Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 345
________________ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ८1९५४तयाअधुना तु भगवतः पादस्पर्शनक्षमसिंहासनरूपेण च सेवां विधाय, विहाय च सुरासक्ति, दोषाकरसंसर्गमनुदिनं पङ्कजातसहचरतया भ्राम्यतः स्वयं वसुमतोऽपि सद्वृन्दवसुमोषकस्य, भूमौ वर्तमानानां स्वर्णस्थिति करेरपहरतः, तथा चरमाचलयोगं प्राप्तस्यापि पूर्वाशावशेन महोदयभूभृत्सेवां कुर्वतो जडबन्धोः सख्यं च परिहृत्य सकलभूधरश्रेष्ठतां कल्याणसंपदा जातरूपधरत्वेन भगवतः ५ प्राप्तुं कृतादरतया, यद्वा महाबलभवप्रभृतिषु संजातः समुत्पन्नो यः प्रणयः स्नेहस्तेन नूनमित्युत्प्रेक्षायां आकाशस्फटिकघटितश्चासौ तत्सालश्चेत्याकाशस्फटिकघटिततत्सालस्तस्यात्मना तद्रपेण समजायत समुदपद्यत । यदि वा अथवा उत्प्रेक्षणान्तरमाह-सुमेरुहि मेरुः खलु पुरा प्राक् जन्मवेलायां जन्माभिषेकस्य अधिकरणतया आधारत्वेन अधुना तु ज्ञानकल्याणकावसरे भगवतो वृषभस्य पादस्पर्शने चरणस्पर्शने क्षमं समर्थ यत्सिहासनं तस्य रूपेण च सेवां विधाय कृत्वा, सुरासक्ति सुरेषु देवेषु आसक्तिस्तां पक्षे सुरायां मदिरायामा१० सक्तिस्तां दोषाकरसंसर्ग च दोषाकरस्य चन्द्रस्य संसर्गस्तं पक्षे दोषाणामवगुणानामाकरः खनिस्तस्य संसर्ग च विहाय त्यक्त्वा, अनुदिनं प्रतिदिवसं पङ्कजातसहचरतया कमलमित्रतया पक्षे पापसमूहसहगामितया, भ्राम्यतो भ्रमणं कुर्वतः, स्वयं वसुमतोऽपि धनवतोऽपि सद्वन्दवसुमोषकस्य सज्जनसमूहधनापहारकस्य पक्षे स्वयं किरणवतोऽपि सद्वन्दस्य नक्षत्रसमूहस्य वसुमोषकः किरणापहारकस्तस्य, भूमो पृथिव्यां वर्तमानानां भूमिष्ठ जनानां स्वर्णस्थिति काञ्चनसद्भावं करै राजस्वैः अपहरतः पक्षे भूमिष्ठपदार्थानां स्वर्णस्थिति जलस्थिति १५ करैः किरणः अपहरतः, तथा चरमाचलयोग अन्तिमाविनश्वरोपायं प्राप्तस्यापि 'योगः संनहनोपायध्यानसंगति युक्तिषु' इत्यमरः पूर्वाशावशेन प्राक्कालिकतृष्णावशेन महोदया महाभ्युदययुक्ता ये भूभृतो राजानस्तेषां सेवां शुश्रूषां कुर्वतः पक्षे अस्ताचलसंगं प्राप्तस्यापि पूर्वाशावशेन पूर्वदिशानिध्नत्वेन महांश्चासौ उदयभूभृच्चेति महाभ्युदयभूभृत् महोदयाचलस्तस्य सेवां कुर्वतो कुनृपतेः विशेषणासाम्यात् सूर्यस्य, जडबन्धोः मूर्खबन्धोः पक्षे अजलबन्धोः जलशत्रोः सख्यं मैत्री च परिहृत्य त्यक्त्वा सकलभूधरश्रेष्ठतां सकलपर्वतश्रेष्ठतां सकलनृपतिश्रेष्ठतां २० पर्वतके उस रूप होनेमें कारण यह था कि वह अभी दुर्वर्णधर इस दूसरे नामसे प्रसिद्ध है अर्थात् हीन वर्णको धारण करनेवाला कहलाता है अतः इस अपमानजनक नामको वह छोड़ना चाहता था और उत्तमवर्णको सेव्यताको प्राप्त करनेके लिए आदरशील था (पक्षमें दुर्वर्णधरका अर्थ चाँदीका पर्वत और उत्तमका अर्थ उत्कृष्टरूप ग्रहण करना चाहिए ) अथवा उस विजया पर्वतका भगवान्के महाबल आदि भवोंमें स्नेह था इसीलिए वह प्राकार बन २५ गया था। अथवा उस विजया पर्वतने यह विचार किया कि सुमेरु पर्वतने पहले जन्माभि षेकका आधार बनकर और वर्तमानमें उनके चरणोंका स्पर्श करने में समर्थ सिंहासन बनकर भगवानकी सेवा की है तथा सुरासक्ति-मदिराकी आसक्ति ( पक्ष में देवोंकी आसक्ति और दोषाकर-अवगुणोंकी खान स्वरूप दुष्टजनोंकी संगति (पक्षमें निशाकर-चन्द्रमाकी संगति) को छोड़कर उस दुष्टराजाकी (पक्षमें सूर्यकी) मित्रताका परित्याग किया है जो प्रतिदिन पंकजात-पापसमूहका सहगामी होनेसे (पक्ष में कमलोंका मित्र होनेसे ) भ्रमण करता रहता है, स्वयं वसुमान्-धनवान् होकर भी सवृन्दवसुमोषक-सज्जन समूहके धनको चुरानेवाला है, ( पक्ष में स्वयं किरणोंसे सहित होकर भी सद्वृन्दवसुमोषक-नक्षत्रसमूहकी किरणोंका अपहरण करनेवाला है), पृथिवीपर रहनेवाले लोगोंके स्वर्णकी स्थितिका टक्सोंके द्वारा अपहरण करता रहता है (पक्ष में अपनी किरणोंके द्वारा भूमिपर स्थित वस्तुओं३५ की जलकी स्थितिका अपहरण करता रहता है ), तथा चरमाचलयोग धन प्राप्तिके अन्तिम एवं अविनाशी उपायको प्राप्त होकर भी पूर्वाशा-पहलेकी तृष्णाके वशसे महोदय भूभृत्बहुत भारी अभ्युदयसे युक्त राजाकी सेवा करता है ( पक्षमें चरमाचलयोग-अस्ताचलके संगको प्राप्त होकर भी अर्थात् अस्त होकर भी पूर्वाशा-पूर्वदिशाके वशसे महोदयभूभृत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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