Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 314
________________ -५० ] सप्तमः स्तबकः नभसि नभश्चरेस्तदनु प्रेयबन्धुरेः सुरासुरैश्च निरुह्यमानस्तारापथादापतन्त्या दीक्षाङ्गनाकटाक्षधारानुकारिण्या सौरभ्यसमाकृष्टभृङ्गश्रेण्या पुष्पवृष्ट्या व्याकीर्णः, सुरवन्दिसंदोहपापठ्यमानमङ्गलारावसंगतप्रस्थानभेरीभाङ्कारेण संसूचितमोहारिविजययात्रः, नभःस्थलोड्डीनहंस सहस्रशङ्काकरैः सुरनिकरव्याधूयमानचामरैर्निलिम्पकरपङ्कजविधृतधवलातपत्रेण परिनिष्क्रमण विलोकन कौतुक - समायात पूर्णेन्दुबिम्बप्रतिबिम्बेन च सेव्यमानः शोकानिलसमाघातवेपमानतनुलताभिः स्खलत्पदन्यासमनुव्रजन्तीभिः मूर्च्छामीलितनयनमधिधरणीपृष्ठं निपत्य कथंचिद्वृद्धधात्रीजनेन समुद्धृताभिरुत्कम्पस्तनयुगलावत्रस्तांशुकाभिर्विगलत्कचनिचयनिष्पतत्पुष्पमालाभिर्देवीभिर्मध्ये मार्ग महत्तरः कञ्चुकिवरैनिरुद्धाभिर्दूरादुद्गतग्रीवं निरोक्ष्यमाणः शुद्धान्तमुख्याभिः परिवारिताभ्यां भर्तुरिच्छानुवर्तनीभ्यां यशस्वती सुनन्दाभ्यां मरुदेव्या चान्वीयमानो नाभिराजभरतेश्वर बाहुबलिकच्छ संगतः सहितः प्रस्थानभेरीणां प्रयाणदुन्दुभीनां यो भाङ्कारोऽव्यक्तशब्दविशेषस्तेन संसूचिता सम्यग्निवेदिता १० मोहारिविजययात्रा मोहशत्रुविजययात्रा येन तथाभूतः, नभःस्थले गगनतले उड्डीनानि समुत्पतितानि यानि हंससहस्राणि मरालसहस्राणि तेषां शङ्काकरैः संशयोत्पादकैः सुरनिकरेण देवसमूहेन व्याधूयमानाः कम्प्यमाना ये चामरा बालव्यजनानि तैः परिनिष्क्रमणस्य दीक्षाकल्याणकस्य विलोकन कौतुकेन दर्शनकुतूहलेन समायातं समागतं यत् पूर्णेन्दुबिम्बं पूर्णचन्द्रमण्डलं तस्य प्रतिबिम्बं सदृशं तेन निलिम्पकरपङ्कजेन देवपाणिपद्मेन विधूतं यद् धवलातपत्रं शुक्लच्छत्रं तेन च सेव्यमानः समाराध्यमानाः शोकानिलस्य शोकपवनस्य समाघातेन १५ वेपमाना कम्प्यमाना तनुलता शरीरवल्ली यासां ताभिः स्खलन्तः पदन्यासाः चरणनिक्षेपा यस्मिन्कर्मणि यथा स्यात्तथा अनुव्रजन्तीभिरनुगच्छन्तीभिः मूर्च्छया मीलिते नयने यस्मिन्कर्मणि यथा स्यात्तथा मूर्च्छामीलितनयनं अधिधरणीपुष्ठे महीतले निपत्य नितरां पतित्वा कथंचित् केनापि प्रकारेण वृद्धधात्रीजनेन स्थविरोपमातृसमूहेन समुद्धृताभिः समुत्थापिताभिः, उत्कम्पं कम्पनशीलं यत् स्तनयुगलं तस्मादवत्रस्तमघः पतितं अंशुकं यासां ताभिः विगलतः शिथिलीभवतः कचनिचयात् केशसमूहात् निष्पतन्त्यः पुष्पमालाः कुसुमराजो यासां २० ताभिः, मध्ये, मार्ग मार्गस्य मध्ये महत्तरैः प्रधानैः कञ्चुकिवरैः श्रेष्ठसोविदल्लैः निरुद्धाभिः अग्रे गन्तुं प्राप्तनिषेषाभिः देवीभिः प्रधानराज्ञीभिः उद्गता समुत्पातिता ग्रीवा गलो यस्मिन् कर्मणि यथा स्यात्तथा निरीक्ष्यमाणः समवलोक्यमानः, शुद्धान्त मुख्याभिः अन्तःपुरप्रधानाभिः परिवारिताभ्यां परिवेष्टिताभ्यां भर्तुः स्वामिनः इच्छानुवर्तिनीभ्यां इच्छानुकूलप्रवर्तिनीभ्यां यशस्वती सुनन्दाभ्यां तन्नामपत्नीभ्यां मरुदेव्या नाभिराजपत्न्या च अन्वीयमानः अनुगम्यमानः, नाभिराजश्च भरतेश्वरश्च बाहुबली च कच्छवच महाकच्छश्चेति नाभिराज- २५ , Jain Education International २७५ हुए हजारों हंसों की शंका करनेवाले, देव समूह के द्वारा कम्पित चामरों और देव समूहके हस्तकमलके द्वारा धारण किये हुए उस सफेद छत्रसे जो कि दीक्षा कल्याणकको देखनेके कौतूहलसे आये हुए पूर्ण चन्द्रबिम्बके समान जान पड़ता था, उनकी सेवा हो रही थी । शोकरूपी वायुके आघात से जिनकी शरीररूपी लता कम्पित हो रही थी, जो लड़खड़ाते कदम रखती हुई पीछे-पीछे चल रही थीं, मूच्र्च्छासे नेत्र बन्द हो जानेके कारण जो पृथिवीतल ३० पर गिर पड़ी थीं तथा वृद्ध धात्रीजनोंने जिन्हें किसी तरह ऊपर उठाया था, काँपते हुए स्तन युगलसे जिनका वस्त्र नीचेकी ओर खिसक गया था, जिनके खुले हुए केशोंके समूह से फूलों की मालाएँ गिर रही थीं तथा प्रधान कंचुकियोंने जिन्हें बीच मार्ग में ही रोक दिया था ऐसी रानियाँ उन्हें गर्दन उठाकर देख रहीं थीं । अन्तःपुरकी मुख्य स्त्रियाँ जिन्हें घेरे हुई थीं तथा जो पतिकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करती थीं ऐसी यशस्वती और सुनन्दा तथा माता ३५ मरुदेवो उनके पीछे-पीछे चल रही थीं। इस तरह नाभिराज, भरतेश्वर, बाहुबली, कच्छ तथा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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