Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 331
________________ २९२ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [८६३२दाता प्रवादिसम्यग्गुणमणिनिलयों देयमाहारशास्त्रे भैषज्यं चाभयं चेत्युदितमथ मतं रागशून्यं तु पात्रम् ॥१७॥ ६३२) पात्रं त्रिधा जघन्यादिभेदैर्भेदमुपेयिवत् । जघन्यं शोलवान्मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत् ॥१८॥ $३३ ) सद्दृष्टिमंध्यमं पात्रं निःशीलवतभावनः। सदृष्टिः शीलसंपन्नः पात्रमुत्तममुच्यते ॥१९॥ ६३४ ) इत्यादिवाचमवकण्यं नृपोत्तमोऽयं भर्तु भवान्सुविभवांश्च निशम्य धोरः। संपूज्य तं कुरुपति कुतुकेन भूयों ध्यायन्गुरोर्गुणगणं स्वपुरं जगाम ॥२०॥ $३५) तदनु निखिलगुणसान्द्रो वृषभयोगोन्द्रः साकलसावद्यातिदूरं जिनकल्पिताचारं प्रचुरतरफलं सातिशयफलयुक्तं कीर्तिलक्ष्मीनिदानं यशःश्रीकारणं सत् पुनाति पवित्रं करोति । श्रद्धादय एवं सम्यग्गुणमणयस्तेषां निलयो गृहं श्रद्धातुष्टिभक्तिप्रभृतिसमीचीनगुणमणिसहितो नरो दाता भवति, आहारश्च शास्त्रं चेत्याहारशास्त्र भैषज्यमोषधं अभयं च भयनिवारणं च इत्येतत देयं दातुं योग्यमदित १५ कथितम्, तु किं तु रागशून्यं रागादिदोषरहितं पात्रं दानभाजनं मतं स्वीकृतम् । स्रग्धराछन्दः ॥१७॥ ६.३२) पात्रमिति-जघन्यादिभेदैः भेदम् उपेयिवत् प्राप्तवत् पात्रं त्रिधा त्रिप्रकारं भवति । तत्र शीलवान् मिथ्यादृष्टिः पुरुषो जघन्यं पात्रं भवेत् ॥१८॥ ३३) सदृष्टिरिति-शीलवतभावनारहितः सम्यग्दृष्टि: मध्यमं पात्रं भवेत् । शीलसंपन्नः सम्यग्दष्टिश्च उत्तम पात्रम् उच्यते ।।१९।। ३४ ) इत्यादीति-नृपोत्तमो राजश्रेष्ठः धीरो धीरप्रकृतिक: अयं भरत इत्यादिवाचं पूर्वोक्तवाणीम् अवकर्ण्य श्रुत्वा भर्तुः स्वामिनो भवान् पूर्वपर्यायान् सुविभवान् समोचीनैश्वर्याणि च निशम्य श्रुत्वा कुतुकेन तं कुरुपति सोमप्रभं श्रेयान्सं च भूयः पुनरपि संपज्य समय गुरोः पितुः गुणगणं गुणसमूहं ध्यायन् चिन्तयन् स्वपुर स्वनगरं जगाम ययो। वसन्ततिलकाछन्दः ॥२०॥६१५) तदन्विति-तदनु तदनन्तरं निखिलगुणैः समग्र गुणैः सान्द्रो निबिडितः वृषभयोगोन्द्रो वृषभमुनीन्द्रः सकलसावयेभ्यो निखिलपापारम्भेभ्योऽतिदूरं विप्रकृष्टतरं जिनकल्पिता इन तीन शुद्धियोंसे उत्पन्न हो तो बहुत माती फलको देनेवाला तथा कीर्ति और लक्ष्मीका कारण २५ होता हुआ पवित्र करता है। जो श्रद्धा आदि समीचीन गुणरूपी मणियोंका घर है वह दाता कहलाता है। आहार, शास्त्र, औषध और अमय ये चार देय कहलाते हैं और रागसे रहित मनुष्य पात्र माना गया है।ROIN १२) पाऋमिति-जघन्य आदिके भेदसे भेदको प्राप्त होता हुआ पात्र तीन प्रकारका होता है उनमें शीलवान मिथ्यादृष्टि पुरुष जघन्य पात्र होता है ॥१८६३३ ) साहिरिति-शीका तथा ब्रसकी भावना से रहित सम्यग्यदृष्टि मध्यमपात्र ३० और शीलसहित सम्यग्दृष्टि उचम पात्र कहा जाता है। विशेष-अन्यत्र अविरत सम्यग्दृष्टिको जपन्यपात्र, पाककके व्रत सहित सम्यग्दृष्टिको मध्यम पात्र और सकल चारित्रके धारक मुनिको उत्तम पात्र कहा गया है ।।१९।। ६३४) इत्यादोति-इत्यादि वचन सुनकर धीर-वीर राजाधिराज मरतने भगवान के पूर्वभव तथा उनके उत्तम वैभवका वर्णन सुना, कुतूहल पूर्वक कुलराजकी पुनः पूजा की और पश्चात् पिताके गुणसमूहका ३५ ध्यान करते हुए अपने नगरकी ओर ममन किया ।।२०।। ६३५ ) तदन्विति-तदनन्तर जो समस्त गुणोंसे परिपूर्ण थे, समस्त पापारम्मसे दूर रहनेवाले जिनकल्पी आचारको स्वीकृत कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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