Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 346
________________ -५६ ] अष्टमः स्तबकः सौरूप्यं च प्राप्तवानिति स्वयमपि भगवन्निकट एव सेवां विधातुमुदितमनीषया नूनमाकाशस्फटिकघटिततत्सालात्मना समजायत । $५५ ) तन्मध्ये रेजिरे नूत्नरचना द्वादशकोष्ठकाः । गणैर्द्वादशभिर्जुष्टाश्चन्द्रकान्तप्रतिष्ठिताः ।। ३४ ।। $ ५६ ) ततः परं क्रमेण वैडूर्यहेम सर्वरत्नमयानां धर्मचक्रधरयक्षाधिष्ठित महाध्वजमङ्गलद्रव्यसंगत प्रथमद्वितीयतृतीयपीठानामुपरि विराजमाने सुरभिसुरतरुकुसुम कालागुरुधू पोद्दामसौरभपरिवेष्टिते जिनतनुबन्धुरगन्धसमृद्धे गन्धकुटीमध्ये भ्राजमानं माणिक्यदोपसरूपं मणिमयसिंहासनमधिष्ठाय चतुरङ्गुलगगनतले देवश्चकासामास । ३०७ च कल्याणसंपदा गर्भादिकल्याणकसंपत्त्या पक्षे सुवर्ण संपत्त्या, जातरूपधरत्वेन दिगम्बरमुद्राधरत्वेन सुवर्णधरत्वेन च भगवतो जिनेन्द्रस्य सौरूप्यं सौन्दयं सादृश्यं च प्राप्तवान् इति हेतोः स्वयमपि भगवन्निकट एव सेवां १० विधातुं उदितमनीषया समुत्पन्नबुद्ध्या विजयार्धमहीधरः समवसरणसभायां सालात्मना परिणतोऽभूत् । उत्प्रेक्षा श्लेषो । $ ५५ ) तन्मध्य इति तन्मध्ये स्फटिकसालस्य मध्येऽभ्यन्तरे नूत्नरत्ना नवीनरत्नयुक्ताः द्वादशभिर्गणैः जुष्टाः सहिताः चन्द्रकान्तप्रतिष्ठिताः चन्द्रकान्तमणितलस्थिताः द्वादशकोष्ठकाः द्वादशसभाः रेजिरे शुशुभिरे । द्वादशकोष्ठेषु ऋषिप्रभृतीनामावासो भवति । तथाहि - 'काषिकल्पजवनितार्याज्योतिर्वनभवन युवतिभावनजाः । ज्योतिष्ककल्पदेवा नरतिर्यञ्चो वसन्ति तेष्वनुपूर्वम् ।' इति समवसरणस्तोत्रे । १५ $ ५६ ) ततः परमिति ततः परं ततोऽग्रे क्रमेण वैडूर्यो नीलमणिः हेमस्वणं सर्वरत्नानि च तेषां विकारस्तेषां नीलमणिस्वर्णसर्वरत्न रचितानां धर्मचक्रधरा धर्मचक्रधारका ये यक्षा व्यन्तरविशेषास्तैरधिष्ठिताः सहिताः महाध्वजमङ्गलद्रव्यसंगताश्च ये प्रथमद्वितीयतृतीयपीठास्तेषामुपरि विराजमाने शोभमाने सुरभिसुरतरुकुसुमानि सुगन्धित कल्पवृक्षपुष्पाणि कालागुरुधूपाश्च कृष्णागुरुचूर्णाश्च तेषामुद्दामसौरभेण उत्कट सौगन्ध्येन परिवेष्टिते परिवृते जिनतनोर्भगवच्छरीरस्य बन्धुरो मनोहरो यो गन्धस्तेन समृद्धे संपन्ने गन्धकुटीमध्ये २० भ्राजमानं देदोप्यमानं माणिक्यदोपैर्मणिमयदीपैः सरूपं शोभितं सिंहासनं सिंहविष्टरम् अधिष्ठाय तत्र स्थित्वा Jain Education International ५ बहुत विशाल उदयाचलकी सेवा करता है और जो जड़बन्धु - मूर्खोका बन्धु है ( पक्ष में अजलबन्धोः—जलका बन्धु नहीं है ) । यह सब करके वह सुमेरु पर्वत सकलभूधरश्रेष्ठतासमस्त पर्वतों में श्रेष्ठताको ( पक्ष में समस्त राजाओं में श्रेष्ठताको ) तथा कल्याणसम्पदा - स्वर्णरूप सम्पत्तिके द्वारा ( पक्ष में गर्भादिकल्याणकरूप सम्पत्तिके द्वारा ) एवं जातरूपधरस्वर्णका धारक ( पक्ष में दिगम्बर मुद्राका धारक होनेसे ) भगवान् की सुरूपता - सुन्दरता ( पक्ष में सदृशता ) को प्राप्त हो चुका है इसलिए मुझे भी स्वयं भगवान् के निकट रहकर ही उनकी सेवा करना उचित है इस बुद्धिसे ही मानो विजयार्ध पर्वत उस समवसरण सभा में स्फटिकमणिका प्राकार बन गया था । $५५ ) तन्मध्य इति - उस स्फटिकसाल के भीतर नवीन रत्नोंसे निर्मित, बारह गणोंसे सेवित तथा चन्द्रकान्तमणिके शिलातलपर अधिष्ठित बारह सभाएँ सुशोभित हो रही थीं ||३४|| $५६ ) ततः परमिति - उसके आगे क्रमसे जो वैडूर्यमणि तथा सुवर्ण, सर्वरत्न और सुवर्णसे निर्मित, धर्मचक्रको धारण करनेवाले यक्षोंसे अधिष्ठित एवं महाध्वजाओं और मंगलद्रव्योंसे संगत प्रथम द्वितीय तथा तृतीय पीठके ऊपर विराजमान थी, सुगन्धित कल्पवृक्षोंके पुष्प तथा कृष्णागुरुचन्दनकी धूप सम्बन्धी बहुत भारी सुगन्धसे व्याप्त थी तथा जिनेन्द्र भगवान्‌ के शरीर सम्बन्धी सुगन्धसे जो समृद्धिमान् थी ३५ ऐसी गन्धकुटीके मध्य में शोभायमान, मणिमय दीपोंसे सुन्दर मणिमय सिंहासनपर चार ३० For Private & Personal Use Only २५ www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476