Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 350
________________ -५८ ] अष्टमः स्तबकः ३११ कलङ्कोत्पादनेन, सूर्ये संतापजननेन च संजातापकीर्ति परिमाष्टु' तदुभयमेकीकृत्य वेधसा निर्मितेनेव बिम्बत्रयेण रत्नकान्तिमनोहरेण धवलातपत्रत्रितयेन विशोभमानं, गाम्भीर्यं विजितेन पयः पारावारेण द्विपदरहिततयाधिकतरज रसाश्लिष्टतयातिवृद्धतया च सेवार्थं स्वयमागन्तुमक्षमतया प्रहितैरिव वीचि - निकरेद्वा यशोविजिततया सेवार्थमागतैरिव सुधापूरेरथवा निखिलसुरसेव्यपारोऽयं हिमालय इति मत्वानुपतद्भिरिव गङ्गातरङ्गः सुरनिकरवदनपयोजपरिष्कृते भगवतो विमलतरदिव्यदेहकान्तिपूरे ५ सरोवरशङ्कया संपतद्भिरिव हंसे, ईश्वरादुत्पतद्भिरिव यशोविसरैर्यंक्षक रस रोजवीज्यमानचामरे वृद्धि पक्षे घोः बुद्धिः रस इव जलमिव घोरसः तस्य वृद्धि करोतीति कुतुहलेन संद्रष्टुं समवलोकितुमुपागत्य समीपमागत्य विस्मयवशात् आश्चर्यवशात् तत्रैव निश्चलतां स्थिरताम् उपगतेन प्राप्तेन शारदनी रदत्रयेणेव शारदवारिदत्रितयेणेव चन्द्रे कलङ्कस्योत्पादवेन, सूर्ये दिवाकरे संतापसंजननेन च संतापोत्पादकत्वेन च संजाता कति समुत्पन्नदुर्यशः परिमाष्टुं प्रोक्षितुं तदुभयं सूर्याचन्द्रमसौ एकीकृत्य वेधसा विधात्रा निर्मितेन १० रचितेन बिम्बत्रयेणेव, रत्नकान्तिमनोहरेण मणिमरीचिमनोज्ञेन धवलातपत्रत्रितयेन विशोभमानं, यक्षकरसरोजवीज्यमानचामरैः यक्षाणां व्यन्तरदेवविशेषाणां करसरोजः करकमलैः वीज्यमानाः प्रकीर्यमाणा ये चामरास्तैः उपशोभमानं विराजमानम्, अथ कथंभूतः चामरैरिति तानेव विशेषयितुमाह- गाम्भीर्येण धैर्येण विजितेन पराभूतेन पयःपारावारेण क्षीरनीरविना द्विपदरहिततया चरणद्वयरहिततया पक्षे त्रसजीवरहिततया, अधिकतरजरसा अतिशयवार्धक्येन आश्लिष्टतया समालिङ्गिततया पक्षे अधिकतरजेन बहुलोत्पन्नेन रसेन जलेन १५ आश्लिष्टतया अतिवृद्धतया च अतिस्थविरतया च पक्षेऽतिविस्तृततया च सेवार्थं शुश्रूषार्थं स्वयं स्वतः आगन्तुं समायातुम् अक्षमतया असमर्थतया प्रहितैः प्रेषितै: वीचिनिकरैरिव तरङ्गसमूहैरिव, यद्वा यशोविजिततया कीर्तिविजिततया सेवार्थम् आगतैः सुधापूरैरिव पीयूषप्रवाहैरिव, अथवा निखिलसुरैः सर्वदेवैः सेव्याः सेवनीयाः पादाः प्रत्यन्तपर्वता यस्य तथाभूतः अयं हिमालयो हिमवान् पर्वत इति मत्वा पक्षे निखिलसुरैः समग्रदेवैः सेव्यौ समाराधनीयो पादो चरणो यस्य तथाभूतः अयं जिनेन्द्रो हि निश्चयेन मालयः माया लक्ष्म्या २० आलय: स्थानम् इति मत्वा अनुपतद्भिरनुगच्छद्भिः गङ्गातरङ्गेरिव भागीरथोभङ्गरिव, सुरनिकरस्य देवसमूहस्य वदनपयोजः मुखकमलैः परिष्कृते सहिते भगवतो जिनेन्द्रस्य विमलतरा चासो दिव्यदेहकान्तिश्चेति विमलतरदिव्य देहकान्तिस्तस्याः पूरे प्रवाहे सरोवरशङ्कया कासारसंदेहेन संपतद्भिः समागच्छद्भिः हंसैर्मरालैरिव, —- ३० वह विमुक्ताम्बर - आकाशको छोड़नेवाला था जब कि अन्य मेघ अविमुक्ताम्बर - आकाशको छोड़नेवाला नहीं था ( पक्ष में विमुक्ताम्बर - वस्त्र रहित था ), वह त्यक्तचंचलानन्द - २५ बिजली के आनन्दको छोड़नेवाला था जब कि अन्य मेघ अत्यक्तचंचलानन्द - बिजली के आनन्दको छोड़नेवाला नहीं था ( पक्षमें क्षणभंगुर आनन्दको छोड़नेवाला था ), वह सदामराठीसंतोषकर -- हमेशा हंसियोंको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला था जब कि अन्य मेघ हंसियोंको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला नहीं होता था ( पक्ष में सदा अमराली - देवोंके समूहको सन्तोष उत्पन्न करनेवाला था ) वह विचित्र मेघ अन्य मेघोंके समान ही धीरसस्यधीर मनुष्यरूपी धान्यकी वृद्धिको करता था ( पक्ष में बुद्धिरूप जलकी वृद्धिको करता था ) । वह भगवान् यक्षोंके करकमलोंसे ढोरे जानेवाले उन चामरोंसे सुशोभित हो रहे थे जो ऐसे जान पड़ते थे मानो गम्भीरताके द्वारा पराजित हुए क्षीरसमुद्रके द्वारा द्विपदरहितता - दो पाँवोंसे रहित होने के कारण ( पक्ष में त्रस जीवोंसे रहित होनेके कारण ), अधिकतरजरसा श्लिष्टता - अत्यधिक बुढ़ापासे युक्त होनेके कारण ( पक्ष में अत्यधिक जलसे सहित होनेके ३५ कारण ) तथा अतिवृद्ध - अत्यन्त वृद्ध ( पक्ष में अत्यन्त विस्तृत ) होनेसे स्वयं आने में असमर्थ होनेके कारण भेजे हुए तरंगों के समूह ही हों, अथवा यशके द्वारा पराजित होनेसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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