Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 366
________________ -८1 नवमः स्तबकः ३२७ जयलक्ष्मीकटाक्षक्षीरार्णवः परितो रथारूढैमहामुकुटबद्धैः परिवृतश्चलितेनेवापरसागरेण बलेन शबलितपुरोभागो दूरादेव प्रणतमस्तकैः सेनाध्यक्षैः प्रतिपाल्यमानवीक्षणावसरः शनै राजमन्दिरानिर्याय चञ्चत्पञ्चतोरणालंकृतासु रथ्यासु प्रविशमानो मनुवंशगगनतलोदितभरतचन्द्रकान्तिचन्द्रिकाक्षुभितनगरक्षीरवाराशिवीचिपरम्परानुकारि - सौधालम्बिपुरनितम्बिनीजनपरिमुक्तापाङ्ग - शोकरनिकरमेदुरसाक्षतलाजमौक्तिकदन्तुरितसविधप्रदेशः पुरान्निश्चक्राम। $ ८ ) क्ष्माभृत्प्रोत्तुङ्गसिन्दुरितकरटिघटाडम्बरैः कुकमाभ त्वङ्गत्प्रोद्यन्तुरङ्ग रथिकवरचयैश्चारुचित्राम्बरे?ः। भानुप्रस्पद्धिचक्रप्रतिफलनलसद्धेतिहस्तैः पदाति तिश्चक्रिप्रतापाम्बुधिरिव चलितस्तद्बलौघो बभासे ॥६॥ करेण वाराङ्गनाहस्तेन चलितो वोजितो यश्चामरनिकरो बालव्यजनसमूहस्तस्य दम्भेन छलेन संभूतः १० समुत्पन्नो जयलक्ष्मीकटाक्षा एव क्षीरार्णवः क्षीरसागरो यस्य सः, परितः समन्तात् रथारूढः स्यन्दनसमधिष्ठितः महामुकुटबद्धर्महामुकुटबद्धनृपतिभिः परिवृतः परीतः, चलितेन अपरसागरेण अन्यसमुद्रेणेव बलेन सैन्येन शबलितश्चित्रित: पुरोभागो यस्य सः दूरादेव प्रणतमस्तकैः नम्रशिरस्कैः सेनाध्यक्षः पृतनापतिभिः प्रतिपाल्यमानः प्रतीक्ष्यमाणो वीक्षणावसरो दर्शनसमयो यस्य, सः शनैः राजमन्दिरात् नरेन्द्रमन्दिरात् निर्याय निर्गत्य चञ्चद्भिः पञ्चतोरणः पञ्चसंख्याकतोरणैरलंकृतासु शोभितासु रथ्यासु रथाहराजमार्गेषु प्रविशमानः १५ प्रवेशं कुर्वन, मनुवंश एव गगनतलं नभस्तलं तस्मिन्नुदितो यो भरतचन्द्रभरतेन्दुस्तस्य कान्तिरेव चन्द्रिका कौमुदी तया क्षुभितः समुद्वेलितो यो नगरक्षीरवाराशिः पुरपयःपारावारस्तस्य वीचिपरम्परायास्तरङ्गसंततेरनुकारी सौवावलम्बी प्रासादपृष्ठस्थितो यः पुरनितम्बिनीजनो नगरनारी निचयस्तेन परिमुक्तास्त्यक्ता येऽपाङ्गशीकराः कटाक्षजलकणास्तेषां निकरण समूहेन मेदुराणि सहितानि साक्षतानि शालेयसहितानि यानि लाजमौक्तिकानि भजितधान्यपुष्पमुक्ताफलानि तैर्दन्तुरितो नतोन्नतः सविधप्रदेशो यस्य तथाभूतः सन् पुरात् २० नगरात् निश्चक्राम निरियाय निर्गत इत्यर्थः । $ 0) माभूदिति-क्ष्माभृत इव पर्वता इव इव प्रोत्तुङ्गा अत्युन्नताः सिन्दुरिताः सिन्दूरयुक्ता याः करटिघटा हस्तिपङ्क्तयस्तासामाडम्बरैविस्तारैः, त्वङ्गन्तः समुच्चलन्तो ये प्रोद्यत्तुरङ्गा उन्नताश्वास्तैः, चारुचित्राम्बरैः सुन्दरविविधवर्णवस्त्ररिद्धा दीप्तास्तैः रथिकवरचय विजय-दुन्दुभियों के शब्दोंसे सहित जय-जयकारकी घोषणाओं और स्त्रीजनोंके मंगल गीतोंसे सहित गुरुजनोंके आशीर्वादात्मक वचनोंसे जिसने नभःस्थलको भर दिया था, जो वेश्याओंके २५ हाथोंसे चलाये हुए चामर समूहके छलसे उत्पन्न विजयलक्ष्मीके कटाक्षरूपी क्षीर सागरसे युक्त था, रथोंपर सवार महामुकुटबद्ध राजाओं द्वारा जो चारों ओरसे घिरा हुआ था, ते हुए दूसरे समुद्र के समान दिखनेवाली सेनासे जिसका आगेका भाग व्याप्त हो रहा था, और दरसे ही मस्तक झकानेवाले सेनापतियोंके द्वारा जिनके देखनेके समयकी प्रतीक्षा की जा रही थी, ऐसा भरत चक्रवर्ती धीरे-धीरे राजभवनसे निकलकर शोभायमान पाँच ३० तोरणोंसे अलंकृत चौड़ी सड़कोंपर आया। उस समय मनुवंश रूपी आकाशमें उदित भरतरूपी चन्द्रमाकी कान्तिरूपी चाँदनीसे लहराते हुए नगररूपी क्षीरसागरकी लहरोंके समान सुशोभित एवं महलोंपर चढ़ी हुई स्त्रियोंके द्वारा छोड़े गये कटाक्षरूपी जलकणोंके समूहसे युक्त धान्यकी लाई और मोतियोंसे उसका समीपवर्ती प्रदेश नतोन्नत हो रहा था। इस तरह वह नगरसे निकला । ६८) माभूदिति-पर्वतोंके समान अत्यन्त ऊँचे तथा सिन्दूरसे सुशो- ३५ भित हस्तिसमूहके विस्तारों, उछलते हुए ऊँचे घोड़ों, नाना प्रकारकी सुन्दर पताकाआसे देदीप्यमान श्रेष्ठ रथोंके समूहों तथा सूर्यके साथ स्पर्धा करनेवाले चक्ररत्नके प्रतिबिम्बसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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