Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 356
________________ -७० ] अष्टमः स्तबकः ३१७ ६६९ ) पूजान्ते देवदेवं त्रिभुवनतिलकं संप्रणम्यातिभक्या स्तुत्वा नत्वा च भूयः सकलगुणनिधिं विश्वयाथात्म्यबोधम् । गत्वा श्रीमण्डपाग्र्यं भरतनरपतिस्तत्र सभ्यान्तराले देवाङ्गे दत्तदृष्टिर्मुकुलितविलसत्पाणिपद्मोऽवतस्थे ॥४४॥ ७० ) तदनु भव्यपुण्डरीकषण्डमार्तण्डं केवलज्ञानलक्ष्मीमनुभवन्तं भगवन्तं धर्म पृष्टवति ५। भरतराजे, भूतभविष्यद्वर्तमानपदार्थसार्थव्यक्तीकरणसाक्षिणी, निर्मुक्ताशेषदोषा, मिथ्यात्वजालतूलवातूललोला, विपक्षगर्वसर्वस्वपर्वतदम्भोलिः, अपारसंसारसागरकर्णधारायमाणा, स्याद्वादलक्ष्मीविहरणप्रासादपाली, धर्मनपसाम्राज्यप्रतिष्ठाभूमिः, ताल्वोष्ठस्पन्दादिवजिता, वर्णविन्यासरहितापि वस्तुबोधविधानचतुरा, स्वयमेकापि पृथक्पृथगभिप्रायवचनानां देहिनां स्पष्टमिष्टार्थसाधनप्रवीणा सुधामयी वृष्टिरिव दिव्यवाणी भगवन्मुखारविन्दात्प्रादुर्बभूव । विलसत्पाणिपक्षे यस्य यथाभूतः सन् अवतस्थे अवस्थितोऽभूत् । स्रग्धरा छन्दः ॥४४॥ ६७०) तदन्वितितदनु तदनन्तरं भव्यपुण्डरीकषण्डमार्तण्डं भव्यारविन्दवन्दविभाकरं केवलज्ञानलक्ष्मीमनुभवन्तं केवलज्ञानसहितं भगवन्तं वृषभजिनेन्द्रं भरतराजे धर्म पृष्टवति सति भगवन्मुखारविन्दात् भगवद्वदनवारिजात् दिव्यवाणी दिव्यध्वनिः प्रादुर्बभूव । अथ कथंभूता सा दिव्यवाणीत्याह-भूतभविष्यद्वर्तमानपदार्थानां कालत्रयवर्तिपदार्थानां सार्थः समूहस्तस्य व्यक्तीकरणस्य प्रकटकरणस्य साक्षिणी, निर्मुक्तास्त्यक्ता अशेषदोषा १५ यस्यास्तथाभूता, मिथ्यात्वजालमेव तूलं तस्य वातूलस्य वात्याया इव लीला यस्यास्तथाभूता, विपक्षाणां प्रतिवादिनां गर्वसर्वस्वमेव पर्वतः सानुमान् तस्य दम्भोलि: पविः, अपारसंसार एव सागरस्तस्मिन् कर्णधार इवाचरतीति तथा, स्याद्वादलक्ष्मीरनेकान्तश्रीस्तस्या विहरणाय प्रासादपाली सौषसंततिः धर्मनपस्य धर्ममहीभृतो यत् साम्राज्यं तस्य प्रतिष्ठाभूमिः, ताल्वोष्ठस्य स्पन्दादिना वजिता त्यक्ता, वर्णविन्यासरहितापि अक्षराकारपरिणमनरहितापि वस्तुबोधस्य वस्तुज्ञानस्य विधाने करणे चतुरा विदग्धा, स्वयं स्वतः एकापि २० अद्वितीयापि पृथक्पृथगभिप्रायवचनानां पृथपृथगभिप्रायवादिनां देहिनां प्राणिनां स्पष्टं यथा स्यात्तथा इष्टार्थसाधने प्रवीणा समर्था सुधामयी पीयूषमयी वृष्टिरिव दिव्यवाणी दिव्यध्वनिर्भगवन्मुखारविन्दात् प्रादुर्बभूव थे, जो तीन रूपमें परिणत चन्द्र मण्डलसे अवलम्बित मेघसे चुम्वित हो रहा था तथा कल्पवृक्षोंसे घिरे हुए पुष्पोंसे व्याप्त था। ६६९) पूजान्त इति-पूजाके अन्तमें भरतेश्वरने त्रिलोकके तिलक समस्त गुणोंके सागर एवं सर्वज्ञ देवाधिदेव वृषभजिनेन्द्रको प्रणाम किया, २५ भक्तिपूर्वक स्तुति की, नमस्कार किया और उसके बाद श्रीमण्डपमें जाकर वहाँ भगवान्के शरीरपर दृष्टि लगाता हुआ वह दोनों हाथ जोड़कर सभासदोंके बीच में बैठ गया ॥४४॥ ६७०) तवन्विति-तदनन्तर भव्यजीवरूपी कमलसमूहको विकसित करनेके लिए सूर्य एवं केवलज्ञानरूपी लक्ष्मीका अनुभव करनेवाले भगवान्से भरतेश्वरने धर्मका स्वरूप पूछा । उसके फलस्वरूप भगवानके मुखारविन्दसे दिव्यध्वनि प्रकट हुई। वह दिव्यध्वनि भूत, ३० भविष्यत् और वर्तमान पदार्थों के समूहको प्रकट करनेके लिए साक्षीस्वरूप थी, समस्त दोषोंसे रहित थी, मिथ्यात्वके समूह रूप रुईको उड़ानेके लिए तीबवायुके समान थी, प्रतिवादियोंके गर्वरूपी पर्वतोंको नष्ट करनेके लिए वज्रके समान थी; अपार संसाररूपी सागरसे पार करनेके लिए कर्णधारके समान थी, स्याद्वादरूपी लक्ष्मीकी क्रीडाका प्रासाद थी, धर्मरूपी राजाके साम्राज्यकी प्रतिष्ठाभूमि थी, तालु तथा ओष्ठके हलन-चलन आदिसे रहित ३५ थी, अक्षरोंके विन्याससे रहित होकर भी वस्तुके ज्ञान करानेमें चतुर थी, स्वयं एक होकर भी पृथक-पृथक अभिप्रायको प्रकट करनेवाले प्राणियोंके इष्ट अर्थको स्पष्ट रूपसे सिद्ध करने में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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