Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 377
________________ ३३८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [८६३३$३३ ) इत्यभिधायोत्थाय च चक्रधरं सुरैः सह तीर्थाम्बुभिरतिविभवेनाभिषिच्य, स व्यन्तरपतिस्तस्मै दिव्यानि रत्नभृङ्गारश्वेतातपत्रप्रकीर्णकयुगहरिविष्टराणि प्रतिपाद्यासाद्य च तदनुज्ञां निजसदनमाससाद। ६३४) विजयागिरौ जिते समस्ते विजितं दक्षिणभारतं स जानन् । निधिराड्विततान चक्रपूजां जलगन्धाक्षतपुष्पधूपदीपैः ॥२३॥ $ ३५ ) तदनूत्तरार्धविजयाशंसया प्रतीपमागत्य रजतगिरिपश्चिमगुहाभ्यर्णविलसमाने वने कलितसेनानिवेशं निधीशं नानादेशसमागतनरपालनिकायनिचितसविधप्रदेशं परिवृतामरजाल: कृतमालो नाम सुरः सप्रणाममागत्य प्रभुणा सबहुमानमर्पितासनः सादरमिमां गिरमुदाजहार । ६३६ ) देव ! त्वद्वीक्षणाद्भूतं वाचाटयति कौतुकम् । मतिश्च मुद्रयत्यद्य वाचमेनां करोमि किम् ॥२४॥ सर्वदा सर्वविनाशकरी पक्षे सर्व ददातीति सर्वदा, अत्र त्वत्समीपे वृद्धया स्थविरया पक्षे विस्तृतया मया कि प्रयोजनम् । इत्येवं प्रोच्य कथयित्वा त्वदीया कोतिः समज्ञा 'यशः कीर्तिः समज्ञा च' इत्यमरः, प्रकोपात् प्रकृष्टक्रोधात् सुरपतिनगरं स्वर्ग प्राप प्रयाता। श्लेषोत्प्रेक्षा। स्रग्धराछन्दः ॥२२॥ $ ३३) इतीति-रत्न भृङ्गारो मणिमयकलशः, श्वेतातपत्रं धवलच्छत्रम्, प्रकीर्णकयुगं चामरयुगम्, हरिविष्टरं सिंहासनम् । शेषं सुग१५ मम् । ६ ३४ ) विजयाधुति-समस्ते निखिले विजयाईगिरी रजताचले जिते स्वायत्तीकृते सति दक्षिणभारतं विजितं पराजितं जानन् स निधिराट् निधीश्वरो भरतः जलगन्धाक्षतपुष्पधूपदीपैः चक्रपूजां चक्रार्चाम् आततान विस्तारयामास ॥२३॥ ३५ ) तदन्विति-उत्तरार्धविजयाशंसया उत्तरार्धभरतविजयेच्छया प्रतीपमागत्य प्रत्यावृत्य रजतगिरेविजयाधस्य पश्चिमगुहाया अभ्यर्णे निकटे विलसमाने शोभमाने वने। शेषं सुगमम् । $३६ ) देवेति-हे देव ! हे राजन् ! त्वद्वीक्षणात् भवदवलोकनाद् भूतं समुत्पन्नं कौतुकं कुतूहलं मां २० वाचाटयति वाचालं करोति 'स्याज्जल्पाकस्तु वाचालो वाचाटो बहुगवाक्' इत्यमरः, मतिश्च बुद्धिश्च अद्य सांप्रतम्, एनां समुच्चार्यमाणां वाचं मुद्रयति निरोधयति वक्तुं न ददातीत्यर्थः । किं करोमि । कि (पक्ष में गोल धनुर्दण्ड है ), इतनेपर भी आपकी यह आज्ञा सर्वदा-सबका खण्डन करनेवाली है ( पक्षमें सब कुछ प्रदान करनेवाली है ), यहाँ मुझ वृद्धा-वृद्ध स्त्रीसे क्या प्रयोजन है ( पक्षमें विस्तारको प्राप्त हुई मुझसे क्या मतलब है) इस प्रकार कह कर आपकी कीर्ति २५ क्रोधवश स्वर्ग चली गयी है ।।२२।। ६३३) इतीति-यह कह कर तथा उठकर व्यन्तरेन्द्रने देवोंके साथ तीर्थोदकसे उल्लासपूर्वक चक्रवर्तीका अभिषेक किया, उसके लिए देवोपनीत रत्नोंका श्रृंगार, सफेद छत्र, दो चमर और सिंहासन दिये तत्पश्चात् उनकी आज्ञा लेकर वह अपने घर चला गया। $३४ ) विजयाति-समस्त विजया पर्वतके जीत लिये जानेपर दक्षिण भारतको जीता हुआ जाननेवाले चक्रवर्तीने जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप और दीपके द्वारा ३० चक्ररत्नकी पूजा की ॥२३॥ ६३५) तदन्विति-तदनन्तर उत्तरार्धको जीतनेकी इच्छासे वापस आकर विजयाध पर्वतकी पश्चिम गुहाके निकट शोभायमान वनमें जिसने सेनाको ठहराया था, तथा नाना देशोंसे आगत राजाओंके समूहसे जिसका समीपवर्ती प्रदेश व्याप्त था ऐसे चक्रवर्तीके पास आकर अनेक देव समूहसे घिरे हुए कृतमाल नामक देवने प्रणाम किया, चक्रवर्तीने बहुत सम्मानके साथ उसे आसन दिया, आसनपर आरूढ़ हो उस देवने आदर३ पर्वक यह वचन कहे । $ ३६ ) देवेति-हे देव ! आज आपके दर्शनसे उत्पन्न हुआ कौतूहल मुझे वाचाल बना रहा है और बुद्धि मेरी इस वाणीको बन्द कर रही है । मैं क्या करूँ ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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