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गाथा-८
प्रवचनसार अनुशीलन उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जिसप्रकार उष्णतारूप परिणमित लोहे का गोला उस समय उष्ण ही है; उसीप्रकार जो द्रव्य जिस समय जिस भावरूप से परिणमित होता है; उस समय उसी भावरूप होता है। इसी नियम के अनुसार धर्मभाव से परिणमित आत्मा स्वयं धर्मरूप ही है। इसप्रकार आत्मा स्वयं चारित्र है - यह बात सिद्ध होती है।"
प्रश्न - यहाँ पर टीका में उष्णतारूप परिणमित लोहे के गोले का उदाहरण देकर धर्म परिणत आत्मा ही धर्म है - यह बात समझाई गई है। उक्त उदाहरण में तो लोहा अलग है और उष्णता अलग है। उष्णता तो अग्नि की है, लोहे की नहीं; जबकि आत्मा और शुद्धोपयोगरूप परिणति तो एक अपेक्षा से अभिन्न ही है। जिसप्रकार शुद्धोपयोग और आत्मा अभिन्न हैं, उसीप्रकार उष्णता और लोहे को तो नहीं माना जा सकता। अत: यह उदाहरण यहाँ पूर्णतः घटित नहीं होता।
उत्तर - उक्त आशंका कविवर वृन्दावनदासजी के हृदय में भी उत्पन्न हुई थी, जिसका समाधान उन्होंने इसप्रकार किया है -
(दोहा) अयमय गोला अगनि तें, लाल होत जिहि काल । अनल ताहि तब सब कहत, देखो बुद्धि विशाल ।।२६।। तैसे जिन जिन धर्म करि, प्रणवहि वस्त समस्त । तन्मय तासों होहिं तब, यह सुभाव अनअस्त ।।२७।। अग्नि पृथक गोला पृथक, यह संजोगसंबंध । त्यों धर्मी अरु धर्म में, भेद नहीं है खंध ।।२८।। सिख संबोधन को सुगुरु, देत विदित दृष्टांत । एकदेश सो व्यापता, सुनो भविक तजि भ्रांत ।।२९।।
धर्मी धर्म दुहून को तादात्मक सम्बन्ध । है प्रदेश प्रति एकता, सहज सुभाव असंध ।।३०।।
यदि बौद्धिक विशालता से देखें तो लोहे का गोला अग्नि के संयोग से जिस समय लाल हो जाता है; उस समय उसे सभी लोग अग्नि ही कहते हैं। ___ उसीप्रकार सभी वस्तुएँ जिससमय जिन धर्मों (पर्यायों) में परिणमित होती हैं; उस समय वे वस्तुएँ उन धर्मों (पर्यायों) से तन्मय (एकाकारअभेद-अभिन्न) होती हैं। यह कभी अस्त न होनेवाला वस्तु का सहज स्वभाव है।
यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि अग्नि और लोहे का गोला तो पृथक्-पृथक् वस्तुएँ हैं; इनमें तो परस्पर संयोगसंबंध है, तादात्म्य संबंध नहीं। अरे भाई ! धर्मी और धर्म में तो संयोग संबंध नहीं होता; उनमें तो तादात्म्य संबंध ही होता है ?
उक्त प्रश्न के उत्तर में कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं कि हे भव्य जीवों ! भ्रान्ति छोड़कर यह बात सुनो कि सुगुरु शिष्यों को समझाने के लिए अनेक-प्रकार के दृष्टांत देते हैं; उनमें अनेक दृष्टांत तो एकदेश ही व्याप्त होते हैं।
यह बात तो एकदम सच्ची है कि धर्मी और धर्म (पर्याय) में तादात्म्य संबंध ही होता है; क्योंकि दोनों में प्रदेश एक होते हैं। धर्मी और धर्म (पर्याय) में सांध नहीं होती; सहज स्वाभाविक एकता होती है।
यद्यपि आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा के भाव को इसीप्रकार स्पष्ट करते हैं, उदाहरण भी गर्म लोहे के गोले का ही देते हैं; तथापि धर्म पर्याय से परिणमित आत्मा ही धर्म है - इस बात को स्पष्ट करते हुए धर्म के निश्चय और व्यवहार - ऐसे दो भेद कर देते हैं। साथ में निजशुद्धात्म परिणति को निश्चयधर्म और पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि शुभभावरूप परिणति को व्यवहारधर्म कहते हैं।
हा