Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 385
________________ ३४६ पुरुदेव चम्पूप्रबन्धे $ ५४ ) तत्रत्यदेवस्त्वरितं समागाद् द्रष्टुं तदा मागधवद्विनीतः । चक्री च तं देवमुदारवाचं संमान्य हर्षाद् विससर्ज भूयः ||३५|| § ५५) तदनु प्रत्यावृत्य सेनया सह समासाद्य वृषभाद्रि पुञ्जीभूत इव स्वयशोमण्डले तस्मिन् गिरौ स्वनामाक्षराणि प्रकटयितुकामस्तत्रत्यानि राजसहस्रनामाक्षराणि विलोक्य गर्वक्षतिविक्षतां ५ चापन्नः, कस्यचिद्राज्ञो नामाक्षराणि निरस्य विलिखितनिस्तुलनिजप्रशस्तिः 'सर्वः स्वार्थपरो लोकः ' इति लोकप्रवादं सार्थक्यमावादयामास । ३० ५६) भूयः प्रोत्साहितो देवैर्जयोद्योगमनूनयन् । गङ्गापातमभीयाय व्याहूत इव तत्स्वनैः ||३६|| $ ५७ ) तत्र किल गङ्गाजलावर्तनविलोकन विविधकौतुकेन वीक्षमाणो गङ्गादेव्या पूजि - १० तश्चक्रधरः पृतनया समं निवृत्य प्राप्तविजयार्धाचलकटकनिकटः, पूर्ववद्गुहाद्वारपाटनाय प्राच्यखण्डविजयाय सेनान्यमादिश्य तत्र षण्मासान्सुखेन रममाणः, तदा समागताभ्यां पुरस्कृतविचित्रोपाय [31548 § ५४ ) तन्नत्येति — तदा तस्मिन्समये तत्र भवस्तत्रत्यः स चासो देवश्चेति तत्रत्यदेवः मागधवत् लवणसमुद्राविपतिमागधदेववत् विनीतः नम्रः सन् त्वरितं शीघ्रं द्रष्टुं समागात् समायातः । चक्री च भरतेश्वरश्च उदारवाचं समुत्कृष्टगिरं तं देवं हर्षात् संमान्य सत्कृत्य भूयो विससर्ज विसृष्टं विदधौ । उपजातिछन्दः ॥३५॥ १५ 8 ५५ ) तदन्विति - सुगमम् । ९५६ ) भूय इति - देवैरमरैः भूयः पुनरपि प्रोत्साहितो वर्धमानोत्सवो Jain Education International भरते जयोद्योगं विजयप्रयासम् अनूनयन् ऊनं न करोतीति अनूनयन् तत्स्वनैः तदीयशब्देः व्याहूतः आकारित इव गङ्गापातं यत्र हिमवतो गङ्गा प्रपतति तत्र अभीयाय अभिजगाम । उत्प्रेक्षा ॥ ३६ ॥ ६५७ ) तत्रेति - तत्र किल गङ्गाजलावर्तनविलोकनस्य यद् विविधं नानाप्रकारं कौतुकं कुतूहलं तेन वीक्षमाणो विलोकयन् गङ्गादेव्या पूजितः समचितः चक्रधरः पृतनया सेनया समं निवृत्य प्राप्तो विजयार्घाचलकटकनिकटो येन २० प्रदान किया । तदनन्तर कितने ही पड़ावों द्वारा हिमवत्कूटके निकट पहुँच कर उन्होंने पुरोहितको आगे कर उपवास किया, पवित्र शय्यापर शयन किया, दिव्य शस्त्रोंकी पूजा कर हाथ में वज्राण्ड नामका धनुष लिया और हिमवत्कूटको लक्ष्य कर देवोपनीत अमोघ बाण चढ़ाया। $ ५४ ) तत्रत्येति -- उसी समय वहाँका देव मागध देवके समान नम्र हो दर्शन करनेके लिए शीघ्र ही आया । उत्कृष्ट वचन कहनेवाले उस देवका हर्षपूर्वक सम्मान २५ कर चक्रवर्तीने उसे विदा किया ||३५|| १५५ ) तदन्विति -- तदनन्तर सेनाके साथ लौटकर वृषभाचलपर आये । इकट्ठे हुए अपने यशके समूह के समान उस वृषभाचलपर अपने नाम के अक्षर अंकित करनेकी इच्छा करते हुए ज्योंही उन्होंने उसपर अंकित हजारों राजाओंके नाम सम्बन्धी अक्षर देखे त्यों ही गर्वके नष्ट हो जानेसे लज्जाको प्राप्त हो गये । तदनन्तर किसी राजाके नामाक्षरोंको मिटाकर अपनी अनुपम प्रशस्ति लिखाते हुए उन्होंने 'सभी लोग स्वार्थ में तत्पर हैं' इस लोकोक्तिको सार्थकता प्राप्त करायी ।। ९५६) भूय इति -- देवोंके द्वारा जिनका पुनः उत्साह बढ़ाया गया था ऐसे भरतेश्वर विजयके उद्योगको कम न करते उसके शब्दोंसे बुलाये गये के समान गंगापातके सम्मुख गये || ३६ || $५७ ) तत्रेति -- वहाँ गंगाजल के आवर्त रूप भ्रमणके देखने सम्बन्धी कुतूहलसे देखनेवाले चक्रवर्ती भरतकी गंगादेवीने पूजा की । तदनन्तर वे सेनाके साथ वहाँसे लौटकर विजयार्ध पर्वतके निकट ३५ आये, पहले की तरह गुहाद्वारको तोड़ने और प्राच्यखण्डकी विजयके लिए सेनापतिको आदेश देकर वहाँ छह मास तक सुखसे क्रीडा करते रहे । उसी समय विद्याधरोंके राजा नमि और हुए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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