कृत्रिम शरीर बनाकर उसे भगवान्का ही निर्मल शरीर समझ आदरपूर्वक मणिमय पालकी में विराजमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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