Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 386
________________ -५९ ] नवमः स्तबकः ३४७ नाभ्यां नमिविनमिभ्यां विद्याधरपतिभ्यां प्रार्थितो मदनमोहनमन्त्रदेवतानिभां मूर्तिमती सुभद्रानाम सुदतीं नमः स्वसारमुद्वाह्य परमानन्दनिर्भरस्तावदागतेन कृतकृत्येन सेनाधिपेन सह खण्डप्रपाताख्यां गुहां पूर्ववद् व्यतीत्य नाट्यमालनामधेयेन सुरवरेण पूजितो भरतराजः क्रमेण कैलासधराधरोपान्ते सेनां निवेशयामास । ६५८) तत्रास्थानं विगाह्य त्रिभुवनरमणं शुद्धधीरचयित्वा नुत्वा नत्वा च भूयस्तट निकटगतैः सैनिकैः संपरीतः। षट्खण्डानां विजेता भरतनरपतिः किन्नरैर्गीयमान। ___ स्फारप्रागल्भ्यकोर्तिनिजपुरगमने संमुखः संप्रतस्थे ॥३७।। $ ५९ ) ततः कतिपयैरिव प्रयाणैश्चक्रिणो बलम् । अयोध्यां प्रापदाबद्धतोरणां चित्रकेतनाम् ॥३८।। इत्यहदासकृतौ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे नवमः स्तबकः ॥९॥ तथाभूतः सन् । शेषं सुगमम् । ६५८) तति-तत्र कैलासघराघरे मास्थानं समवसरणं विगाह्य त्रिभुवनरमणं त्रिलोकीनाथं वृषभजिनेन्द्रम् अर्चयित्वा पूजयित्वा नुत्वा स्तुत्वा नत्वा च नमस्कृत्य च भूयस्तदनन्तरं तटनिकटगतैस्तटाभ्यर्णप्राप्तः सैनिकः संपरीतः शद्धधीः षटखण्डानां विजेता किन्नरैः गीयमानः स्फारे विशाले प्रागल्भ्यकीर्ती गाम्भीर्ययशसी यस्य तथाभूतो भरतनरपतिः निजपुरगमने संमुखः सन् संप्रतस्थे प्रययो। १५ स्रग्धराछन्दः ॥३७॥ $ ५९) तत इति-सुगमम् ॥३८॥ इत्यहदासकृतेः पुरुदेवचम्पूप्रबन्धस्य 'वासन्ती'समाख्यायां संस्कृतव्याख्यायां नवमः स्तबकः समाप्तः ॥९॥ विनमिने नाना प्रकारकी भेंट के साथ आकर प्रार्थना की जिससे कामदेवके मोहन मन्त्रकी मूर्तिमती देवीके समान सुन्दर दाँतों वाली नमिकी बहन सुभद्राके साथ विवाह किया। २० पश्चात् परम आनन्दसे भरे हुए भरतेश्वर, तब तक कृतकृत्य होकर आये हुए सेनापतिके साथ खण्डप्रपात नामकी गुहाको पूर्वकी तरह व्यतीत कर नाट्यमाल नामक देवके द्वारा पूजित होते हुए आगे बढ़े तथा क्रम-क्रमसे चलकर उन्होंने कैलास पर्वतके समीप सेना ठहरायी । ६५८) तत्रेति--वहाँ शुद्ध बुद्धिके धारक भरतेश्वरने समवसरणमें प्रवेश कर त्रिभुवनपति वृषभजिनेन्द्रकी पूजा की, स्तुति की, उन्हें नमस्कार किया तदनन्तर तट निकट स्थित २५ सैनिकोंसे परिवृत हो षट्खण्डके विजेता तथा अत्यधिक गाम्भीर्य और कीर्तिके धारक भरत महाराजने अपने नगरकी ओर प्रस्थान किया। उस समय किन्नर देव उनका यशोगान कर रहे थे ॥३७॥ ६ ५९ ) तत इति--तदनन्तर चक्रवर्तीकी वह सेना कुछ ही पड़ावों द्वारा जिसमें तोरण बाँधे गये थे तथा नाना प्रकारकी ध्वजाएँ फहरायी गयी थीं ऐसी अयोध्या नगरीको प्राप्त हो गयी ॥३८॥ इस प्रकार श्रीमान् अर्हहास कवि द्वारा रचित पुरुदेव चम्पू प्रबन्धमें नौवाँ स्तबक समाप्त हुआ ॥९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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