Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 341
________________ ३०२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [ ८६४९गगनमध्यजघनक्रीडाशैलविलसितेन कणिकारचितोदयेन घनामलकावलि बिभ्राणेन विभ्रमोज्ज्वलेन च, सरागजनेनेव लताङ्गीकृतप्रणयेन पल्लवाभिख्याञ्चितेन च, वनीविख्यातेनाप्यवनीविख्यातेन, सुरसुन्दरीजनसंदोहानन्दकरशालाशोभितेनापि विशालेन, त्रिमेखलापीठाधिष्ठितगगनचुम्बिचैत्यतरुशोभितमध्यभागेन क्रीडोद्यानचतुष्टयेन जुष्टा तस्य सभा विभाति स्म। ५ जितेन शोभितेन कामिनीपक्षे सद्यो झटिति स्तनाः कुचाः स्तबकभरा इव गुच्छसमूहा इव तैभरितेन सहितेन, गगनमध्यजघनक्रीडाशैलविलसितेन गगनमध्यजा आकाशमध्योत्पन्ना ये घना मेघास्तद्वत् ये क्रीडाशैला: क्रीडाचलास्तविलसितेन शोभितेन कामिनीपक्षे गगनमिव मध्य गगनमध्यं कृशतरकटिप्रदेशः जघनं नितम्बं क्रीडार्शल इव इति जघनक्रीडाशैलः गगनमध्यं च जघनक्रीडाशैलश्चेति गगनमध्यजघनक्रीडाशैली ताभ्यां विलसितेन, कणिकारचितोदयेन कणिकारैः 'कनेर' इति प्रसिद्धवक्षश्चितो व्याप्त उदयो यस्य तेन कामिनीपक्षे कणिकाभिः १० कर्णाभरण रचित उदयो यस्य तेन धनामलकालिं घनाः प्रचरा ये आमलका धातकोवृक्षास्तेषामावलि पङ्क्तिं कामिनीपक्षे धनां सान्द्राम् अलकालि कुन्तलसमहं बिभ्राणेन दवानेन, विभ्रमोज्ज्वलेन च वीनां पक्षिणां भ्रमेण संचारेण उज्ज्वलं तेन कामिनीपक्षे विभ्रमा विलासास्तैरुज्ज्वलेन, सरागजनेनेव रागिमनुष्येणेव लताङ्गीकृतप्रणयेन लताभिर्वल्लीभिरङ्गीकृतः प्रणयो विस्तारो यस्य तेन सरागजनपक्षे लताङ्गोषु स्त्रीषु कृतः प्रणयः स्नेहो येन तेन, पल्लवाभिख्याञ्चितेन पल्लवानां किसलयानामभिख्या शोभा तयाञ्चितेन सहितेन सरागजनपक्षे पल्लवो १५ विट इति अभिख्या नाम तेनाश्चितेन सहितेन च वनीविख्यातेनापि वनी वाटिका इति विख्यातेन प्रसिद्धनापि अवनीविख्यातेन तद्विरुद्धेनेति विरोधः पक्षे अवनीविख्यातेन पृथिवीप्रसिद्धन, सुरसुन्दरीजनानां देवाङ्गनानां संदोहः समूहस्तस्य आनन्दकरा हर्षोत्पादिका याः शाला भवनानि ताभिः शोभितेनापि विशालेन विगता शाला यस्मिस्तेनेति विरोधः पक्षे विशालेन विस्तृतेन त्रिमेखलाभिरुपलक्षिताः पीठास्त्रिमेखलापीठास्तत्राधि सरस्थितिरमणीय-स्तनोंपर देदीप्यमान निर्मल हारोंकी स्थितिसे सुन्दर होता है उसी २० प्रकार उपवन भी पयोधरोज्ज्वल सरस्थिति-रमणीय-जलको धारण करनेवाले निर्मल सरोवरोंकी स्थितिसे सुन्दर थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह सद्यस्तनस्तबकभरभरित-शीघ्र ही गुच्छोंके समान स्तनोंके भारसे युक्त होता है उसी प्रकार उपवन भी तत्काल विकसित गुच्छोंके समूहसे युक्त थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह गगनमध्य-जघनक्रीडाशैलविलसित आकाशके समान कृश कमर और क्रीडाचलके समान स्थूल नितम्बोंसे सुशोभित होता है २५ उसी प्रकार उपवन भी गगनमध्यजघन-क्रीडाशैलविलसित-आकाशके मध्यमें उत्पन्न मेघोंके समान क्रीडाचलोंसे सुशोभित थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह कर्णिकारचितोदयकानके आभूषणोंसे रचित वैभवसे युक्त होता है उसी प्रकार उपवन भी कर्णिकारचितोदयकनेरके वृक्षोंसे व्याप्त अभ्युदयसे युक्त थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह घनामलकावलिं बिभ्राणः सघन केशोंकी पंक्तिको धारण करता है उसी प्रकार उपवन भी सघन आँवलोंकी पंक्तिको ३० धारण करते थे, और जिस प्रकार स्त्री समूह विभ्रमोज्वल-हाव-भावोंसे सुशोभित होता है उसी प्रकार उपवन भी विभ्रमोज्ज्वल-पक्षियोंके संचारसे सुशोभित थे। अथवा जो उपवन रागी मनुष्यके समान थे क्योंकि जिस प्रकार रागी मनुष्य लतांगीकृतप्रणयस्त्रियों में प्रेम करनेवाला होता है उसी प्रकार उपवन भी लतांगीकृतप्रणय-लताओं के द्वारा स्वीकृत विस्तारसे सहित थे और जिस प्रकार रागी मनुष्य पल्लवाभिख्यांचित३५ विट इस नामसे सहित होता है उसी प्रकार उपवन भी पल्लवाभिख्यांचित-न शोभासे सहित थे। जो उपवन वनीविख्यात-वनी इस नामसे प्रसिद्ध होकर भी अवनीविख्यात-वनी इस नामसे प्रसिद्ध नहीं थे (परिहार पक्षमें अवनी-पृथिवीपर प्रसिद्ध थे) तथा देवांगनाओंके समूहको हर्ष उत्पन्न करनेवाली शालाओंसे सुशोभित होकर भी विशाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476