Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 320
________________ अष्टमः स्तबकः २८१ मुक्ताहारः, सर्वदोपत्यकान्तासक्तः स्वीकृतानन्तवसनो विग्रहोत्थितारातिनिग्रहतत्परश्चेति राज्यलक्ष्मीपरिष्वक्त इव तप:श्रीवल्लभस्त्रिभुवनवल्लभः प्रचुराश्चर्य दुश्चरं तपश्चचार । $२) अयमथ तपःसिद्धया दृश्येतरातपवारण प्रकटितघनच्छायोऽप्युद्यत्परिच्छदनिःस्पृहः । वनघनतरुश्रेणोस्पन्दत्समोरणचञ्चल नवकिसलय रेजे सच्वामरैरिव वोजितः ॥१॥ ३) एवं द्वित्रमासेषु किंचिदूनेषु गतेषु परोषहप्रभजनप्रभजितधृतयस्ते मुनिमानिनो राजर्षयस्तस्य गुरोर्गरीयसी पदवी, सिंहस्येव मृगशावकाः, गरुडस्येवेतरविहङ्गमाः, गन्तुमक्षमाः, संत्यक्तसर्वपरिग्रहस्य मुक्ताहारप्रभृतीनि विरुद्धानीति भावः, परिहारपक्षे मुक्तस्त्यक्त आहारो भोजनं येन तथाभूतः, सर्वदा सदा उपत्यकान्तेषु पर्वतासन्न वसुधान्तेषु आसक्तः, स्वीकृतमङ्गीकृतमनन्तमेव गगनमेव १० वसनं वस्त्रं येन तथाभूतः, विग्रहोत्थिता शरीरोद्भूता येऽरातयः कामक्रोधादयस्तेषां निग्रहे तत्परश्चेति । राजलक्ष्म्या राज्यश्रिया परिष्वक्त इव समालिङ्गित इव तप:श्रीवल्लभस्तपोलक्ष्मीपतिः त्रिभुवनवल्लभस्त्रिजगदधीश्वरो वृषभजिनेन्द्रः प्रचुराश्चयं विपुलाश्चर्ययुक्तं दुश्चरं दुःखेन चरितुं शक्यं दुश्चरं कठिनं तपः चचार चरति स्म । ६२ ) अयमिति-अथानन्तरं तपःसिद्ध्या तपश्चरणसमुद्भूतद्धिप्रभावेण दृश्येतरोऽदृश्यो य आतपवारणः छत्रं तेन प्रकटिता प्रादुर्भूता घनच्छाया तीव्रानातपो यस्य तथाभूतोऽपि उद्यत्परिच्छदे १५ प्रकटीभवत्परिकरे निःस्पृहः प्रोतिरहितः, अयं वृषभजिनेन्द्रः वनस्य गहनस्य घनतरुधण्या सान्द्रमही रुहसंतत्या स्पन्दन् संचलन् यः समीरणो वायुस्ते चञ्चलन्तो नितरां संचलन्तो ये नवकिसलया नूतनपल्लवास्तैः सच्चामरैः प्रशस्तबालव्यजनः वोजितो व्याधूत इव रेजे शुशुभे । उत्प्रेक्षा। हरिणी छन्दः ॥१॥ ३) एवमितिएवमित्थम् किंचिदूनेषु द्वौ वा त्रयो वा इति द्वित्राः ते च ते मासाश्चेति द्वित्रमासेषु गतेषु सत्सु परीषह एव प्रभञ्जनस्तीवपवनस्तेन प्रभञ्जिता धृतिर्येषां तथाभूताः ते कच्छमहाकच्छादयो मुनिमानिनः आत्मानं मुनि २० मन्यन्त इति मुनिमानिनः कृत्रिममुनयः राजर्षयः, गुरोर्वृषभेश्वरस्य गरीयसी गरिष्ठां पदवी पद्धति, मृगशावका हरिणशिशवः सिंहस्येव मुगेन्द्रस्येव, इतरविहङ्गमा अन्यपक्षिणो गरुडस्येव पक्षिराजस्येव, गन्तुं यातुम् सर्वदोपत्यकान्तासक्त-सब कुछ देनेवाले तथा पुत्र और स्त्रियों में आसक्त थे ( परिहारपक्षमें सर्वदा-सदा पर्वतकी तलहटियोंमें आसक्त थे), स्वीकृतानन्तवसन-अनन्त वस्त्रोंको स्वीकृत करनेवाले थे ( परिहारपक्षमें आकाशरूपी वस्त्रको स्वीकृत करनेवाले थे ) और विग्रहोस्थि- २५ तारातिनिग्रहतत्पर-युद्धमें खड़े हुए शत्रओंका दमन करनेमें तत्पर थे ( परिहारपक्षमें शरारमें उत्पन्न काम क्रोध आदि शत्रओंका दमन करने में तत्पर थे) इस प्रकार जो राज्यलक्ष्मीसे आलिंगित हएके समान जान पडते थे, तथा जो तपरूपी लक्ष्मीके स्वामी थे ऐसे तीन जगत्के स्वामी भगवान् वृषभ जिनेन्द्रने बहुत भारी आश्चर्योंसे सहित कठिन तप किया २) अयमिति-तदनन्तर तपकी सिद्धिके कारण अदृश्य छत्रके द्वारा बहुत भारी छायाके ३० प्रकट होनेपर भी जो प्राप्त होनेवाले परिकरमें निःस्पृह थे ऐसे वे भगवान् वृषभ जिनेन्द्र, वनकी सघन वृक्षावलीसे चलनेवाली वायुके द्वारा अत्यन्त चंचल पल्लवसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो उत्तम चामरोंसे वीजित ही हो रहे हों अर्थात् उन पर उत्तम चामर ही ढोरे जा रहे हों ॥२॥६३) एवमिति-इस प्रकार कुछ कम दो तीन माहोंके व्यतीत होने पर परीषह रूपी आँधीके द्वारा जिनके धैर्य टूट गये थे ऐसे वे अपने आपको मुनि मानने वाले कच्छ, ३५ महाकच्छ आदि राजर्षि वृषभ जिनेन्द्रके मार्ग पर चलनेके लिए उस प्रकार असमर्थ हो गये जिस प्रकार कि सिंहके मार्गपर चलनेके लिए हरिणके बच्चे और गरुडके मार्ग पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476