Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 369
________________ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे $ १४ ) अप्प्रदानैकशीलापि स्वर्णस्तोमप्रदायिनी । सवेगगमनाप्येषा चित्रं हंसस्फुरद्गति ॥१०॥ $ १५ ) इयं सुकमला पद्मराजीलोपाश्रितापि च । सरसत्वं गताप्येषा नीरसत्त्वमुपेत्यहो ॥११॥ $ १६ ) इति सारथिवचनं श्रवणदेशे विदधानः प्रकृष्टतररथवेगापरिज्ञात बहुदुराध्वलङ्घनश्चक्रधरश्चिरविरहमसहमानतया स्वयमनुयातामिव साकेतपुरी पटमन्दिरपालि प्रविश्य तत्र दिनमतिवाह्यान्येद्युर परमिव विजयार्धाचलं तन्नामधेयं सिन्धुरमधिरूढः प्रचलितपरमकरवालयातिशतिसिन्धुरयोज्ज्वलया. बहुलहरिजालकोलाहल मुखरितदिगन्तरया षडङ्गवाहिन्या गङ्गावाहिन्या २० ३३० इति वक्ष्यमाणां वाचं गिरम् चित्तरञ्जनं यथा स्यात्तथा ऊचे जगाद || ९ || $१४ ) अध्प्रदानेति - एषा गङ्गा १० अपां जलानां प्रदानं वितरणं एकं शीलं यस्यास्तथाभूतापि सती स्वर्णस्तोमस्य सुबर्णसमूहस्य प्रदायिनीति विरोध: पक्षे सुष्ठु अर्णः स्वर्णः सुजलं तस्य स्तोमस्य समूहस्य प्रदायिनी, सवेगगमनापि तीव्रगतिरपि हंसस्येव स्फुरन्ती गतिर्यस्यास्तथाभूता मन्दगमनेति चित्रं विस्मयास्पदम् परिहारपक्षे हंसैर्मरालः स्फुरन्ती शोभमाना गतिर्यस्यास्तथाभूता । विरोधाभासः ॥ १०॥ $ १५ ) इयमिति - इयं गङ्गा पद्मानां कमलानां राजी पङ्क्तिस्तस्या लोपेनाभावेन आश्रिता सहितापि सुकमला शोभनानि कमलानि पद्मानि यस्यां तथाभूतेति चित्रं, १५ परिहारपक्षे सुष्ठु कमलं जलं यस्यां तथाभूता 'कमलं सलिले ताम्रे जलजे क्लोम्नि भेषजे' इति मेदिनी । एषा गङ्गा सरसत्वं रससहिततां गतापि प्राप्तापि रसान्निष्क्रान्तो नीरसः रस रहितस्तस्य भावस्तत्त्वं रसरहितताम् उपैति प्राप्नोतीत्यहो चित्रं परिहारपक्षे सरसत्वं सजलत्वं गतापि नीरस्य जलस्य सत्वमिति नीरसत्वम् उपैति प्राप्नोति । विरोधाभासः ॥ ११ ॥ 8१६ ) इतीति- इति पूर्वोक्तं सारथिवचनं सूतवचनं श्रवणदेशे कर्णप्रदेशे विदधानः शृण्वन्नित्यर्थः प्रकृष्टतररथवेगेन प्रभूततरस्यन्दनरंहसा अपरिज्ञातमविदितं बहुदूरावलङ्घनं दीर्घतममार्गातिक्रमणं येन तथाभूतश्चक्रधरो भरतेश्वरः चिरविरहं दीर्घविप्रयोगम् असहमानतया सोढुमसमर्थतया स्वयं स्वतः अनुयातां समनुगतां साकेतपुरीमिवायोध्यानगरीमिव पटमन्दिरपालिम् उपकार्याश्रेणीं प्रविश्य तत्र दिनं दिवसमतिवाह्य व्यपगमय्य अन्येद्युरन्यस्मिन्दिवसे अपरं द्वितीयं विजयार्धाचलमिव विजयार्धपर्वतमिव तन्नामधेयं विजयार्घाचलनामानं सिन्धुरं गजम् अधिरूढः अधिष्ठितः षडङ्गवाहिन्या [ ९१४ $ १४) अप्प्रदानेति - यह गंगा नदी एक जलको देनेवाले स्वभावसे सहित होकर भी स्वर्ण२५ समूहको देनेवाली है ( पक्षमें उत्तम जलसमूहको देनेवाली है) और वेगसहित गमनसे सहित होकर भी हंसोंके समान सुशोभित मन्थर गति से सहित है ( पक्ष में हंसोंसे सुशोभित गति से युक्त है ) ||१०|| $१५ ) इयमिति - यह गंगानदी यद्यपि कमलपंक्तिके अभाव से सहित है तो भी सुकमला - उत्तम कमलोंसे सहित है ( पक्ष में उत्तम जलसे सहित है) तथा सरसताको प्राप्त होकर भी नीरसताको प्राप्त है ( पक्ष में जलके सद्भावको प्राप्त है ) ||११|| ३० १६ ) इतीति- इस प्रकार जो सारथिके वचन सुन रहे थे तथा रथके तीव्र वेगसे जिन्हें बहुत लम्बा मार्ग लाँघनेका भी अनुभव नहीं हो रहा था ऐसे भरतेश्वरने दीर्घकाल तक विरहको न सह सकनेके कारण पीछेसे स्वयं आयी हुई अयोध्या नगरीके समान तम्बूओंकी नगरी में प्रवेश कर वह दिन वहीं बिताया दूसरे दिन दूसरे विजयार्ध पर्वतके समान विजयार्ध पर्वत नामवाले हाथीपर सवार होकर आगेके लिए प्रस्थान ३५ किया उस समय जिसमें उत्कृष्ट तलवारें चल रही थीं, जिसमें एक से एक बढ़कर हाथी थे, जो अत्यन्त उज्ज्वल थे, तथा बहुत अधिक घोड़ों के समूहसे उत्पन्न कोलाहलके द्वारा जो दिदिगन्तको मुखरित कर रही थी ऐसी छह अंगों से युक्त सेना और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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