Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 357
________________ ३१८ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [८१७१६७१) निशम्य भरताधिपो मधुरदिव्यवाणों विभो स्तदाभजत दर्शनव्रतविशुद्धिमुद्यद्रुचिः । सुरासुरमुनीश्वरप्रभृतिभिः परीता सभा परां धृतिमवाप सा परमशर्मधर्मामृतैः ॥४५॥ ६७२ ) तदानों कुरुकुलचूडामणिः सोमप्रभनरमणिर्दानतीर्थप्रवर्तकः श्रेयान् भरतेश्वरानुजो वृषभसेनश्च भगवत्पादमूले दीक्षित्वा गणधरा बभूवुः। ब्राह्मोसुन्दरों च संसारनिर्वेदनिर्धूतविवाहचिन्ते भट्टारकपादमूले दीक्षामासाद्य गणिनीगणप्रधाने बभूवतुः । श्रुतकीर्तिश्च गृहीतोपासकव्रतः श्रावकाग्रणोर्बभूव । प्रियव्रता च गृहोताणुव्रता श्राविकाग्रेसरो बभूव । पुराभग्नतपस्काः कच्छमहा कच्छप्रमुखाश्च भरतराजपुत्रं मरीचिं विना सर्वेऽपि महाप्रव्रज्यामासेदुः अनन्तवीर्यश्च गुरुपादमूल१० प्राप्तदोक्षः सुरासुरैः पूजितो मोक्षलक्ष्मीमाससाद । $७३ ) वन्दित्वा भरताधिपो भगवतः पादाम्बुजं सानुज स्तच्चक्रायुधपूजने कृतमतिः संपूज्य लोकेश्वरम् । आस्थानाबहिरागतः पृतनया जुष्टश्च सोधोल्लसत् केतुवातनिरस्तभास्करकरं नैनं पुरं प्राविशत् ।।४६।। १५ प्रकटितासीत् । ६ ७१ ) निशम्येति-तदा तस्मिन् काले उद्यन्ती वर्धमाना रुचिः प्रतीतिर्यस्य तथाभूता भरताधिपः भरतेश्वरः विभोर्भगवतो मधुरदिव्यवाणीं मधुरदिव्यध्वनि निशम्य श्रुत्वा दर्शनव्रतविशुद्धि सम्यक्त्वव्रतयोः -विशुद्धि निर्मलताम् अभजत प्रापत् । सुराश्च असुराश्च मुनीश्वराश्चेति सुरासुरमुनोश्वरास्ते प्रभृतयो येषां तैः परीता व्याप्ता सा सभा समवसरणपरिषद् परमशर्मवर्मामृतैः उत्कृष्टसुखदायकधर्मपीयूषैः परां सातिशयां धृति संतुष्टिम् अवाप प्राप्तवती । पृथ्वीछन्दः ।।४५।। ६७२) तदानीमिति-सुगमम् । २०६७३) वन्दित्वेति-भरताधिपो भरतेश्वरः भगवतो वृषभस्य पादाम्बुजं चरणकमलं वन्दित्वा नमस्कृत्य सानुजसकनिष्ठातृकः तच्चक्रायुधपूजने तच्चक्ररत्नसमर्चायां कृतमतिः कृतबुद्धिः सन् लोकेश्वरं जिनेन्द्र प्रवीण थी और ऐसी जान पड़ती थी मानो अमृतको वृष्टि ही हो। ७१) निशम्येतिजिसकी श्रद्धा बढ़ रही थी ऐसे भरतेश्वरके भगवानकी मधुर दिव्य ध्वनि सुनकर दर्शन और व्रतमें विशुद्धता प्राप्त की तथा सुर, असुर और मुनि आदिसे व्याप्त वह सभा उत्कृष्ट सुखदायक २५ धर्मरूपी अमृतके द्वारा परम धैर्यको प्राप्त हुई ।।४५।। ६७२) तदानीमिति-उस समय कुरु वंशके शिखामणि राजा सोमप्रभ, दान तीर्थके प्रवर्तक श्रेयांस, और भरतेश्वरके छोटे भाई वृषभसेन भगवानके पादमूल में दीक्षित होकर गणधर हो गये। संसारसे वैराग्य होनेके कारण जिन्होंने विवाहको चिन्ता दूर कर दी थी ऐसी ब्राह्मी और सुन्दरी भी भगवानके पादमूलमें दीक्षा प्राप्त कर गणिनियोंके समूहमें प्रधान हो गयीं। श्रुतकीर्ति, श्रावकके व्रत ३. ग्रहण कर श्रावकोंमें अग्रेसर हो गया और प्रियव्रता, अणुव्रत ग्रहण कर श्राविकाओंमें श्रेष्ठ बन गयी। पहले जिन्होंने तप छोड़ दिया था ऐसे कच्छ, महाकच्छ आदि राजा तथा भरतेश्वरके पुत्र मरीचिको छोड़कर अन्य सभी लोगोंने दिगम्बर दाक्षाको प्राप्त किया था। और पिताके पादमूलमें जिसने दीक्षा प्राप्त की थी ऐसे अनन्तवीर्यने सुर-असुरोंसे पूजित हो मोक्ष लक्ष्मीको प्राप्त किया। ६ ७३ ) वन्दित्वेति-भरतेश्वरने भगवानके चरण कमलोंकी वन्दना ३५ की तदनन्तर छोटे भाइयों सहित चक्ररत्नकी पूजाकी इच्छा करता हुआ भगवान की पूजा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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