Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 310
________________ -४० ] सप्तमः स्तबकः बाह्ये पुत्रकलत्र मुख्यविभवे का वा मनीषाजुषा - माथा किंतु विमष्टतमिदं बध्नाति सर्वं जनम् ||२७|| $ ३९ ) जन्तुः पापवशादवाप्तनरको भुक्त्वातिदुःखं तत च्युत्वा कालवशेन याति विविधं तेरश्चदुःखं ततः । एवं दुःखपरम्परामतितरां भुक्त्वा मनुष्यः पुन जतश्चेत्स्वहिने मति न कुरुते तदुःखमात्यन्तिकम् ||२८|| ४०) एवं चिन्तयन्तं मुक्तिलक्ष्म्या संदिष्टाभिः समागताभिस्तत्तखीभिरिव विशुद्धिभिः समाश्रितान्तरङ्गं देवं बोधयितुं सारस्वतादित्यप्रमुख लोकान्तिकसुरपङ्क्तिर्मुकुटमणिघृणिभिर्निरभ्रेऽपि गगने पुरंदरचापलक्ष्मोमङ्कुरयन्ती मुकुलीकृतहस्तपल्लवा त्रिभुवनवल्लभमासाद्य प्रणम्य चेमां वाचमुवाच । Jain Education International २७१ देहश्चेत् कालेन विलयं विनाशं प्राप्नोति तहि मनीषाजुषां मनीषिणां बाह्ये बहिर्भवे पुत्रकलत्रमुख्यविभवे सुतस्त्रीप्रभृतिविभूती का वा आस्था आदरबुद्धिः न कापीत्यर्थः किंतु इदं विमोहचेष्टितं अज्ञानविलासः सर्व जनं निखिलं लोकं बध्नाति स्ववशं विदधाति । शार्दूलविक्रीडित छन्दः ॥ २७॥ ६३९ ) जन्तुरिति - जन्तुः प्राणी पापवशात् दुरितवशात् अवाप्तनरकः प्राप्तश्वभ्रः सन् अतिदुःखं तीव्रकष्टं भुक्त्वा ततो नरकात् च्युत्वा निर्गत्य कालवशेन विविधं नानाप्रकारं तिरश्चामिदं तैरश्वं तच्च तद् दुःखं चेति तैरश्चदुःखं तैर्यग्योनिजदुःखं १५ याति प्राप्नोति ततस्तदनन्तरं एवं पूर्वोक्तां दुःखपरम्परां दुःखसंततिम् अतितरां नितरां भुक्त्वा पुनः पश्चात् चेत् यदि मनुष्यो जातः समुत्पन्नः सन् स्वहिते स्वश्रेयसि मति बुद्धि न कुरुते तत् आत्यन्तिकं तीव्रं दुःखमस्तीति शेषः ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥ २८ ॥ ६४० ) एवमिति - एवं पूर्वोक्तप्रकारेण चिन्तयन्तं विचारयन्तं मुक्तिलक्ष्म्या निर्वृतिश्रिया संदिष्टाभिः प्राप्तसंदेशाभिः समागताभिः समायाताभिः तत्सखीभिरिव मुक्तिलक्ष्मी सहचरीभिरिव विशुद्धिभिः प्राप्तवैराग्य भावनाभिः समाश्रितान्तरङ्गं संसेवितहृदयं देवं भगवन्तं बोधयितुं सारस्वता - २० दित्यप्रमुखा या लौकान्तिकसुरपङ्क्तिः देवर्षिसंततिः साः 'सारस्वतादित्यवहृचरुणगदंतोय तुषिताव्यावाधारिष्टारच' इत्यष्टविधा लौकान्तिकदेवा आगमे प्रसिद्धाः, मुकुटमणिघृणिभिः मौलिरत्नरश्मिभिः निरभ्रेऽपि धनरहितेऽपि गगने नभसि पुरंदरचापलक्ष्मीं शक्रशरासनश्रियम् अङ्कुरयन्ती प्रकटयन्ती, मुकुलीकृत हस्तपल्लवा कुड्मलोकृतकरकितलया सती त्रिभुवनवल्लभं त्रिजगदधीश्वरम् आसाद्य प्राप्य प्रणम्य नमस्कृत्य च इमां १० और पानी के समान परस्पर मिश्रताको प्राप्त होता हुआ चिरकालसे सुख दुःखका आधार २५ ना हुआ है वह भी यदि कालके द्वारा विनाशको प्राप्त हो जाता है तो बुद्धिमान मनुष्यों का फिर बाह्यभूत पुत्र तथा स्त्री आदि मुख्य वैभवमें कौन सी आदर बुद्धि हो सकती है ? अर्थात् कोई भी नहीं। फिर भी यह अज्ञानकी चेष्टा सब जीवोंको बाँध रही है—बन्धनमें डाल रही है ||२७|| $३९ ) जन्तुरिति - यह जीव पापके वशसे नरकको प्राप्त होता है वहाँ बहुत भारी दुःख भोगकर कालके वशीभूत हो वहाँसे निकलकर तिर्यंचोंके नाना दुःखोंको ३० प्राप्त होता है । इस प्रकार अत्यन्त तीव्र दुःखोंकी परम्पराको भोगकर मनुष्य हुआ है और फिर भी आत्महित में बुद्धि नहीं लगाता है तो अत्यन्त दुःखको उत्पन्न करता है || २८ ॥ १४० ) एवमिति - जो इस प्रकार विचार कर रहे थे, तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मीके द्वारा सन्देश प्राप्त कर आयी हुई उसकी सखियोंके समान विशुद्धियोंसे जिनका अन्तरंग सेवित हो रहा था ऐसे वृषभ जिनेन्द्रको सम्बोधनके लिए सारस्वत आदित्य आदि लौकान्तिक देवोंकी ३५ पंक्ति मुकुट सम्बन्धी मणियोंकी किरणोंसे मेघशून्य आकाशमें भी इन्द्रधनुषकी शोभाको For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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