Book Title: Pravachansara Anushilan Part 1
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Ravindra Patni Family Charitable Trust Mumbai

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Page 94
________________ गाथा-३६ प्रवचनसार गाथा-३६ आत्मा और ज्ञान में कर्ता-करण संबंध के निषेध पूर्वक दोनों में अभेदत्व स्थापित करने के उपरान्त अब ज्ञान और ज्ञेय क्या हैं - यह समझाते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - तम्हाणाणं जीवो णेयं दव्वं तिहा समक्खादं । दव्वं ति पुणो आदा परं च परिणामसंबद्धं ॥३६।। (हरिगीत) जीव ही है ज्ञान ज्ञेय त्रिधावर्णित द्रव्य हैं। वे द्रव्य आतम और पर परिणाम से संबंद्ध हैं ।।३६।। यह जीव ज्ञान है और ज्ञेय तीनप्रकार से वर्णित त्रिकालस्पर्शी द्रव्य हैं। वे ज्ञेयभूत परिणामस्वभावी द्रव्य स्व और पर हैं। इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “विगत गाथा में की गई प्ररूपणा के अनुसार यह जीव स्वयं ही ज्ञानरूप से परिणमित होकर स्वतंत्रतया ही जानता है; इसलिए यह जीव ही ज्ञान है; क्योंकि अन्य द्रव्य इसप्रकार ज्ञानरूप परिणमित होने और जानने में असमर्थ हैं। जो द्रव्य; वर्त चुकी, वर्त रहीं और भविष्य में वर्तनेवाली विचित्र (विभिन्न प्रकार की) पर्यायों की परम्परा के प्रकार से त्रिविध कालकोटि को स्पर्श करते होने से अनादि-अनंत हैं; वे सभी द्रव्य ज्ञेय हैं। वे ज्ञेयभूत द्रव्य स्व और पर के भेद से दो प्रकार के हैं। ज्ञान स्व-पर ज्ञायक है; इसकारण ज्ञेय की इसप्रकार द्विविधता मानी जाती है। प्रश्न - अपने में क्रिया के हो सकने का विरोध है; इसलिए आत्मा की स्वज्ञायकता किसप्रकार घटित होती है ? १८१ उत्तर - कौनसी क्रिया है और किसप्रकार का विरोध है? जो यहाँ प्रश्न में विरोधी क्रिया कही गई है, वह उत्पत्तिरूप होगी या ज्ञप्तिरूप? उत्पत्तिरूप क्रिया तो 'नैकं स्वस्मात्प्रजायत - एक स्वयं से उत्पन्न नहीं हो सकता' - इस आगम वाक्य से विरुद्ध ही है; परन्तु ज्ञप्तिरूप क्रिया में विरोध नहीं आता; क्योंकि वह प्रकाशनक्रिया की भांति उत्पत्तिक्रिया से विरुद्ध अर्थात् भिन्नप्रकार की होती है। जो पर को प्रकाशित करता है - ऐसे प्रकाशक दीपक को स्व को प्रकाशित करने के लिए अन्य प्रकाशक (दीपक) की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि उसे स्वयमेव प्रकाशनक्रिया की प्राप्ति है। उसीप्रकार परज्ञेयों को जाननेवाले आत्मा को स्वज्ञेय को जानने के लिए अन्य ज्ञायक की आवश्यकता नहीं होती; क्योंकि उसे स्वमेव ज्ञानक्रिया की प्राप्ति है। इससे यह सहज ही सिद्ध है कि ज्ञान स्वयं को जान सकता है। प्रश्न - आत्मा को द्रव्यों की ज्ञानरूपता और द्रव्यों को आत्मा की ज्ञेयरूपता किसप्रकार है ? तात्पर्य यह है कि आत्मा द्रव्यों को जानता है और द्रव्य आत्मा के जानने में आते हैं - यह बात किसप्रकार घटित होती है? उत्तर - आत्मा सहित सभी द्रव्यों के परिणमनस्वभावी होने से यह सब सहज ही घटित हो जाता है । ज्ञेय द्रव्यों के ज्ञानरूप परिणमित आत्मा के और द्रव्यों के ज्ञान के अवलम्बन से ज्ञेयाकाररूप परिणमित होने में कोई बाधा नहीं है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में दो बातें नई प्रस्तुत करते हैं। प्रथम तो ज्ञेय द्रव्यों की तीनरूपता में भूत, भावी और वर्तमान के अतिरिक्त द्रव्यगुण-पर्याय और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूपता को भी प्रस्तुत करते हैं। दूसरे ज्ञान को जानने के लिए ज्ञानान्तर की आवश्यकता होगी - ऐसा नैयायिक कहते हैं। ऐसा कहकर वे दीपक के उदाहरण से उक्त मान्यता का खण्डन

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