Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 359
________________ ३२० पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ८७४पुरस्तात् पृष्ठतश्च व्योमतलविन्यस्तसप्तसप्तहेमाम्बुजरुचिरञ्जितचरणयुगलतया विजितेन रागमल्लेन भयादुपाश्रितपद इव नभःस्थले कलितयानः सकलजगदानन्दनः जिनराजः सर्वदेशेषु विहरमाणः क्रमेणानुकृतनिजयशोलोल कैलासशैलमुपजगाम । इति श्रीमदहदासकृतौ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धेऽष्टमः स्तबकः ॥८॥ ५ तस्मिन् सहस्रदिनकराणां सहस्रसूर्याणां स्पद्धि यत् सहस्रारधर्मचक्रं सहस्रारसहितधर्मचक्रं तत्पुरःसरं यस्य सः, पुरस्तादग्रे पृष्ठतश्च पश्चाच्च व्योमतले गगनतले विन्यस्तानि निक्षिप्तानि यानि सप्तसप्तहेमाम्बुजानि तेषां रुच्या कान्त्या रञ्जितं रक्तवर्णीकृतं चरणयुगलं यस्य तस्य भावस्तया विजितेन पराभूतेन रागमल्लेन भयात् उपाश्रितपद इव सेवितचरण इव, नभःस्थले गगने कलितयानः कृतगमनः, सकलजगदानन्दनो निखिललोकानन्द करः जिनराजो वृषभजिनेन्द्रः सर्वदेशेषु समग्रजनपदेषु विहरमाणो विहारं कुर्वन् क्रमेण क्रमशः अनुकृता १० निजयशोलीला स्वकीर्तिशोभा येन तं तथाभूतं कैलासशैलं कैलासपर्वतम् उपजगाम प्रापत् । इति श्रीमदहदासकृतेः पुरुदेवचम्पूप्रबन्धस्य 'वासन्ती'समाख्यायां संस्कृत व्याख्यायामष्टमः स्तबक: समाप्तः ॥८॥ गया था, परस्परके बुलानेमें लीन देवोंके शब्दोंसे आकाशतल भर गया था, आगे किये हुए आठ मंगल द्रव्योंसे सहित ध्वजाओंकी पंक्ति और चंदोवासे चित्रित आकाशमें १५ उदित हजार सूर्योंके साथ स्पर्धा करनेवाला एक हजार अरोंसे युक्त धर्मचक्र उनके आगे आगे चल रहा था, आगे और पीछे आकाशतलमें विरचित सात-सात स्वर्ण कमलोंकी कान्तिसे उनके चरण युगल रंगे हुए थे जिनसे ऐसा जान पड़ता था मानो पराजित हुआ रागरूपी मल्ल भयसे उनके चरणों में आ पड़ा हो, वे आकाशमें अधर गमन कर रहे थे और समस्त जगत्को आनन्द उत्पन्न कर रहे थे। श्रीमान् अर्हदास कविकृत पुरुदेवचम्पूप्रबन्धमें आठवाँ स्तबक समाप्त हुआ ॥८॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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