Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 402
________________ - ४२ दशमः स्तबकः मना राजराजो हरिताङ्करपुष्पफलादिभिः कृतोपहारे नृपमन्दिराराजिरे प्रवेशाप्रवेशाभ्यां पौरजानपदानां व्रताव्रते विविच्य निश्चित्य च तन्निमित्तमापृष्टानां तत्राप्रविष्टानां प्रतिवचनेन सादरं तानिमान् दृढव्रतानभिनन्द्य संयोज्य च पद्मनिधिहीतैब्रह्मसूत्रः, संपूज्य च दानमानादिभिरुपासकसूत्रप्रतिपादितानि इज्यावार्तादत्तिस्वाध्यायसंयमतपोरूपाणि षट्कर्माण्याधानप्रीतिसुप्रीतिधृतिमोदप्रियोद्भवनामकर्मबहिर्याननिषद्यान्नप्राशनव्युष्टिकेशवापलिपिसंख्यानसंग्रहोपनयनवतचर्याव्रता - ५ वतरणविवाहवर्णलाभकुलचर्यागृहोशित्वप्रशान्तिगृहत्यागदीक्षाद्यजिनरूपतामौनाध्ययनवृत्तितीर्थकर - स्वभावनागुरुस्थानाभ्युपगमगणोपग्रहणस्वगुरुस्थानसंक्रान्तिनिःसङ्गत्वात्मभावनायोगनिर्वाणसंप्राप्ति - योगनिर्वाणसाधनेन्द्रोपपादाभिषेकविधिदानसुखोदयेन्द्रत्यागावतारहिरण्योत्कृष्टजन्मतामन्दराभिषेकगुरुपूजोपलम्भनयौवराज्यस्वराज्यचक्रलाभदिग्जयचक्राभिषेकसाम्राज्यपरिनिष्क्रमणयोगसन्महार्हा . न्त्यश्रीविहारयोगत्यागाग्रनिर्वृतिरूपास्त्रिपञ्चाशद्गर्भान्वयक्रियास्तथा-अवतारवृत्तलाभस्थानलाभ - १० गणग्रहणपूजाराध्यपुण्ययज्ञदृढचर्योपयोगित्वपूर्वोक्तोपनयनादिरूपा अष्टचत्वारिंशद्दोक्षान्वयक्रियाः, सज्जातिसद्गृहित्वपारिवाज्यसुरेन्द्रत्वसाम्राज्यपरमार्हन्त्यपरमनिर्वाणरूपाः सप्तकर्जन्वयक्रियास्तथातिबालविद्याकुलावधिवर्गोतमत्वपात्रत्वसृष्टयधिकारव्यवहारेशित्वावध्यत्वमानार्हत्वादण्डत्वप्रजा - गृहस्थोंको धन-धान्य आदिके द्वारा सन्तुष्ट करना चाहिए। मनमें ऐसा विचार कर उन्होंने गृहस्थोंके व्रत और अव्रतकी परीक्षा करनेके लिए राजमन्दिरके अंगणको हरे अंकुर पुष्प १५ तथा फल आदिसे सजा दिया। ऐसे सजे हुए अंगणमें जो प्रवेश करेंगे वे अव्रती और जो प्रवेश नहीं करेंगे वे व्रती, इस तरह उनके भेद करनेका निश्चय किया। निश्चयानुसार राजमन्दिरके अंगणको उन्होंने उक्त प्रकारसे सजाकर नगरवासी तथा देशवासी लोगोंको आमन्त्रित किया । कुछ लोगोंने उक्त प्रकारसे सजे हुए आँगनमें प्रवेश नहीं किया जब उनसे प्रवेश न करनेका कारण पूछा गया तो उन्होंने जो उत्तर दिया उससे भरतेश्वरने उन्हें २० अपने व्रतमें दृढ रहनेवाला समझ बड़े आदरके साथ उनका अभिनन्दन किया तथा उन्हें पद्मनिधिसे प्राप्त ब्रह्मसूत्र-यज्ञोपवीतसे युक्त किया, दान-मान आदिके द्वारा उनकी पूजा की तथा उन्हें उपासकाध्ययन सूत्र में प्रतिपादित इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छह कर्मोंका तथा आघात, प्रोति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रियोद्भव, नामकर्म, बहिर्यान, निषद्या, अन्नप्राशन, व्युष्टि, केशवाप, लिपिसंख्यान, संग्रह, उपनयन, व्रतचर्या, व्रतावतरण, २५ विवाह, वर्णलाभ, कुलचर्या, गृहीशित्व, प्रशान्ति, गृहत्याग, दीक्षाद्य, जिनरूपता, मौनाध्ययनवृत्ति, तीर्थकरत्वभावना, गुरुस्थानाभ्युपगम, गणोपग्रहण, स्वगुरुस्थानसंक्रान्ति, निःसंगत्वात्मभावना, योगनिर्वाणसम्प्राप्ति, योगनिर्वाणसाधन, इन्द्रोपपाद, अभिषेक, विधिदान, सुखोदय, इन्द्रत्याग, अवतार, हिरण्योत्कृष्टजन्मता, मन्दराभिषेक, गुरुपूजोपलम्भन, यौवराज्य, स्वराज्य, चक्रलाभ, दिग्विजय, चक्राभिषेक, साम्राज्य, परिनिष्क्रमण, ३० योगसन्मह, आर्हन्त्यश्री, विहार, योगत्याग और अग्रनिर्वृति रूप त्रेपन गर्भान्वय क्रियाओंका, तथा अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगित्व तथा पहले कही हुई उपनयन आदि चालीस इस प्रकार अड़तालीस दीक्षान्वय क्रियाओंका, सज्जाति, सद्गृहीत्व, पारिव्रज्य, सुरेन्द्रत्व, साम्राज्य, परमार्हन्त्य और परम निर्वाणरूप सात कर्मान्वय क्रियाओंका, तथा अतिबाल, विद्याकुलावधि, ३५ वर्णोत्तमत्व, पात्रत्व, सृष्टयधिकार, व्यवहारेशित्व, अवध्यत्व, मानाईत्व, अदण्ड्यत्व और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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