Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 340
________________ -४९ ] तेन शम्पालतासंकाशनिलिम्पनटीसंगतेन राजतविराजितनाट्यशालायुगलेन वेलितविद्युल्लताकलितस्तनितमुखरितशारदनीरदयुगलेनेव विराजमाना, ततश्च तदानीमुदारतपसा भगवता निरस्तकर्मश्यामिकाशङ्काकरीं सौरभ्यलुब्धमधुकरश्रेण्या मञ्जुलमुञ्जितव्यञ्जितभेदां धूपधूमपरम्परां जनयता प्रतिमार्गं परिलसता शातकुम्भकुम्भयुगेन संभाविता, ततः परं कामिनीजनेनेव तरुणाञ्चितेन परिशोभितरूपगतेन पयोधरोज्ज्वलसरस्थितिरमणीयेन सद्यस्तनस्तबकभरभरितेन ५ अष्टमः स्तबकः ३०१ द्वाराणां प्रान्तयोरुभयतटयोविलसितेन शोभितेन, मृदुमृदङ्गनिनाद एव कोमलमुरजशब्द एव गर्जनं स्तनितं तेन शोभितेन समलङ्कृतेन शम्पालतासंकाशा विद्युद्वल्लीसदृश्यो या निलिम्पवटयो देवनर्तक्यस्ताभिः संगतेन सहितेन राजतेन रौप्येण विराजितं शोभितं यन्नाटघशाला युगलं नाटयभवनयुगं तेन वलिताः स्फुरन्त्यो या विद्युल्लताः तद्विल्लर्यस्ताभिः कलितं सहितं स्तनितेन गर्जितेन मुखरितं शब्दायमानं च यत् शारदनीरदयुगलं शरदृतुसंबन्धि वारिदयुगं तद्वत् तेन विराजमाना शोभमाना, ततश्च नाट्यशालानन्तरं च तदानों तस्मिन् १० काले उदारतपसा महातपश्चरणेन भगवता वृषभेण निरस्ता दूरीकृता या कर्मश्यामिका कर्मकालिमा तस्याः शङ्काकरों संदेहोत्पादिकां सौरम्यलुब्धा सौगन्ध्यलुब्धा या मुग्धमधुकराणां सुन्दरषट्पदानां श्रेणीः पङ्क्तिस्तया मञ्जुल गुञ्जितेन मनोहर गुञ्जनशब्देन व्यञ्जितः प्रकटितो भेदो वैशिष्टयं यस्यास्तां धूपधूमस्य सुगन्धित चूर्ण - धूमस्य परम्परा संततिस्तां जनयता समुत्पादयता प्रतिमार्ग प्रतिसरण परिलसता शोभमानेन शातकुम्भकुम्भयुगलेन सुवर्णकलशयुग्मेन संभाविता शोभिता, ततः परं धूपघटयुगलानन्तरं क्रीडोद्यानचतुष्टयेन केल्युपवन- १५ चतुष्केण जुष्टा सहिता तस्य भगवतः सभा विभाति स्म शोभते स्म । अथ तदेव क्रीडोद्यानचतुष्टयं विशेषयितुमाह--कामिनीजनेनेव वनितावृन्देनेव उभयोः सादृश्यं यथा - तरुणाञ्चितेन तरुणा वृक्षेण जातित्वादेकवचनं अञ्चितेन शोभितेन कामिनीपक्षे तरुणैर्युवभिरञ्चितेन शोभितेन, परिशोभित रूपगतेन परिशोभिनो ये तरवो वृक्षास्तैरुपगतेन सहितेन कामिनीपक्षे परिशोभितं यद् रूपं सौन्दयं तद् गतेन प्राप्तेन, पयोधरोज्ज्वलसर स्थितिरमणीयेन पयोधराणि जलधराणि उज्ज्वलानि निर्मलानि यानि सरांसि सरोवरास्तेषां स्थित्या सद्भावेन २० रमणीयं तेन कामिनीपक्षे पयोधरेषु स्तनेषु उज्ज्वला देदीप्यमाना ये सरा हारास्तेषां स्थित्या रमणीयेन, सद्यस्तनस्तबकभरविराजितेन सद्योभवाः सद्यस्वनाः ते च ते स्तबकाश्च गुच्छकाश्च तेषां भरेण समूहेन विरा Jain Education International उस युगलसे सुशोभित हो रही थी जो द्वारपाल रूप यक्ष जातिके देवोंसे सुरक्षित गोपुरोंके समीपमें सुशोभित थे, जो मृदंगोंके कोमल शब्दरूप गर्जनासे युक्त थे, जिनमें बिजली रूपी लताओंके समान देव नर्तकियाँ नृत्य कर रही थीं और जो कौंदती हुई बिजलीरूपी लताओंसे २५ युक्त तथा गर्जनासे शब्दायमान शरदऋतुके मेघ युगलके समान जान पड़ते थे । नाट्यशालाओंसे आगे चलकर वह सभा प्रत्येक मार्ग में सुशोभित सुवर्णमय धूपघटोंके उस युगल से सुशोभित हो रही थी जो उस समय उत्कृष्ट तपसे युक्त भगवान् के द्वारा दूर की हुई कर्म कालिमाकी शंकाको करनेवाली सुगन्धित धूपके धूमकी परम्पराको उत्पन्न कर रहे थे उस धूमकी परम्परापर सुगन्धके लोभी सुन्दर भ्रमरोंकी पंक्ति भी मँडरा रही थी, उसकी मनोहर ३० गुंजारसे धूमपरम्परा और भ्रमर पंक्तिमें भेद प्रकट हो रहा था । धूप घटोंसे आगे चलकर वह सभा क्रीड़ाके उन चार उपवनोंसे सुशोभित हो रही थी जो ठीक स्त्री समूहके समान थे, क्योंकि जिस प्रकार स्त्रीसमूह तरुणांचित - तरुण पुरुषोंसे अंचित होता है, उसी प्रकार उपवन भी तरुणांचित - वृक्षोंसे अंचित सुशोभित थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह परिशोभितरूपगत- अत्यन्त शोभायमान रूपसे सहित होता है उसी प्रकार उपवन भी परिशोभि- ३५ तरूपगत—अत्यन्त शोभायमान वृक्षोंसे सहित थे, जिस प्रकार स्त्रीसमूह पयोधरोज्ज्वल १. चलित क० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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