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अष्टमः स्तबकः $ ५० ) रत्नस्तम्भोरुलक्ष्मीस्तदनु मणिगणैर्भूषितां स्वर्णवेदी
बिभ्राणैषा सदामङ्गलमुरुजघनश्रीपरीताभ्रमध्या। लोलाक्षीवद्विरेजे प्रकटितसुमनोजातपुष्यद्विलासा
चञ्चत्स्वर्णांशुकान्ता सकलजनदृशां तृप्तिहेतुमनोज्ञा ॥३१ $ ५१ ) गजवृषभवस्त्रचक्राम्बुजमुख्यैरञ्चिता ध्वजश्रेणी।
वोथ्यन्तरालभूमी स्वर्णस्तम्भानलम्बिता रेजे ॥३२॥
ष्ठिताः स्थिता गगनचुम्बिनः अत्युन्नता ये चैत्यतरवः चैत्यवृक्षास्तैः शोभितो मध्यभागो यस्य तेन क्रोडोद्यानचतुष्टयेन । ५० ) रत्नेति-तदनु तदनन्तरम्, एषा वर्ण्यमाना सभा लोलाक्षीवत् ललनावत् विरेजे शुशुभे । अथोभयोः सादृश्यमाह-रत्नस्तम्भोरुलक्ष्मीः रत्नस्तम्भैर्मणिमयस्तम्भैः उरुमहती लक्ष्मीः शोभा यस्याः सा लोलाक्षोपक्षे रत्नस्तम्भा एव ऊरवः सक्योनि तेषां लक्ष्मीर्यस्याः सा, मणिगण रत्नसमूहैः भूषितां समलंकृतां १० स्वर्णवेदी सदा सर्वदा मङ्गलं मङ्गलरूपां बिभ्राणा दधाना लोलाक्षीपक्षे मणिगणभूषितस्वर्णवेदीरूपां सदाम दामसहितं गलं कण्ठं बिभ्राणा, उरुजा प्रभूतोत्पन्ना या घनश्री मेघशोभा तया परीतं व्याप्त अभ्रमध्यं गगनमध्य यस्यां सा, लोलाक्षीपक्षे उरुजघनस्य स्थलनितम्बस्य श्रिया शोभया परीता व्याप्ता, अभ्रमिव गगनमिव मध्यं यस्याः सा कृशमध्येत्यर्थः, प्रकटिता प्रादुर्भाविताः सुमनोजातानां पुष्पसमूहानां पुष्पद्विलासाः प्रकृष्टशोभा यस्यां सा लोलाक्षीपक्षे प्रकटिताः सुमनोजातस्य सुमदनस्य विलासा विभ्रमा यया सा, चञ्चद् देदीप्यमानं यत्स्वर्ण १५ काञ्चनं तस्य अंशुभिः किरणः कान्ता मनोहरा लोलाक्षीपक्षे चञ्चन शोभमानः स्वर्णाशकस्य स्वर्णवस्त्रस्यान्तो यस्याः सा, सकल जनदृशां निखिलजननयनानां तृप्तिहेतुः संतोषकारणम्, मनोज्ञा मनोहारिणी इति विशेषणद्वयमुभयत्र समानम् । श्लेषोपमा। स्रग्धराछन्दः ॥३१॥ $५१ ) गजेति-वीथीनां प्रधानमार्गाणां अन्तरालभूमी मध्यभूमो स्वर्णस्तम्भागेषु लम्बिता समारोपिता स्वर्णस्तम्भानलम्बिता गजश्च वृषभश्च वस्त्रं च चक्रं च अम्बुजं चेति गजवृषभवस्त्रचक्राम्बुजानि तान्येव मुख्यानि तैः अञ्चिता शोभिता ध्वजश्रेणी पताकापतितः रेजे २० शुशुभे । समवसरणे ध्वजा दशप्रकारा भवन्ति तथाहि-'स्रग्वस्त्रसहसानाब्जहंसवीनमृगेशिनाम्। वृषभेभेन्द्रचक्राणां
शालाओंसे रहित थे ( परिहार पक्षमें विस्तृत थे ) और जिन उपवनोंका मध्यभाग तीन कटनियोंसे युक्त पीठोंपर स्थित गगनचुम्बी चैत्य वृक्षोंसे सुशोभित हो रहा था। $ ५०) रत्नेति-तदनन्तर-उपवनोंके आगे सदा मंगल स्व-स्वरूप स्वर्णवेदीको धारण करती हुई वह सभा स्त्रीके समान सुशोभित हो रही थी क्योंकि जिस प्रकार स्त्री रत्नोंके खम्भोंके २५ समान ऊरुओं-जाँघोंको शोभासे सहित होती है उसी प्रकार वह सभा भी रत्नमय खंभोंकी बहुत भारी शोभासे सहित थी, जिस प्रकार स्त्री सदा मंगलमाला सहित कण्ठको धारण करती है उसी प्रकार वह सभा भी मणिगणोंसे विभूषित सदा मंगलस्वरूप स्वर्णवेदीको धारण कर रही थी. जिस प्रकार स्त्री स्थल नितम्बोंकी शोभासे सहित तथा आकाशके समान पतली कमरसे युक्त होती है उसी प्रकार सभा भी अत्यधिक मात्रामें उत्पन्न मेघोंकी शोभासे है. आकाशके मध्यको व्याप्त करनेवाली थी, जिस प्रकार स्त्री सुमनोजात-कामदेवके सुन्दर विलासोको प्रकटित करती है उसी प्रकार सभा भी सुमनोजात-पुष्प समूहकी अत्यधिक शोभाको प्रकट कर रही थी, जिस प्रकार स्त्री शोभायमान स्वर्णमय वस्त्रके अंचलसे सहित होती है उसी प्रकार सभा भी देदीप्यमान स्वर्णकी किरणोंसे सुन्दर थी, जिस प्रकार स्त्री समस्त मनुष्योंके नेत्रोंकी तृप्तिका कारण तथा मनोहर होती है उसी प्रकार सभा भी समस्त ३५ मनुष्योंकी तृप्तिका कारण तथा मनोहर थी ॥३१॥ ६५१ ) गजेति-वीथियोंकी अन्तराल भूमिमें स्वर्णमय खम्भोंके ऊपर अवलम्बित हाथी, बैल, वस्त्र, चक्र तथा कमल आदिके
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