Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 279
________________ ५ २४० पुरुदेव चम्पूप्रबन्धे [ ६।९४६ वेदनसंभ्रमसंचरद्वृद्धकञ्चुकी निकरपुरःसरपरिवारजननिर्दयसंमर्द्दनिपतित कुब्जवामनवर्षंधरनिकुरम्बा, लम्बमानकुचविम्बविस्रस्तान्तरीय वृद्धधात्रीजनपरिकलित नर्तननिरीक्षणजनितपुरजनहास्य रसा, युग - पत्तरङ्गितमङ्गलसंगोतसंगतानेकगान कलयानुगतलीलालास्यप्रसक्तकामिनीजनकमनीया, साकेतपुरी वेलातीतपौरजनप्रमोदा, अजायत । $ ४६ ) तदानीं क्षोणीशे वितरति बहूनर्थनिवहान् सुरव्यूह द्रागहह दिवि पञ्चत्वमभजत् । तथा चिन्ताश्मत्वं सुरमणिरवाप प्रकृतितो जग हे स्वर्धेनुः सपदि शतमन्युं दृढतरम् ॥३१॥ झङ्कारेण अव्यक्तशब्देन मनोहारिणो रम्या ये कुसुमोपहारा: पुष्पोपहारास्तैर्मण्डितं समलंकृतं रथ्याङ्गणं १० राजमार्गाजिरं यस्यां तथाभूता, महीपतीति — महीपतये राज्ञे निवेदनं समाचारदानं तस्य संभ्रमेण सत्वरत्वेन संचरन्तः समन्वात् चलन्तो ये वृद्धकञ्चुकी निकरा: स्थविर सौविदल्लसमूहास्ते पुरःसरा अग्रेसरा येषां तथाभूता ये परिवारजनाः कुटुम्बिजनास्तेषां निर्दयसंमर्द्देन निष्करुणसमाघातेन निपतितानि कुब्जवामनवर्षंधरा कुब्जखर्वशिखण्डिजनानां निकुरम्बाणि कदम्बकानि यस्यां तथाभूता, लम्बमानेति - लम्बमानेभ्यः संसमानेभ्यः कुचबिम्बेभ्यो वक्षोजमण्डलेभ्यो विस्रस्तं नीचैः पतितमन्तरीयं वस्त्रं येषां तथाभूता ये वृद्धधात्रीजनाः स्थविरो१५ मातृसमूहास्तैः परिकलितं कृतं यन्नर्तनं नृत्यं तस्य निरीक्षणेन समवलोकनेन जनितः समुत्पादितः पुरजनानां नागरनराणां हास्यरसो यस्यां तथाभूता, युगपदिति – युगपद् एककालावच्छेदेन तरङ्गितानि वृद्धिगतानि यानि मङ्गलसंगीतानि तेषु संगतानि समायोजितानि यानि अनेकगानकानि नानाविधोपधानानि तेषां लयं स्वरतानमनुगतानि यानि लीलालास्यानि लीलानृव्यानि तेषु प्रसक्ताः संलग्ना ये कामिनीजनाः स्त्रीसमूहास्तैः कमनीया मनोहरा वेलातीतो निर्मर्यादः पौरजनानां नागरनराणां प्रमोदो हर्षो यस्यां तथाभूता । स्वभावोक्तिः । २०४६ ) तदानों क्षोणीश इति तदानीं पुत्रजन्मावसरे क्षोणोशे वृषभजिनेन्द्रे बहून् प्रभूतान् अर्थनिवहान् धनसमूहान् वितरति ददति सति सुरणां कल्पतरूणां व्यूहः समूहः द्राग् झटिति दिवि स्वर्गे पञ्चत्वं पञ्चतां मृत्युमिति यावत् पक्षे पञ्चसंख्यात्वं अभजत् । तथा सुरमणिर्देवमणिः प्रकृतितो निसर्गतः चिन्ताश्मत्वं चिन्तया अश्मत्वं पाषाणत्वं पक्षे चिन्तामणित्वम् अवाप प्राप्तवान् स्वर्धेनुः कामधेनुः सपदि शीघ्रं दृढतरं प्रबलं शतमन्युं शतशोकं पक्षे इन्द्रं 'मन्युः पुमान् क्रुधि । दैन्ये शोके च यज्ञे च' इति मेदिनी, 'मन्युर्देन्ये तो को २५ वासवे तु शतात्परः' इति विश्वलोचनः, जगाहे प्राप अहह इति खेदे 'अहहाद्भुतखेदयो:' इति विश्वलोचनः । ३० उपहारसे जिसमें राजमार्ग के मैदान सुशोभित हो रहे थे, राजाके लिए पुत्रजन्म सम्बन्धी सूचना देने की उतावलीसे सब ओर चलते हुए वृद्ध कञ्चुकियों के समूह जिनके आगे-आगे चल रहे थे ऐसे परिवार के लोगों की निर्दय धक्काधूमीसे जहाँ कुबड़ों, बौनों और हिजड़ोंके समूह गिर गये थे, लटकते हुए स्तनबिम्बोंके ऊपर से जिनके वस्त्र नीचे की ओर खिसक गये थे ऐसी वृद्ध घायोंके द्वारा किये हुए नृत्यको देखनेसे जहाँ नगरवासी जनोंको हास्यरस उत्पन्न हो रहा था, और एक साथ वृद्धिको प्राप्त हुए मंगलमय संगीतके बीच बीच में मिले हुए अनेक उपगानोंकी लयके अनुसार होनेवालो नृत्य क्रीड़ामें व्यस्त स्त्रीजनोंसे जो सुन्दर थी ऐसी वह अयोध्यापुरी नागरिकजनोंके बहुत भारी हर्षसे युक्त हो रही थी । ई ४६ ) तदानों क्षोणीश इति --- उस समय जब राजा वृषभदेव बहुत भारी धनसमूहका वितरण कर रहे थे ३५ तब खेद है कि कल्पवृक्षों का समूह शीघ्र ही स्वर्ग में पचता - मृत्यु ( पक्ष में पाँच संख्या ) को प्राप्त हो गया, देवमणि स्वभाव से ही चिन्ताके कारण पाषाणपनेको प्राप्त हो गया ( पक्षमें चिन्तामणि बज गया ) और कामधेनु शीघ्र ही बहुत भारी शतमन्यु - सैकड़ों प्रकारके शोक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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