Book Title: Purudev Champoo Prabandh
Author(s): Arhaddas, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 283
________________ २४४ पुरुदेवचम्पूप्रबन्धे [६६५३$ ५३ ) शरीरवल्लीकुसुमायमानं तारुण्यमेतस्य ततो जजृम्भे । सौन्दर्यलक्ष्मीविनिवासभूमेः सुवर्णखण्डस्य यथा सुगन्धः ॥३५॥ $५४ ) पितुर्यादृक् तादृक् ललितगमनं सैव च तनुः __ कला लीला सैव स्मितमपि तदेव द्यु तिरपि । वचः शीलं तद्वन्मधुरमिति सर्वेऽपि सुगुणा स्तथैव प्रोद्भूता न तु गुणविशेषो व्यलसत ॥३६॥ $ ५५ ) अयं खलु मनुकुलपूर्वाचला मणिभूपालतनयचूडामणिर्मदन इति मानिनीभिः, सुरतरुरिति वनोपकजनैवस्वत इति विद्वेषिगणैः, कलासदनमिति कोविदैर्गन्धर्व इति गायकैः, स्नेह इति धनैः, अनाश्रयणीय इति दोषैः, दुर्ग्रहचित्तवृत्तिरिति चित्तभुवा, स्त्रीपर इति सरस्वत्या, जनक १० इति कीर्त्या, पतिरिति लक्ष्म्या, षण्ढ इति परकलत्रैर्जगत्पालक इति प्रजाभिरगृह्यत । प्रविवेश । ६ ५३ ) शरीरेति-ततस्तदनन्तरं सौन्दर्यलक्ष्म्या विनिवासभमिस्तस्य सौन्दर्यश्रीसदनस्य एतस्य भरतस्य शरीरवल्ल्यास्तनुलतायाः कुसुमायमानं पुष्पायमाणं तारुण्यं यौवनं सुवर्णखण्डस्य काञ्चनशकलस्य सुष्ठु गन्धः सुगन्धः सुरभिर्यथा जजम्भे ववृधे । रूपकोपमा । उपजातिवृत्तम् ॥३५॥ ६५४ ) पितुरिति पितुर्जनकस्य वृषभजिनेन्द्रस्य यादृक् यादृशं ललितगमनं सुन्दरगमनं तादृक्ललितगमनं, सैव च पितृसदृश्येव १५ तनुर्मूर्तिः 'स्त्रियां मूर्तिस्तनुस्तनूः' इति धनंजयः । कला लीला सैव पितृसदृश्येव, स्मितमपि मन्दहसितमपि तदेव, द्युतिः कान्तिरपि सैव, वचो वचनं शोलं स्वभावः च तद्वत् पितुरिव मधुरं मनोहरम् । इत्येवं सर्वेऽपि सुगुणाः शोभनगुणाः तथैव पितुर्यथैव प्रोद्भूताः प्रकटिताः, गुणविशेषो गुणानां वैशिष्ट्यं न तु व्यलसत शुशुभे । शिखरिणी छन्दः ॥३६॥ ६५५ ) अयमिति-अयं खलु एष किल, मनुकुलमेव पूर्वाचलस्तत्र धुमणिविरोचनः भूपालतनयेषु राजपुत्रेषु चूडामणिः शिखामणिरिव श्रेष्ठो भरतः, मदनो मीनकेतन इति मानिनीभिः मनस्विनीभिः, सुरतरुः कल्पवृक्ष इति वनीपकजनैर्याचकजनैः, वैवस्वतो यम इति विद्वेषिगणः शत्रुसमूहै:, कलासदनं चातुरीभवनम् इति कोविदर्बुधैः, गन्धर्वो गानप्रियदेवविशेष इति गायकैः, स्नेहः प्रणय इति धनवित्तः, अनाश्रयणीय आश्रयितुमनई इति दोषैरवगणः, दुर्ग्रहा चित्तवत्तिर्यस्य स दर्ग्रहमनोवत्तिरिति चित्तभवा मनोजेन, स्त्रीपरः स्त्रीसक्तः इति सरस्वत्या शारदया, जनकः पितेति कीर्त्या यशसा, पतिवल्लभ इति लक्ष्म्या, षण्ढः क्लीब इति परकलत्रैः परपुरन्ध्रीभिः, जगत्पालकस्त्रिभुवनत्राता इति प्रजाभिर्जनै: अगृह्यत गृहीतः । २५ को गुंजाता हुआ राजभवनमें प्रवेश करता था। $ ५३ ) शरोरेति-तदनन्तर सौन्दर्य लक्ष्मीकी निवासभूमि स्वरूप इस भरतका, शरीररूपी लताके समान आचरण करनेवाला यौवन, सुवर्ण खण्डकी सुगन्धके समान वृद्धिको प्राप्त होने लगा ॥३५।। $ ५४ ) पितुरितिउसका पिताका जैसा ही सुन्दर गमन था, वही शरीर था, वही कला और लीला थी, वही मुसकान थी, वही कान्ति थी, वचन तथा शील भी उन्हीं के समान थे इस तरह उसके ३० सभी गुण पिताके समान ही प्रकट हुए थे, गुणोंमें थोड़ी भी विशेषता नहीं थी ॥३६॥ ६५५) अयमिति-मनुवंशरूपी उदयाचलके सूर्य तथा राजपुत्रों में श्रेष्ठ इस भरतको यह काम है इस प्रकार स्त्रियोंने, कल्पवृक्ष है इस प्रकार याचक जनोंने, यम है इस प्रकार शत्रुदलोंने, कलाभवन है इस प्रकार विद्वानोंने, गन्धर्व है इस प्रकार गायकोंने, स्नेह है. इस प्रकार धनोंने, अनाश्रयणीय है इस प्रकार दोषोंने, इसकी मनोवृत्तिको ग्रहण करना कठिन ३५ है इस प्रकार कामदेवने, स्त्रियोंमें आसक्त है इस प्रकार सरस्वतीने, जनक है. इस प्रकार कीर्तिने, पति है इस प्रकार लक्ष्मीने, नपुंसक है इस प्रकार परस्त्रियोंने और जगत्का रक्षक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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