Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 298
________________ - १७ ] सप्तमः स्तबकः २५९ १७) ततः परं नाकराजो नाभिराजादिपरिवृतस्त्रिभुवनगुरुपट्टाभिषेकाय त्वरमाणः, शुभे मुहूर्त, सुरशिल्पिजनकल्पिते, मञ्जुलसुरभिमृत्स्नाविरचितबेदिकाविराजमाने, चञ्चत्यञ्चरत्नचूर्णविरचितरङ्गवल्लीविराजितसुनाशीरशरासने, व्यामुक्तमुक्ताफलशोभमानविरचितवितानचित्रच्छायाछुरितसुन्दरपुरन्दरमणिकुट्टिमबन्धुरतया विडम्बितसंध्यारागरञ्जितसौदामिनीसंगतनीलजलधरपटले, विविधोपकरणसमुद्धरणनियभितानेकनाककामिनीनिरुद्धसंचारमार्गे, संचरत्पौरविला- ५ सिनोललितमृदुलपदन्यासमञ्जुगुञ्जन्मजीरमनोहरझङ्कारप्रवर्धमानकोलाहले, पारावार इव परि ॥११।१७) तत इति-ततः परं तदनन्तरं न विद्यतेऽकं दुःखं यत्र स नाकः स्वर्गस्तस्य राजा नाकराजः २.क्र: नाभिराजादिभिः परिवृतः परीतः त्रिभुवनगुरोवृषभजिनेन्द्रस्य पट्टाभिषेकाय राज्याभिषवाय त्वरमाणः शोघ्रतां कुर्वाणः, शुभे प्रशस्ते मुहूर्ते नृपभवस्य राजमन्दिरस्य मध्ये लसमानः शोभमानो योऽभिषेकमण्डपस्तस्मिन् सुरवारवनितानां निलिम्पविलासिनीनां करपल्लवैः पाणिकिसलयः विधयमानानां कम्प्यमानानां १० चारुचामराणां सुन्दरबालव्यजनानां समीरेण वायुना आन्दोलिताश्चालिताः, प्रलम्बमाना दीर्घायता या मन्दारमालाः कल्पानोकहकुसुमस्रजस्ताभिरञ्चितं शोभितं देवं त्रिभुवनपति जिनेन्द्रं हरिविष्टरे सिंहासने प्राङ्मुखं पूर्वाभिमुखं यथा स्यात्तथा विनिवेशयामास स्थापयामासेति कर्तृकर्मक्रियासंबन्धः । अथाभिषेकमण्डपं वर्णयितुमाह-सुराश्च ते शिल्पिजनाश्चेति सुरशिल्पिजना देवकार्यकरास्तैः कल्पिते रचिते, मञ्जुला मनोहरा सुरभिः सुगन्धिश्च या मृत्स्ना मृत्तिका तया विरचिता निर्मिता या वेदिका परिष्कृता भूमिस्तया विराजमाने १५ शोभमाने, चञ्चता शुम्भता पञ्चरत्नचूर्णेन पञ्चविधरत्नकणिकानिकरेण विरचिता निर्मिता या रङ्गवल्ल्यः पत्रलतास्ताभिविराजितं विशोभितं सुनाशरिशरासनं शक्रचापो यस्मिस्तस्मिन्, व्यामुक्तः व्यालम्ब्य धृतर्मुक्ताफलौक्तिकैः शोभमाना विराजमाना ये विरचितविताना निर्मित चन्द्रोपकास्तेषां चित्रच्छायाभिविविधकान्तिभिः छुरितो व्याप्तो यः सुन्दरपुरंदरमणिकुट्टिमो मनोहरमहानीलमणिभूपृष्टस्तेन बन्धुरतया शोभिततया विडम्बितस्तिरस्कृतः संध्यारागरञ्जितः सांध्यारुणिमरक्तः सौदामिनीसंगतश्च विद्युत्सहितश्व नीलजलधरपटलः २० श्यामलघनसमूहो येन तस्मिन्, विविधोपकरणानां नानाविधसामग्रीणां समुद्धरणे नियमिता: संलग्ना या नेकन ककामिन्यो बहुदेव्यस्ताभिनिरुद्धः संचारमार्गो यातायातसरणियस्मिस्तस्मिन्, संचरन्तीनां भ्रमन्तीनां पौरविलासिनीनां नागरिकनारीणां ललितमलैः चारुकोमलैः पदन्यासैश्चरणनिक्षेपैमजुमनोहरं यथा स्यात्तथा साथ स्वर्गसे उत्सव सहित अवतीर्ण हुआ--पृथिवीपर आया ॥१२॥ १७) तत इति --- तदनन्तर जो नाभिराजा आदिके द्वारा घिरा हुआ था और त्रिलोकीनाथका राज्याभिषेक २५ करने के लिए शीघ्रता कर रहा था ऐसे इन्द्रने शुभमुहूर्तमें राजभवनके मध्यमें सुशोभित अभिषेक मण्डपमें सुरबालाओंके करकिसलयोंसे चलाये जानेवाले सुन्दर चामरोंकी वायुसे कम्पित लटकती हुई कल्पवृक्षके फूलोंकी मालाओंसे सुशोभित भगवान्को सिंहासनके ऊपर पूर्वाभिमुख बैठाया। वह अभिषेकमण्डप देव कारीगरोंके द्वारा निर्मित था, मनोहर तथा सुगन्धित मिट्टी के द्वारा विरचित वेदिकासे सुशोभित हो रहा था, चमकदार पंचरत्नोंके ३० चूर्णसे विरचित रंगीन बेलबूटोंके द्वारा उस मण्डपमें इन्द्रधनुष सुशोभित हो रहा था, लटका कर लगाये हुए मोतियोंसे सुशोभित जो नानारंगके चँदोवा बनाये गये थे उनकी रंगबिरंगी कान्तिसे वहाँका नीलमणि निर्मित फर्स व्याप्त हो रहा था इसलिए वह मण्डप सन्ध्या की लालिमासे रँगे तथा बिजलीसे सहित श्यामल मेघ-समूहको तिरस्कृत कर रहा था, नाना प्रकारके उपकरणोंके उठाने में लगी हुई अनेक देवांगनाओंके द्वारा उस मण्डपमें यातायातका ३५ मार्ग रुक गया था, इधर-उधर चलती हुई नगर-निवासिनी स्त्रियों के सुन्दर तथा कोमल चरणोंके निक्षेपसे सुन्दर शब्द करनेवाले नू पुरोंकी झंकारसे उस मण्डपमें कोलाहल बढ़ रहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476