________________
१०
-९२ ] तृतीयः स्तबकः
१२९ मनोजया तारुण्यलक्ष्म्या निकाशा धैर्यवृत्तिः। सुगन्धिवायुविशोभितरया कल्पकवनवीथिकया सगन्धा सैन्धवपरम्परा।
$ ९२ ) किंच यद्देवीकुचमण्डलेषु मकरीगणश्चक्रभासुरता सरसता चेति युक्तमेव यतोऽत्र सरश्चकासामास किंतु कुचभरो नोरसहितो नासोदित्यद्भतमेव । सप्तविधसैन्यसंततिः करकान्त्या हस्तदोप्त्या तुल्या सदृशी, उभयोः सादृश्यमाह-शोभितसुवर्णसरोरुहयेति- ५ शोभिताः सुवर्णसरा सुवर्णहारा येषां तथाभूताः उरुहया उत्तुङ्गाश्वा यस्यां तथाभूता सप्तानीकपद्धतिः करकान्तिपक्षे शोभितं सुवर्णसरोरुहं स्वर्णकमलं यस्यां तया। यस्य धैर्यवृत्तिः गाम्भीर्यप्रकृतिः तारुण्यलक्ष्म्या यौवनश्रिया निकाशा सदृशी उभयोः सादृश्यमाह-कलितमनोजयेति-कलितः कृतो मनसो मानसस्य जयो वशीकारो यया तथाभूता धैर्यवृत्तिः तारुण्यलक्ष्मीपक्षे कलितो धृतो मनोजः कामो यया तया । यस्य सैन्धवपरम्परा हयश्रेणिः कल्पकवनवीथिकया कल्पतरुवनपङ्क्त्या सगन्धा सदृशी, उभयोः सादृश्यमाह-सुगन्धिवायु विशोभितरयेति-सुगन्धिर्यो वायुस्तद्वत् विशोभितो रयो वेगो यस्यास्तथाभूता सैन्धवपरम्परा कल्पकवनवीथिकापक्षे सुगन्धिगन्धवायुना अतिशयेन विशोभिनीति सुगन्धिगन्धवायुविशोभितरा तया । विभक्तिश्लेषोत्थापितोपमालंकारः । १ ९२ ) किंचेति-तस्याच्युतेन्द्रस्यान्यदपि किंचिद्वर्ण्यते-यद्देवीनां यदीयसुरोणां कुचमण्डलेषु स्तनमण्डलेषु मकरीगणो मकरस्त्रीसमहः, चक्रभासुरता चक्रश्चक्रवाकपक्षिभिर्भासुरता शोभा सरसता-सजलता चासोदिति युक्तमेव यतो यस्मात् कारणात् अत्र देवीकुचमण्डलेषु सरः कासारः चकासामास ११
कामामास १५ शुशुभे यत्र जलाशयस्तत्र जलजन्तूनां जलपक्षिणां जलानां च सद्भाव उचित एव किं तु कुचभरः स्तनसमूहो नौरसहितो जलसहितो नासोद् इत्यद्भुतमेव विस्मयोपेतमेव । पक्षे व्याख्यानम् -यद्देवीकुचमण्डलेषु मकरीगणः काश्मीरद्रवेण रचितरचनाविशेषसमूहः, चक्रभासुरता-चक्र इव चक्रवाकपक्षिवत् भासुरता शोभमानता, सरसता शृङ्गारादिरसयुक्तता चासोदिति युक्तमेव यतोऽत्र सरो हारः चकासामास । किं तु कुचभरो नीर
और वचनधारा अतिमृदुलया-अत्यन्त कोमल थी। जिसकी सात प्रकारकी सेनाकी सन्तति २० करकान्ति-हाथकी कान्तिके समान थी क्योंकि जिस प्रकार सात प्रकारकी सेनाकी सन्तति शोभितसुवर्णसरोरुहया-शोभायमान सुवर्णके हारोंसे युक्त बड़े-बड़े घोड़ोंसे सहित थी उसी प्रकार करकान्ति भी शोभितसवर्णसरोरुहया-शोभायमान स्वर्णकमलोंसे सहित थी। जिसकी धैर्यवृत्ति-धीरता तारुण्यलक्ष्मीके समान थी क्योंकि जिस प्रकार धैर्यवृत्ति कलितमनोजयामनकी विजयसे सहित थी उसी प्रकार तारुण्यलक्ष्मी कलितमनोजया-कामसे सहित थी। २५ जिसके घोड़ोंकी परम्परा कल्पवृक्षोंकी वनवीथीके समान थी क्योंकि जिसप्रकार घोड़ोंकी परम्परा सुगन्धिवायुविशोभितरया-सुगन्धित वायुके समान शोभित वेगसे सहित थी उसी प्रकार कल्पक वृक्षोंकी वनवीथी भी सुगन्धिवायुविशोभितरया-सुगन्धित वायुसे अत्यन्त विशोभित थी। $ ९२) किचेति-जिस अच्युतेन्द्रकी देवांगनाओंके स्तनोंपर मकरीगण-मगरकी स्त्रियोंका समूह, चक्रभासुरता-चक्रवाकपक्षियोंकी शोभा, और सरसता- ३० सजलता थी यह उचित ही था क्योंकि यहाँ सरः-सरोवर शोभायमान था; जहाँ सरोवर रहता है वहाँ मगर आदि जल जन्तुओंके समूह, चकवाकी शोभा तथा जलका सद्भाव रहता ही है किन्तु स्तनोंका समूह नीरसहित--जलसे सहित नहीं था यह आश्चर्यकी ही बात थी। जहाँ सरोवर हो वहाँ जल न हो यह विरुद्ध बात है (परिहार पक्षमें जिस अच्युतेन्द्रकी देवियोंके स्तनोंपर मकरीगण-केशर, कस्तूरी आदिके द्रवसे लिखी हुई विशिष्ट रचना चक्र- ३५ भासुरता-चक्रवाक पक्षीके समान शोभा तथा सरसता-शृंगारादि रससे सहितपना था यह योग्य ही था क्योंकि उनपर सर-हार शोभायमान था। जहाँ हार शोभा दे रहा था वहाँ मकरीकी रचना, चकवा जैसी गोल आकृति तथा सरसता-कामोत्तेजक होनेसे शृंगा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org