Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 397
________________ ३५८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [१०६२६ $ २६ ) दृष्टिं धीरतरां निमेषरहितां व्यातन्वता दोर्बलि क्षोणीशेन जितेऽत्र दृष्टिसमरे पत्यौ निधीनां क्षणात् । उद्वेलस्य बलार्णवस्य विपुलं कोलाहलं वारयन् पृथ्वीपालगणः कनीयसि जयश्रीभावमाघोषयत् ॥१८॥ ५ २७ ) सरसीजलमागाढौ जलयुद्धमदोद्धतौ। दिग्गजाविव तो दीर्घात्युक्षामासतुर्भुजैः ॥१९॥ $२८ ) तदा किल भुजबलियुवा जयश्रीदृढालिङ्गितनिजभुजवंशयुगलनिर्गलितमौक्तिकनिकरैरथवा निजभुजनियालिङ्गितजयलक्ष्मीवक्षःस्थलत्रुटितोत्क्षिप्तहारमणिभिर्यद्वा बलोत्कृष्ट प्रवेष्टप्रासादमधिरूढायाः पराक्रमलक्ष्म्या अट्टहासकान्तिलवेराहोस्विन्नखचन्द्रनिर्गलितसुधाशीकरैरिव १. उभयोर्भरतबाहुबलिनोः सकाशगतागतायासं समीपगमनागमनखेदं वजन्ती जयश्रीविजयलक्ष्मीः तटद्वये उद्धा सिताः शोभिता ये शाद्वला हरितघासास्तेषामाशया तृष्णया यद गतागतं गमनागमनं तेनायासिता खेदं प्रापिता गौरिव धेनुरिव अभूत् । उपमा । उपेन्द्रवज्राछन्दः ॥१७॥ $२६ ) दृष्टिमिति-अत्र दृष्टिसमरे दृष्टियुद्धे निमेषरहितां पक्षमपातशन्यां धीरतरामतिधोरां दष्टि दशं व्यातन्वता विस्तारयता दोबलिक्षोणीशे पालेन निधीनां पत्यो चक्रवर्तिनि क्षणादल्पेनैव कालेन जिते पराजिते सति उद्वेलस्य कल्लोलितस्य बलार्णवस्य १५ सैन्यसागरस्य विपुलं महान्तं कोलाहलं वारयन् निषेधयन् पृथ्वीपालगणो राजसमूहः कनीयसि लघीयसि दोर्बलिनीति यावत् जयश्रीभाव विजयलक्षम्यनुरागम् अघोषयत् घोषितं चकार । शार्दूलविक्रीडितम् ॥१८॥ २७) सरसीति-सरस्या जलं सरसीजलं कासारसलिलम् आगाढी प्रविष्टौ जलयुद्धमदेन नीरसमरगणोद्धती समुत्कटो दिग्गजाविव काष्ठाकरिणाविव दीर्घरायतैः भुजैः व्यात्युक्षामासतुः जलोच्छालनं चक्रतुः ॥१९॥ २८) तदेति-तदा किल जलयुद्धकाले भुजबलियुवा बाहुबलियुवा जलच्छटाशीकरैः जलच्छटाम्बुकणैः २० चक्रधरम् अवाकिरत् अवक्षिप्तमकरोत् । अथ कथंभूतैर्जलच्छटाशीकरैरित्याह-जयश्रिया विजयलक्ष्म्या दृढालिङ्गितात् निजभुजवंशयुगलात् स्वबाहुवेणुयुग्मात् गलितानि निःसृतानि यानि मौक्तिकानि तेषां निकराः समूहास्तैः, अथवा निजभुजाम्यां निर्दयं यथा स्यात्तथालिङ्गितं समाश्लिष्टं यद् जयलक्ष्म्या विजयश्रिया वक्षःस्थलं तस्मादादौ त्रुटिताः पश्चादुत्क्षिप्ताः पतिता ये हारमणयस्तैः, यद्वा बलोत्कृष्टः पराक्रमश्रेष्ठो यः प्रवेष्टो भुज एव प्रासादो भवनं तम् अधिरूढाया अधिष्ठितायाः पराक्रमलक्ष्म्या वीर्यश्रिया अट्टहासस्य कान्तिलवा दीप्तिकणास्तैः, २५ खेदका अनुभव करती हुई विजयलक्ष्मी दोनों तटोंपर सुशोभित हरी घासकी आशासे जाने आनेके द्वारा खेदको प्राप्त गायके समान हुई थी ॥१७॥ $२६) दृष्टिमिति-इस दृष्टियुद्धमें टिमकाररहित अत्यन्त धीरदृष्टिको विस्तृत करनेवाले राजा बाहुबलीके द्वारा चक्रवर्ती क्षण भरमें जीत लिये गये अतः लहराते हुए सेनारूपी समुद्र के बहुत भारी कोलाहलको शान्त करते हुए राजाओंके समूहने छोटे भाई बाहुबलीको विजयलक्ष्मी प्राप्त हुई है यह घोषणा की ३० ॥१८॥ २७) सरसीति-तदनन्तर जलयुद्धके मदसे उद्धत हुए दोनों दिग्गजोंके समान तालाबके जलमें प्रविष्ट हुए और लम्बी-लम्बी भुजाओंसे एक दूसरेपर जल उछालने लगे ॥१९॥ ६२८) तदेति-उस समय तरुण बाहुबली जलधाराओंके उन जलकणोंसे चक्रवर्तीको व्याप्त करने लगे जो विजयलक्ष्मीके द्वारा अत्यन्त दृढ़ रूपसे आलिंगित अपने भुजरूपी बाँसोंके युगलसे निकले हुए मोतियों के समूह के समान जान पड़ते थे, अथवा अपनी ३५ भुजाओंके द्वारा निर्दयतापूर्वक आलिंगित विजयलक्ष्मीके वक्षःस्थलसे टूट कर बिखरे हुए हारके मणि ही हों, अथवा बलसे उत्कृष्ट भुजरूप महलपर आरूढ पराक्रमरूपी लक्ष्मीके अट्टहासकी कान्तिके कण ही हों, अथवा नखरूपी चन्द्रमासे निकली हुई सुधाके कणोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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